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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 47 - पञ्चलब्धि

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    Vidyasagar.Guru

    सर्वप्रथम जीव उपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। उसके लिए योग्यता चाहिए वह पञ्चलब्धि ही उसकी योग्यता है उसी वर्णन का इस अध्याय में है।


    1. लब्धि किसे कहते हैं?
    लभ् धातु से लब्धि शब्द बनता है लोक में इसका अर्थ प्राप्ति तथा लाभ होता है।

     

    2. प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्ति से पूर्व कितनी लब्धियाँ होती हैं ?
    सर्वप्रथम प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्ति से पूर्व पाँच लब्धियाँ होती हैं। जो इस प्रकार हैं-
    क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्य लब्धि तथा करण लब्धि ।


    3. क्षयोपशम लब्धि किसे कहते हैं?
    पूर्व सञ्चित कर्मों के मलरूप पटल के अनुभाग स्पर्धक जिस समय विशुद्धि के द्वारा प्रतिसमय अनन्त गुणेहीन होते हुए उदीरणा को प्राप्त किये जाते हैं, उस समय क्षयोपशम लब्धि होती है । इस लब्धि के द्वारा जीव के परिणाम उत्तरोतर निर्मल होते जाते हैं। (ध.पु., 6/204)


    विशेष- मुझे ये कष्ट क्यों हो रहे हैं, मेरा कल्याण कैसे होगा, कैसे हो सकता है, कैसे करूँ आदि वैचारिक शक्ति प्राप्त होना क्षयोपशम लब्धि है।


    4. विशुद्धि लब्धि किसे कहते हैं?
    प्रतिसमय अनन्तगुणित हीन क्रम से उदीरित अनुभाग स्पर्धकों से उत्पन्न हुआ साता आदि शुभ कर्मों को बन्ध का निमित्तभूत और असाता आदि अशुभ कर्मों के बन्ध का विरोधी जो जीव का परिणाम है उसे विशुद्धि कहते हैं । उसकी प्राप्ति का नाम विशुद्धि लब्धि है। (ध.पु., 6/204)


    5. देशना लब्धि किसे कहते हैं ?
    छः द्रव्यों और नौ पदार्थों के उपदेश का नाम देशना है । उस देशना से परिणत आचार्य आदि की उपलब्धि को और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विचारण की शक्ति के समागम को देशना लब्धि कहते हैं । (ध.पु., 6-204) जैसे -प्यासे आदमी को पानी मिल जाने पर वह उसे अच्छे से पीता जाता है उसी प्रकार सद्गुरु के उपदेश को प्रीतिपूर्वक ग्रहण करना देशनालब्धि है । कहा भी है " पातुं कर्णाञ्जलिभिः किममृतमिव बुध्यते सदुपदेशः।। (प्र.र.म., 9)


    विशेष- मद्य, माँस, मधु बड़, पीपल, कठूमर, पाकर, ऊमर इन आठ अनिष्ट, दुस्तर और पापों के स्थान स्वरूप फलों को छोड़कर शुद्ध बुद्धि वाले पुरुष ही जिनधर्म के उपदेश ग्रहण करने के पात्र होते हैं । जैसा कि कहा है-


    अष्टावनिष्टदुस्तरदुरिता यतनान्यमूनि परिवर्ज्य ।
    जिनधर्मदेशनायाः भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः ॥पु.सि.उ.,74॥


    6. नरकों में जहाँ उपदेश देने वाला नहीं वहाँ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कैसे होती है?
    नरकों में जहाँ उपदेश देने वाला नहीं वहाँ पूर्व जन्म में धारण किया हुआ तत्त्वार्थ के संस्कार बल से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। (ल.सा., 6)


    7. देशना के फल का अधिकारी कौन?


    व्यवहार निश्चयौ यः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः ।
    प्राप्नोति देशनायाः स एवं फलमविकलं शिष्यः ॥ पु. सि. उ., 8 ॥

    अर्थ - जो जीव व्यवहार और निश्चय नय को वस्तु स्वरूप के द्वारा यथार्थ रूप से जानकर मध्यस्थ होता है अर्थात् किसी एक नय को न मानकर अपेक्षा में दोनों को स्वीकार करता है, वह ही शिष्य उपदेश के सम्पूर्ण फल को प्राप्त होता है।


    8. देशना देने का अधिकारी कौन है?
    सम्यग्दृष्टि।

    1. नारकियों को उपदेश देने के लिए जो देव जाते हैं, वे सम्यग्दृष्टि होते हैं। (ध.पु.,6/422-423)
    2. धर्म का स्वरूप मिथ्यादृष्टियों द्वारा नहीं कहा जा सकता है । (जै. सि.को., 3/413)
    3. ज्ञान विज्ञान से रहित होने के कारण जिसने स्वयं प्रमाणता को प्राप्त नहीं किया, ऐसे व्याख्याता के वचन प्रमाण रूप नहीं हो सकते। (ध.पु.,1/196)
    4. जिसने सम्पूर्ण वस्तु विषयक ज्ञान को जान लिया है। वही आगम का व्याख्याता हो सकता है (ध.पु.,1/197)


    9. अभव्य मिथ्यादृष्टियों मुनियों से अन्य कितने ही जीवों ने सम्यग्दर्शन आदि प्राप्त करके मोक्ष गए?
    यह कहना बिलकुल सत्य है कि अभव्य मुनियों के उपदेश से अनेक मोक्ष पहुँच गए किन्तु जिसने सम्यग्दर्शन आदि प्राप्त किया है । उनने उन्हें अभव्य या मिथ्यादृष्टि मानकर सम्यग्दर्शनादि प्राप्त नहीं किया बल्कि उन्हें तो भावलिङ्गी मुनि मानकर ही प्राप्त किया है। अतः देशना देने का पात्र सम्यग्दृष्टि सिद्ध होता है।


    10. प्रायोग्य लब्धि किसे कहते हैं?
    आयु कर्म को छोड़कर शेष कर्मों की स्थिति को अन्त: कोड़ाकोड़ी प्रमाण कर देना और अशुभ कर्मों में से घातिया कर्मों के अनुभाग को लता और दारु इन दो स्थानगत तथा अघातिया कर्मों के अनुभाग को नीम और काञ्जीर इन दो स्थानगत कर देना प्रायोग्य लब्धि है ।विशेष -

    1. इस लब्धि में स्थित जीव के 34 बन्धापसरण होते हैं जिनके द्वारा 46 प्रकृतियों का संवर (बन्ध से रुकना)
    2. उक्त चार लब्धियाँ भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीवों के होती है । किन्तु करणलब्धि भव्य के ही होती है तथा भव्यों में भी उस भव्य के होती है जो अन्तर्मुहूर्त बाद सम्यग्दर्शन का धनी होने वाला हो । करणलब्धि नियम से सम्यक्त्व की कारण होती है। ये चार तथा करण इस तरह पाचों लब्धियाँ उपशम सम्यग्दर्शन के ग्रहण में होती हैं।
    3. विशुद्धिवश इसके प्रशस्त प्रकृतियों के अनुभाग का घात नहीं होता है। (ल.सा.टी., 7)

     

    11. करण लब्धि किसे कहते हैं?
    प्रायोग्यलब्धि के पश्चात् अभव्यों के योग्य परिणामों का उल्लंघन कर भव्य जीव क्रमशः अध:प्रवत्तकरण, अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण ऐसे तीन करणों (परिणामों) को करता है । प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन को प्राप्त होने वाले जीव के उक्त तीन प्रकार की विशुद्धियाँ होती हैं।
    विशेष -

    1. यह करण लब्धि सम्यम्त्व और चारित्र ग्रहण के समय होती है ।
    2. तीनों करणों में से प्रत्येक करण का काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है किन्तु ऊपर से नीचे के करणों का काल संख्यातगुणा क्रम लिए हुए है। अर्थात् अनिवृत्ति करण का काल स्तोक है। उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरण का काल है । उससे भी संख्यात गुणा अधःप्रवत्तकरण का काल है ।


    उदाहरण-

    1. यहाँ आत्मा एक रेलगाड़ी के समान है। जिसे मोक्षनगर को जाना है । उसका मोक्षमार्ग पर चलना प्रारम्भ करना सम्यग्दर्शन है । यहाँ काललब्धि (भव्यत्व आदि) तो पटरी के समान है जिसके बिना रेल नहीं चल सकती। संज्ञीपना आदि रेल के पहिये के समान हैं। जिसके होने पर ही रेल चल सकती है यह क्षयोपशम लब्धि है। देशना लब्धि सीटी के समान है जो संकेत देती है । विशुद्धि लब्धि रास्ता साफ करती है, ताकि गाड़ी को आगे बढ़ने में रुकावट न आवे । प्रायोग्य लब्धि कोयला और पानी या बॉयलर (भट्टी अथवा वाष्पेन्द्र) का काम करती है जो शक्ति प्रदान करती है और करण लब्धि चाबी या हेण्डिल का काम करती है। जिसके घुमाने से रेल चलना शुरु हो जाती है । (स. सा.श.)
    2. कर्मोदय का कृश होना ( क्षयोपशम), कषायों की मन्दता (विशुद्धि), उपदेशामृत का लाभ (देशना), पड़ोसी कर्मों के टिकने के काल व रस में कमी (प्रायोग्य) तथा आत्मानुभव (आत्मश्रद्धान) की समीपता का कारणभूत परिणाम (करण) ये पाँच लब्धियाँ प्रथम सम्यक्त्व की कारण है ।
    3. आज तक मध्यम अनन्तानन्त जीवों ने पाँच लब्धियाँ प्राप्त करके संसार का अन्त कर दिया है ।
    4. अभी लाखों जीव पाँच लब्धियों को अपने - अपने योग्य समय में आत्मसात् करके सम्यक्त्व तथा चारित्र धारण कर वर्तमान में केवली पद पर आरूढ़ हैं।
    5. अनन्त जीव ऐसे हैं जिन्होंने पाँच लब्धियों को आत्मसात् तो किया, किन्तु समकित रत्न पाकर पुनरपि अब वे अनन्त जीव अनात्मज्ञानियों के साथ रुल रहे हैं अर्थात् लब्धि रूप परिणाम अब उनके पास नहीं हैं, पहले हुए थे। ऐसे अनन्त जीव अभी संसार में हैं । इस कथन से यह शिक्षा मिलती है कि सम्यक्त्व प्राप्त कर उसकी सुरक्षा तथा चारित्र के क्षेत्र में वृद्धि करनी चाहिए। कहा भी है- 'सम्यग्ज्ञानी होय बहुरि दिढ़ चारित लीजे ।
    6. पञ्चम लब्धि सम्पन्न जीवअपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण इन परिणामों के समय संवर व निर्जरा तत्त्वमय होता है तथा भाविनैगमनय से सम्यक्त्वी होता है ।
    7. इन देशनादि लब्धियों को प्राप्त कर पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण अगणित सम्यक्त्वी अभी भी इस मध्य लोक में विचरण कर रहे हैं । किन्तु उन सबके नाम भी ज्ञात नहीं हैं ।
    8. जब काललब्धि निकट आती है तब संसारी जीव को पञ्चलब्धि होती हैं ।


    12. प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं?
    दर्शनमोहनीय की मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियों के उपशम से जो सम्यक्त्व होता है, उसे प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं ।


    13. अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के कर्मोदय से प्राप्त कलुषता के रहते हुए इनका उपशम कैसे होता है ?
    अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के काललब्धि आदि के निमित्त से इनका उपशम होता है । वह काललब्धि अनेक प्रकारकी है- समय की अपेक्षा काललब्धि, कर्म स्थिति की अपेक्षा काललब्धि, भव की अपेक्षा काल लब्धि आदि । आदि शब्द से जातिस्मरण आदि ग्रहण करना चाहिए। (स.सि.,258)


    14. उपरोक्त लब्धियों के अर्थ क्या हैं ?
    कर्म संयुक्त भव्यात्मा अर्ध पुद्गल परिवर्तन मात्र काल के शेष रहने पर प्रथमोपशम सम्यक्त्व के ग्रहण करने के योग्य होता है इससे अधिक काल के शेष रहने पर नहीं होता है । यह एक काललब्धि है जैसे- 18 वर्ष कीआयु से पहले मतदान नहीं कर सकते । 21 वर्ष की आयु से पहले विधायक साँसद, 35 वर्ष की आयु से पहले मुख्यमन्त्री, प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति नहीं बन सकते है । दूसरी काललब्धि का सम्बन्ध कर्मस्थिति से है जब कर्म उत्कृष्ट स्थिति या जघन्य स्थिति में बन्ध रहे हो । तब प्रथमोपशम सम्यक्त्व नहीं होता किन्तु जब कर्म अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति में बन्ध रहे हो तथा पूर्वबद्ध कर्म परिणामों की निर्मलता के द्वारा संख्यात हजार सागर कम अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति वाले कर दिए गए हो तब प्रथमोपशम सम्यक्त्व की योग्यता होती है जैसे - 18 वर्ष की आयु से पहले सरकारी सेवा (सर्विस) एवं 62 वर्ष की आयु के बाद सरकारी सेवा नहीं कर सकते हैं। तीसरी काललब्धि भव की अपेक्षा होती है-जो भव्य है, संज्ञी है, पर्याप्तक है और सर्व विशुद्ध है । वह प्रथमोपशम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। जैसे - शराबी, दिवालिया, पागल आदि चुनाव नहीं लड़ सकता है । (चुनाव के उम्मीदवार के योग्य नहीं हैं ।)


    किन्तु आचार्य वीरसेन स्वमी ने धवला पुस्तक 5/8/11, 5/11/14, 5/15/19, 5/38/33 आदि अनेक स्थानों पर यह कहा है एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव ने अधःप्रवृत्तादि तीनों करण करके प्रथमोपशम सम्यक्त्व, प्रथमोपशम सम्यक्त्व के साथ संयमासंयम, प्रथमोपशम सम्यक्त्व के साथ सकल संयम (अप्रमत्त विरत गुणस्थान) को प्राप्त होने के प्रथम समय में अनन्त सागर को छिन्न कर अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र किया।


    15. दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम कौन करता है?
    दर्शनमोहनीय कर्म को उपशमाता हुआ यह जीव चारों ही गतियों में उपशमाता है । चारों ही गतियों में उपशमाता हुआ पञ्चेन्द्रियों में उपशमाता है। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में नहीं उपशमाता । पञ्चेन्द्रियों में उपशमाता हुआ संज्ञियों में उपशमाता है, असंज्ञियों में नहीं । संज्ञियों में उपशमाता हुआ गर्भोपक्रान्तिकों में, अर्थात् गर्भज जीवों में उपशमाता है । सम्मूर्च्छिनों में नहीं । गर्भोपक्रान्तिकों में उपशमाता हुआ पर्याप्तकों में उपशमाता है अपर्याप्तकों में नहीं। पर्याप्तकों में उपशमाता हुआ संख्यात वर्ष की आयु वाले जीवों में भी उपशमाता है और असंख्यात वर्ष की आयु वाले जीवों में भी उपशमाता है । (ध.पु.,6/239)


    16. प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले में और क्या विशेषता होनी चाहिए?
    प्रथमोपशम सम्यक्त्व के प्रतिष्ठापक की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

    1. साकारोपयोग में वर्तमान जीव ही दर्शनमोहनीय कर्म के उपशमन का प्रस्थापक (प्रारम्भ ) होता है । किन्तु निष्ठापक और मध्यस्थानवर्ती जीव भजितव्य है ।
    2. तीनों योगों में से किसी एक योग में वर्तमान हो ।
    3. चारों कषायों में से किसी एक कषाय से उपयुक्त हो, किन्तु हीयमान कषाय वाला होना चाहिए ।
    4. असंयत हो ।
    5. कृष्णादि छः लेश्याओं में से किसी एक लेश्या वाला हो किन्तु यदि अशुभलेश्या हो तो वर्धमान होना चाहिए ।
    6. चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण इन चार दर्शनावरण प्रकृतियों का वेदक हो, तथा निद्रा और प्रचला इन दोनों में से किसी एक के साथ पाँच दर्शनावरण प्रकृतियों का वेदक हो । (ध. पु., 6 / 207-210)

    ***

    प्रशस्ति

    माघ शुक्ल एकादशी, शुक्रवार, तारीख 30.01.2015 वीर निर्वाण संवत् 2541 को मध्यप्रदेश के गुना नगर में श्री 1008 पार्श्वनाथ जिनालय में इसका लेखन प्रारम्भ हुआ एवं माघ कृष्ण प्रतिपदा, शनिवार, तारीख 11-01-2020, वीर निर्वाण संवत्, 2546 को सिद्ध क्षेत्र कुण्डलपुर (दमोह) में बड़े बाबा की शरण में पूर्ण हुआ ।


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