इस मध्यलोक में हम - सब रहते हैं । इसे नरतिर्यक् लोक कहते हैं । इसी में विदेह क्षेत्र भी आता है उसकी विशेषताओं का वर्णन इस अध्याय में है ।
1. लोक व्यवहार में गङ्गा नदी को श्रेष्ठ क्यों मानते हैं?
द्वीपों में पर्वत पर सरोवर हैं, उन सरोवरों में कमल हैं, जिनमें श्रीआदि देवियाँ निवास करती हैं। उन कमलों में जितने भवन हैं उतने वहाँ जिनमन्दिर हैं। श्री गृह के अग्रभाग पर कमल कर्णिका में सिंहासन पर स्थित जिनबिम्ब पर मानों अभिषेक करने का ही मन जिसका ऐसी गङ्गा नदी मस्तक पर गिरती हैअत: वह जल गन्धोदक के रूप में श्रेष्ठ है । (त्रि. सा., 586-90 के आधार पर) इसी से उस गङ्गा नदी के कारण वर्तमान इस भारत देश की गङ्गा को भी श्रेष्ठ मानते हैं।
2. नन्दन आदि वनों के भवनों के स्वामी कौन हैं ?
नन्दन आदि वनों के भवनों के स्वामी लोकपाल कहे जाने वाले सोम, यम, वरुण और कुबेर क्रमश: पूर्वादि दिशाओं में हैं। प्रत्येक लोकपाल की साढ़े तीन करोड़ गिरिकन्यका अर्थात् व्यन्तर जाति की देवाङ्गनाएँ हैं । (त्रि. सा., 621 )
3. सोम आदि देवों की आयु एवं उनके आभूषणों का रङ्ग बताइए?
किस दिशा के स्वामी | आयु | अलङ्कार का रङ्ग |
---|---|---|
पूर्व दिशा के स्वामी | 21⁄2 पल्य | लाल |
दक्षिण दिशा के स्वामी | 2 1⁄2 पल्य | कृष्ण |
पश्चिम दिशा के स्वामी | कुछ कम 3 पल्य | काञ्चन |
उत्तर दिशा के स्वामी | कुछ कम 3 पल्य | सफेद |
(त्रि. सा., 622 )
4. विदेह क्षेत्र में वर्षा किस प्रकार से होती है?
वर्षाकाल में सात प्रकार के कालमेघ सात-सात दिन तक (49 दिनों तक) और द्रोण नामक बारह प्रकार
के धवल (श्वेत) मेघ सात दिन तक (84 दिनों तक) वर्षा करते हैं इस प्रकार वर्षा ऋतु में वहाँ कुल 133 दिन मर्यादापूर्वक वर्षा होती है। (त्रि. सा., 679)
5. ग्राम, नगर, खेट, खर्वड, मडम्व, पतन और सम्वाह किसे कहते हैं?
- ग्राम- जो चारों ओर काँटों की वाड़ से वेष्टित हो ।
- नगर- चार दरवाजों से युक्त कोट से वेष्टित हो ।
- खेट - जो नदी और पर्वत दोनों से वेष्टित हो ।
- खर्वड- पर्वत से वेष्टित हो ।
- मडम्ब - जो 500 ग्रामों से संयुक्त हो ।
- पत्तन - जहाँ रत्न आदि वस्तुओं की निष्पति होती है।
- द्रोण- नदी से वेष्टित हो ।
- सम्वाह - समुद्र की वेला से वेष्टित हो ।
- दुर्गाटवी - पर्वत के ऊपर जो बने हुए हो। (त्रि. सा.,676)
6. विदेह क्षेत्र की विशेषताएँ बताइए?
- विदेह क्षेत्र के नगरों एवं ग्रामों आदि में मणिमय और स्वर्णमय जिनालय हैं ।
- वहाँ रत्नमय सहस्रों जिनबिम्बों से भरे हुए और रत्नमय उपकरणों से परिपूर्ण हैं ।
- वहाँ कहीं भी सरागी देवों के देवालय नहीं हैं ।
- वहाँ विवाह एवं जन्म आदि कार्यों में तथा अन्य समस्त मङ्गल कार्यों में वीतरागी अर्थात् अर्हन्त, सिद्ध आदि का ही पूजन होता है । क्षेत्रपाल आदि सरागी देवों का नहीं ।
- वहाँ समवसरण में विराजमान तीर्थङ्कर सज्जन पुरुषों को धर्म का उपदेश देते हैं और विहार करते हैं ।
- वहाँ ज्ञान के धारी, महाऋद्धियों के अधिश्वर तथा मुनिगणों से वेष्टित गणधरदेव मुक्ति मार्ग की प्रवृत्ति के लिए निरन्तर विहार करते हैं ।
- वहाँ पञ्चाचार परायण तथा शिष्य आदि परिवार से वेष्टित महान् आचार्य निरन्तर विहार करते हुए दिखाई देते हैं ।
- वहाँ अङ्ग और पूर्व रूप से जिनागम को स्वयं पढ़ते हुए और अन्य मुनिगणों को पढ़ाते हुए तथा रत्नमय एवं तप से विभूषित अनेक उपाध्याय परमेष्ठी हैं।
- वहाँ उत्तम ध्यान में संलग्न तथा महाघोर तप से युक्त साधु पर्वतों पर कन्दराओं में, दुर्ग आदि में वनों में तथा और भी अन्य निर्जन स्थानों में निवास करते हैं ।
- वहाँ स्वप्न में भी खोटे साधुओं के दर्शन नहीं होते ।
- वहाँ योगिजन अङ्ग पूर्व आदि के समस्त आगम को पढ़ते हैं और श्रावक गण नित्य ही सुनते हैं ।
- वहाँ खोटे शास्त्र कभी भी नहीं सुनते हैं ।
- धूर्तों के द्वारा कहा हुआ तथा अन्य हिंसा आदि से उत्पन्न और दुर्गति प्रदाता धर्म नहीं है ।
- वहाँ की प्रजा क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों से समन्वित है ।
- वहाँ मिथ्यामतों से उत्पन्न होने वाली खोटीबुद्धि को धारण करने वाले मनुष्य नहीं हैं।
- वहाँ जैन संघों में भेद नहीं हैं, न वहाँ पाखण्डी दर्शन हैं और न एक अद्वितीय जिनमत के बिना अन्य मत नहीं है ।
- वहाँ जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहा हुआ, अनन्त सुख प्रदाता, रत्नत्रयामक सत्य मोक्षमार्ग का प्रवाह निरन्तर बहता रहता है। (सि. सा. दी., 8/147-175)
- वहाँ कभी भी दुर्भिक्ष नहीं पड़ता है।
- अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूषक, टिड्डी, शुक, स्वचक्र और परचक्र है लक्षण जिसका ऐसी सात प्रकार की ईतियाँ नहीं होती है।
- गाय, मनुष्य आदि जिन में अधिक मरते हैं ऐसे मारी आदि रोग नहीं होते हैं । (त्रि. सा. टी., 680)
7. पञ्च विदेह एवं अढ़ाई द्वीप में जघन्य एवं उत्कृष्ट से कितने तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती एवं अर्धचक्री होते हैं?
तीर्थङ्कर चक्रवर्ती और अर्ध चक्री पृथक् पृथक् पञ्च विदेह में हो तो उत्कृष्टता से 160 होते हैं और जघन्यता से 20 ही होते हैं तथा अढ़ाई द्वीप में उत्कृष्टता 170 होते हैं।
8. राजाधिराजाओं के लक्षण बताइए ?
- सेनापति - सेना का नायक ।
- गणिकपति- ज्योतिषज्ञों का अधिनायक । वणिक्पति- व्यापारियों का अधिनायक ।
- दण्डपति - समस्त सेना का नायक ।
- मन्त्री - पञ्चाङ्ग मन्त्र में प्रवीण ।
- महत्तर - जो कुल में बड़ा हो ।
- कोतवाल- जो लोक का पालन करते हैं ।
- राजा- उपरोक्त 7, क्षत्रिय आदि चार वर्ण, चतुरङ्ग सेना, पुरोहित, देश का अधिकारी, अमात्य और राज्य का अधिकारी महामात्य ऐसी 18 श्रेणियों का जो स्वामी हो उसे राजा कहते हैं । यही मुकुटधारी होते हैं ।
- अधिराजा - 500 मुकुटधारी राजाओं के स्वामी ।
- महाराजा - 1000 राजाओं का स्वामी ।
- अर्धमण्डलीक - 2000 राजाओं का स्वामी ।
- मण्डलीक - 4000 राजाओं का स्वामी ।
- महामण्डलीक - 8000 राजाओं का स्वामी ।
- त्रिखण्डाधिति - 16,000 राजाओं का स्वामी ।
- चक्रवर्ती - 32,000 मुकुटबद्ध राजाओं का स्वामी । ( त्रि. सा.,685)
9. विदेह क्षेत्र की प्रत्येक नगरी में छः - छः खण्ड किस प्रकार होते हैं?
विदेह क्षेत्र की प्रत्येक नगरी में एक-एक विजयार्ध पर्वत और गङ्गा सिन्धु सदृश दो-दो नदियों से छ:- छ: खण्ड होते हैं ।(त्रि.सा.,691)
10. विद्याधरों के पास कितने तरह की विद्यायें होती हैं एवं इनके षट्कर्म कौन-कौन हैं?
इनके पास तीन प्रकार की विद्यायें होती हैं प्रथम तो स्वयं साधना से प्राप्त तप विद्या कहलाती हैं, दूसरी पितृ पक्ष से प्राप्त कुल विद्या कहलाती हैं, तथा तीसरी मातृपक्ष से प्राप्त जाति विद्या कहलाती है। इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप इनके षट्कर्म हैं ।
- इज्या -पूज्य पुरुषों को पूजना इज्या है।
- वार्ता-असि, मसि आदि जीविका के उपाय रूप व्यापार को वार्ता कहते हैं ।
- दत्ति- स्वपरोपकारार्थ दान देने का नाम दत्ति है ।
- स्वाध्याय- पठन पाठन को स्वाध्याय कहते हैं ।
- संयम-अविरति, त्याग का नाम संयम है ।
- तप-इच्छा को रोकने का नाम तप है । (त्रि.सा.वि.,709)
11. लवण समुद्रों के नीचे पातालों में क्या है?
उन पातालों के अधस्तन भागो में नियम से वायु है तथा उपरिम भाग में जल और मध्यम भाग में जल, वायु दोनों हैं । कृष्णपक्ष में जल की ओर शुक्लपक्ष में वायु की वृद्धि होती है। (त्रि.सा.,898)
12. पूर्णिमा एवं अमावस्या में लवण समुद्र के जल में कितनी वृद्धि होती है ?
लवण समुद्र के मध्य में समुद्र का जल पूर्णिमा को 16,000 योजन ऊँचा और अमावस्या को 11,000 योजन ऊँचा होता हैं । 16,000 ऊँचाई वाले जल का भू व्यास दो लाख योजन और मुख व्यास 10,000 योजन प्रमाण है । (त्रि. सा., 900)
13. लवण समुद्र के प्रतिपालक नागकुमार देवों के विमानों की संख्या बताइए ?
जम्बूद्वीप की अपेक्षा लवण समुद्र के बाह्य में बेलन्धर जाति के नागकुमार देवों के 72,000 विमान हैं। शिखर में 16,000 ऊँची जलराशि के ऊपर 28,000 और अभ्यन्तर में 42,000 विमान हैं। (त्रि.सा., 903)
14. द्वीप समूद्रों की संख्या कितनी है ?
अढ़ाई उद्धार सागर रोमों का जितना प्रमाण होता है, उतना ही प्रमाण असंख्यात द्वीप और समुद्रों का है ।(सि.सा.दी.,4/11)
15. सूची व्यास किसे कहते हैं?
सीधी रेखा द्वारा द्वीप समुद्र या समुद्र के एक तट से दूसरे तट पर्यन्त तक जो माप किया जाता है,उसे सूची कहते हैं । (सि.सा.दी., 4/15)
16. अढ़ाई द्वीप पर्यन्त के द्वीप समुद्रों की सूची का प्रमाण कितना है ?
जम्बूद्वीप के सूची व्यास का प्रमाण एक लाख योजन, लवण समुद्र के सूची व्यास का प्रमाण पाँच लाख योजन धातकी खण्ड का तेरह लाख योजन, कालोदधि समुद्र के उनतीस लाख योजन और पुष्करार्ध द्वीप के सूची व्यास का प्रमाण पैतालीस लाख योजन है । (सि.सा.दी., 4/16-18)
17. जम्बूद्वीपस्थ प्रमुख नदियाँ कितनी हैं ?
90 हैं। गङ्गा आदि महानदियाँ 14 + विभङ्गानदियाँ 12 + विदेहज गङ्गादि 64 = 90 इनमें 12 विभङ्गानदियों में प्रत्येक की 28,000-28,000 परिवार नदियाँ हैं । एवं शेष की परिवार नदियाँ 14,000- 14000 हैं । (सि.सा. दी., 4/52-55 टीका)
18. जम्बूद्वीप में कुल कितने पर्वत हैं ?
पर्वत | संख्या |
---|---|
सुदर्शन मेरु | 1 |
काञ्जन | 200 |
कुलाचल पर्वत | 6 |
विजयार्ध | 34 |
गजदन्त | 4 |
वृषभाचल | 34 |
यमकगिरि | 4 |
वक्षार | 16 |
नाभिगिरि | 4 |
दिग्गज | 8 |
कुल | 311 |
(सि.सा.दी., 8/174-176)
विशेष - धातकीखण्ड में और पुष्करार्ध द्वीप में मेरु आदि पर्वतों की संख्या दूनी दूनी है अर्थात् धातकीखण्ड में 622 पर्वत हैं।(सि.सा.दी., 8/177)
19. जम्बूद्वीप में वन, वृक्ष, सरोवर एवं महादेशों आदि की संख्या बताइए?
वन | 2 | पूर्वभद्रशाल वन और पश्चिम भद्रशाल वन । |
वृक्ष | 2 | जम्बू और शाल्मली। |
सरोवर | 6 | छ: कुलाचलों पर छ: सरोवर हैं । |
सरोवर | 20 | सीता - सीतोदा के मध्य बीस सरोवर हैं । |
भोगभूमियाँ | 6 | दो जघन्य भोगभूमियाँ, दो मध्यम भोगभूमियाँ एवं दो उत्तम हैं। इस प्रकार छ: भोगभूमियाँ हैं। |
महादेश | 34 | भरत ऐरावत सहित 34 महादेश हैं । |
राजधानियाँ | 34 | आर्यखण्डों में स्थित 34 नगरी (राजधानियाँ) हैं। |
उपसमुद्र | 34 | अनादिनिधन चौंतीस उपसमुद्र हैं । |
शेष वन | 4 | देवारण्य नाम के दो तथा भूतारण्य नाम के दो उत्तम वन हैं । |
(सि.सा.दी., 8/178-181)
20. प्रथम कल्की की सन्तान कैसी थी ?
धर्मज्ञ थी। प्रथम चतुर्मुख कल्की का मरण असुरेन्द्र के द्वारा हुआ। तभी उसका पुत्र जयध्वज और पत्नी चेलका असुरेन्द्र के भय से और जैनधर्म कृत जिनशासन के माहात्म्य को प्रत्यक्ष देखकर तथा काललब्धि के प्रभाव से सम्यक्त्वरूपी महारत्न को ग्रहण करता हुआ शीघ्र ही अपनी सेना एवं स्वजन परिजनों के साथ असुरेन्द्र की शरण में गया । अहो ! पुण्य करने वालों के महान् शुभ फल और पाप करने वालों के महान् अशुभ फल साक्षात् यहाँ ही दिखाई दे जाते हैं। अगले जन्म की तो क्या बात। (सि.सा.दी., 9 / 228-290)
21. जैन भूगोल के ज्ञान से हमारा कल्याण कैसे होगा?
मोक्ष के कारण सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र - धर्म है । सम्यक्त्व की प्राप्ति संशय दूर होने पर होती है । लोक के बारे में अन्यमतियों की अनेक भ्रामक कल्पनाएँ हैं । जिनमत में कथित विश्व का सही स्वरूप जानने से आस्रव बन्ध के फल नरक-स्वर्गादि कहे उनके विशेषों का जानना होता है, आसव्र बन्ध के अभाव से संवर निर्जरा होती है । उसका फल मोक्ष है, उन सिद्धों के स्थानादि विशेष जानेंगे तो जानेंगे तो तत्त्व श्रद्धान से संशय नहीं रहेगा श्रद्धान दृढ़ होगा।
दूसरा सम्यग्ज्ञान धर्म है। इस शास्त्र का ( भूगोल सबन्धित) अभ्यास करने से मिथ्यात्व, कषाय, हिंसादि पाप कार्यों की वृद्धि नहीं होती, हानि ही होती है । इसलिए इसका अभ्यास स्वयं में सम्यग्ज्ञान रूप है।
तीसरा सम्यक् चारित्र धर्म है, वह सराग, वीतराग भेद युक्त हैं, अशुभ प्रवृत्ति छूटकर शुभ प्रवृत्ति होने पर सरागचारित्र होता है।कोई इस शास्त्र (भूगोल सम्बन्धित) से अशुभ का फल नरकादि और शुभ का फल स्वर्गादि जानेगा तो हिंसादि पाप को छोड़कर व्रतादि शुभ में प्रवर्तेगा तथा राग-द्वेष उत्पन्न कराने वाले विचार दूर होने पर वीतराग चारित्र होता है लोक के स्वरूप का विचार करने से इस पर्याय सम्बन्धी कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । और बिना प्रयोजन (बिना लाभ हानि के ) राग-द्वेष क्यों उपजेंगे? इसलिए वीतराग भाव सहज ही होता है।
यहाँ कोई पूछेगा कि इतने विकल्प होने पर वीतरागता कैसे रहेगी । उसका उत्तर जड़ होने पर विकल्प दूर होंगे। ज्ञान का स्वरूप तो सविकल्प ही है। किसी ज्ञेय को जानेगा ही, इसलिए ज्ञेय जानने रूप विकल्पों से वीतरागता का अभाव नहीं होता जिससे रागद्वेष उत्पन्न होते हैं ऐसे विकल्पों से वीतरागता का अभाव होता है।
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