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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 46 - पदार्थों को जानने के उपाय

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    Vidyasagar.Guru

    पदार्थों को जानने के चार उपाय हैं। लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप । नय का वर्णन जिनसरस्वती खण्ड-1 में किया जा चुका है । अतः इस अध्याय में लक्षण, प्रमाण एवं निक्षेप का वर्णन किया जा रहा है ।


    1. पदार्थों को जानने के कितने उपाय हैं ?
    चार उपाय हैं- लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप ।


    2. लक्षण किसे कहते हैं ?
    परस्पर सम्मिलित वस्तुओं से जिसके द्वारा किसी वस्तु का पृथक् करण हो वह उसका लक्षण होता है। (त.वा.,2/8/2)

    जैसे -

    जीव का लक्षण चेतना।
    आँख का लक्षण वर्ण को विषय करना ।
    कान का लक्षण शब्द को विषय करना ।
    नमक का लक्षण खारापना ।
    मिर्ची का लक्षण तीखापना।
    नीबू का लक्षण खट्टापना।
    अरिहन्त का लक्षण घातिया कर्मों का अभाव, अनन्त चतुष्टय सहित होना ।
    सिद्ध का लक्षण अनन्तज्ञानादि अनन्त गुण ।
    आचार्य का लक्षण पञ्चाचार का पालन ।
    द्रव्य का लक्षण सत् एवं गुण पर्यायों का समूह ।
    कर्म का लक्षण आत्मा के असली स्वभाव को प्रकट नहीं होने देना ।

    जैसे - नमक, मिर्च, मसाला मिले हुए हैं, नमक मसाले से जुदा पहचानने वाला हेतु तीखापन मिर्च का लक्षण है।


    3. लक्षण के कितने भेद हैं?
    लक्षण के दो भेद हैं- आत्मभूत लक्षण और अनात्मभूत लक्षण।


    आत्मभूत लक्षण - जो वस्तु के स्वरूप में मिला हो उसे आत्मभूत लक्षण कहते हैं ।जैसे- अग्नि की उष्णता।(न्या.दी., 1/4 )
    और भी उदाहरण हैं । जैसे-

    आत्मा का लक्षण देखना, जानना ।
    नमक का लक्षण खारापना।
    गुड़ का लक्षण मीठापना।
    नीम का लक्षण कड़वापना।
    मिर्च का लक्षण तीखापना ।

    अग्नि में उष्णपना, आत्मा में देखना- जानना, नमक में खारापना, गुड़ में मीठापना, नीम में कड़वापना ये सब उनमें मिले हुए हैं। अग्नि को उष्णपना से, आत्मा को देखने-जानने से, नमक को खारापन से, गुड़ को मीठेपन से, नीम को कड़वेपन से और मिर्च को तीखेपन से अलग नहीं कर सकते हैं। अतः यह लक्षण वस्तु के स्वरूप में मिले होने से आत्मभूत लक्षण है।


    अनात्मभूत लक्षण- जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ न हो उससे पृथक् हो उसे अनात्मभूत लक्षण कहते हैं। (न्या. दी.,1/4)जैसे -

    1. पाँच आदमी खड़े थे उनमें एक आदमी के हाथ में छाता था और चार आदमी के हाथों में नहीं। कहा कि उन छाता वाले आदमी को भेज दो तो इस समय चार आदमियों से पृथक् दिखाने के कारण छाता लक्षण बन जाता है। किन्तु यह छाता उस आदमी के स्वरूप में मिले नहीं होने के कारण अनात्मभूत लक्षण कहा जाएगा।
    2. मुनीष का मकान कौन सा है ? ऐसा पूछने पर उत्तर मिला कि जिस मकान पर झण्डा लगा है वह मकान मुनीष का है। तो वह मकान अन्य मकानों से पृथक् हो गया क्योंकि अन्य दूसरे मकान पर झण्डा नहीं लगा था । अत: यह लक्षण भी मकान के स्वरूप में नहीं मिले होने से अनात्मभूत लक्षण है ।
    3. पेन वाले पुरुष का लक्षण -पेन ।
    4. मोबाइल वाले पुरुष का लक्षण - मोबाइल ।
    5. घड़ी पहने वाले का लक्षण - घड़ी ।
    6. इसी प्रकार मनुष्य पर्याय में भी जो नाम आदि आदमी का लक्षण बन जाते हैं । किन्तु स्थायी लक्षण नहीं होने से अनात्मभूत लक्षण है ।


    4. लक्षणाभास किसे कहते हैं?
    मिथ्या अर्थात् सदोष लक्षण को लक्षणाभास कहते हैं । (न्या. दी., 1/5)
    विशेष- सदोष लक्षण को लक्षणाभास कहते हैं अर्थात् जो लक्षण जैसा दिखता है, किन्तु पदार्थ का निर्दोष यथार्थ लक्षण नहीं है।
    जैसे - प्रमाण सच्चा भी है और झूठा भी है। नय सम्यक् भी है और मिथ्या भी । शिष्य सच्चा भी है और झूठा भी । देव सच्चे भी हैं और झूठे भी । ज्ञान सच्चे भी हैं और मिथ्या भी । इसी प्रकार लक्षण सच्चा भी होता है और झूठा 'भी। जो लक्षण दोष सहित होता है, उसे लक्षणाभास कहते हैं।


    5. लक्षणाभास के कितने भेद हैं ?

    लक्षणाभास के तीन भेद हैं-
    1. अव्याप्ति, 2. अतिव्याप्ति, 3. असम्भव, ( न्या. दी., 1/4 )


    6. लक्ष्य किसे कहते हैं?
    जिसका लक्षण किया जाता है उसको लक्ष्य कहते हैं । जैसे -

    1. पञ्चपरमेष्ठी में आचार्य परमेष्ठी का लक्षण किया जा रहा है तो आचार्य परमेष्ठी लक्ष्य हुए शेष चार परमेष्ठी अलक्ष्य हुए।
    2. यदि बाजार में आपको अनार खरीदना है तो अनार लक्ष्य है शेष फल अलक्ष्य हैं ।
    3. जीव द्रव्य लक्ष्य है तो शेष पाँच द्रव्य अलक्ष्य हैं ।
    4. तीर्थङ्कर ऋषभदेव लक्ष्य है तो शेष 23 तीर्थङ्कर अलक्ष्य हैं ।
    5. दर्शन प्रतिमा लक्ष्य है तो शेष प्रतिमाएँ अलक्ष्य हैं ।
    6. कामदेव बाहुबली लक्ष्य है तो शेष कामदेव अलक्ष्य हैं।


    7. अव्याप्ति लक्षणाभास किसे कहते हैं ?
    लक्ष्य के एक देश में लक्षण के रहने को अव्याप्ति लक्षणाभास कहते हैं । जैसे - गाय का श्याम वर्ण । सभी गाय श्याम वर्ण की नहीं होती है वह कुछ ही गायों का धर्म है। (न्या. दी., 1/5)
    इसी प्रकार-

    1. पशु का लक्षण सींग
    2. आत्मा का लक्षण रागादि
    3. आत्मा का लक्षण केवलज्ञान
    4. आत्म का लक्षण सम्यग्दर्शन
    5. आत्मा का लक्षण भव्यत्व
    6. आत्मा का लक्षण दस प्राण।
       

    पशु का लक्षण सींग नहीं हो सकता क्योंकि सभी पशुओं के सींग नहीं होते हैं । आत्मा का लक्षण रागादि नहीं हो सकता क्योंकि अरिहंत-सिद्ध में रागादि नहीं होते हैं । केवलज्ञान, सम्यग्दर्शन, भव्यत्व दस प्राण आदि कहने पर अव्याप्ति लक्षणाभास (दोष) होता है ।
    चेतना व उपयोग जीव का निर्दोष लक्षण है जो सभी जीवों में पाया जाता है। जीव के 53 भावों में से जीवत्व को छोड़कर 52 भावों को जीव के लक्षण बनाने में अव्याप्ति लक्षणाभास होता है ।


    8. अतिव्याप्ति लक्षणाभास किसे कहते हैं?
    लक्ष्य और अलक्ष्य में लक्षण के रहने को अतिव्याप्ति लक्षणाभास कहते हैं ।
    जैसे-

    1. गाय का ही पशुत्व लक्षण करना। यह पशुत्व गाय के सिवाय अश्व आदि पशुओं में भी पाया जाता है। ( न्या. दी., 1/5)इसी प्रकार शक्कर का लक्षण - सफेद कहने पर यह लक्षण नमक, चूना, चावल, मैदा में भी आता है ।
    2. सभा में बीस आदमी बैठे हैं और किसी ने कहा घड़ी वाले सज्जन को बुला दो । सभा में दो आदमी घड़ी पहने हुए थे, तो आप किसे बुलायेंगे । अत: यह लक्षण अतिव्याप्ति लक्षणाभास कहलाता है ।
    3. जीव का लक्षण -सत्
    4. जीव का लक्षण - अमूर्तिक
    5. जीव का लक्षण - उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य
    6. जीव का लक्षण - गुण, पर्याय
    7. जीव का लक्षण - स्पर्श रहित
    8. जीव का लक्षण - रस रहित
    9. जीव का लक्षण- गन्ध रहित
    10. जीव का लक्षण - रूप रहित
    11. जीव का लक्षण - वस्तुत्व
    12. जीव का लक्षण - प्रमेयत्व

    उपर्युक्त लक्षणों को जीव का लक्षण मानने पर अतिव्याप्ति लक्षणाभास (दोष) आता है क्योंकि यह लक्षण जीव द्रव्य को छोड़कर अन्य द्रव्यों में भी पाए जाते हैं।


    9. अलक्ष्य किसे कहते हैं?
    लक्ष्य के सिवाय दूसरे पदार्थों को अलक्ष्य कहते हैं ।

    1. जैसे- बाजार फल खरीदने गए तो फल खरीदना तो लक्ष्य है - शेष सब्जी, किराना, कपड़ा आदि खरीदना अलक्ष्य हैं ।
    2. जैसे - आचार्य परमेष्ठी का लक्षण कर रहे है तो आचार्य परमेष्ठी को छोड़कर शेष सभी परमेष्ठी अलक्ष्य हैं ।

     

    10. असम्भव लक्षणाभास (दोष) किसे कहते हैं?
    लक्ष्य में लक्षण की असम्भवता को असम्भव लक्षणाभास कहते हैं । जैसे- मनुष्य का लक्षण सींग | इसी प्रकार और भी उदाहरण हैं-

    1. जीव का लक्षण - हल्का - भारी, नरम - कठोर, गोरा - काला, मीठा-खारा ।
    2. सिद्धों का लक्षण - कर्म सहित ।
    3. नारकी का लक्षण - सुखी ।
    4. पुद्गल का लक्षण अमूर्तिक
    5. काल द्रव्य का लक्षण-बहुप्रदेशी ।
    6. अग्नि का लक्षण - ठण्डा ।
    7. पानी का लक्षण - उष्ण ।
    8. सिद्धों का लक्षण - दुःखी।
    9. गधे का लक्षण - सींग ।
    10. गुड़ का लक्षण - खट्टा |

     

    11. लक्षण, लक्ष्य, अलक्ष्य एवं लक्षणाभास का सामूहिक उदाहरण दीजिए?

    1. लक्षण - घातिया कर्म से रहित हैं व अनन्त चतुष्टय से सहित हैं उन्हें अरिहन्त परमेष्ठी कहते हैं ।
    2. लक्ष्य- अरिहन्त परमेष्ठी ।
    3. अलक्ष्य- अन्य परमेष्ठी ।
    4. अव्याप्ति लक्षणाभास - जो केवलज्ञान सहित हैं, उन्हें अरिहन्त परमेष्ठी कहते हैं ।
    5. अतिव्याप्ति लक्षणाभास - जो इष्ट होते उन्हें अरिहन्त परमेष्ठी कहते हैं।
    6. असम्भव लक्षणाभास - जो घातिया कर्म सहित होते हैं वे अरिहन्त परमेष्ठी हैं।
    7. आत्मभूत लक्षण-जो अनन्त चतुष्टय सहित हैं ।
    8. अनात्मभूत लक्षण - जो घातिया कर्म से रहित होते हैं ।


    12. प्रमाण किसे कहते हैं?
    सच्चे ज्ञान को प्रमाण कहते हैं ।
    जैसे - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान एवं केवलज्ञान ये पाँचों ज्ञान प्रमाण हैं। पदार्थ का सम्पूर्ण परिज्ञान जिससे होता है, वह प्रमाण है । प्रमाण से सम्पूर्ण वस्तु को जान सकते हैं किन्तु उस पदार्थ के एक-एक धर्म का कथन नय से करते हैं। जैसे - यह गाय है । यह गाय विषयक समग्र ज्ञान प्रदायक होने से प्रमाण है ।


    13. प्रमाण के कितने भेद हैं?
    प्रमाण के दो भेद हैं- 1. प्रत्यक्ष प्रमाण, 2. परोक्ष प्रमाण ।


    14. प्रत्यक्ष प्रमाण किसे कहते हैं?
    इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा मात्र से पदार्थों को स्पष्ट जानने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है ।

    जैसे - अपना चित्र दर्पण में जैसा का तैसा प्रतिबिम्बित होता है उसी प्रकार ज्ञान रूपी दर्पण में पदार्थ का जैसा का तैसा स्पष्ट दिखना।


    15. प्रत्यक्ष प्रमाण के कितने भेद हैं?
    प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद हैं-

    1. सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष
    2. पारमार्थिक प्रत्यक्ष 


    16. सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष किसे कहते हैं?
    जो इन्द्रिय व मन की सहायता से पदार्थ को एक देश स्पष्ट जानता है। सांव्यावहारिक का अर्थ है व्यवहार सापेक्ष अर्थात् जो व्यवहार से लोगों को प्रत्यक्ष दिखाई दे । यहाँ इन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है । (प.मु., 2/5)
    जैसे - मैंने आँखों से प्रत्यक्ष देखा, कानों से प्रत्यक्ष सुना, जिह्वा से प्रत्यक्ष चखा । यह स्पष्ट इन्द्रिय प्रत्यक्ष है, परमार्थ से प्रत्यक्ष नहीं है क्योंकि उसमें आत्मा व ज्ञेय पदार्थ के बीच में आँख, कान, जिह्वा (जीभ) का व्यवधान है।


    17. पारमार्थिक प्रत्यक्ष किसे कहते हैं ?
    जो इन्द्रिय व मन की सहायता के बिना पदार्थों को स्पष्ट जानता है, वह पारमार्थिक प्रत्यक्ष है । क्योंकि वह ज्ञान किसी के अवलम्बन से न होकर सीधा आत्मा से होता है।


    18. पारमार्थिक प्रत्यक्ष के कितने भेद हैं?
    पारमार्थिक प्रत्यक्षके दो भेद हैं-

    1. विकलपारमार्थिक प्रत्यक्ष
    2. सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष 

     

    19. विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष किसे कहते हैं?
    जो रूपी पदार्थों को बिना किसी की सहायता से स्पष्ट जानता है किन्तु मात्र रूपी पदार्थों को जानने से विकल है अतः विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष है।


    20. विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष के कितने भेद हैं?

    विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष के दो भेद हैं-

    1. अवधिज्ञान,
    2. मन:पर्ययज्ञान 

     

    21. अवधिज्ञान किसे कहते हैं ?
    द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सीमा लिए हुए रूपी पदार्थों का इन्द्रियादिक की सहायता के बिना जो प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, वह अवधिज्ञान है।


    22. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का स्वरूप क्या है ?

    • द्रव्य जानने की सीमा - पदार्थ कितना बड़ा, कितना छोटा आदि ।
    • क्षेत्र जानने की सीमा - पदार्थ कितनी दूर, कितना पास का जानता है। जैसे - 1 किलोमीटर, 100 किलोमीटर, 1000 किलोमीटर आदि ।
    • काल जानने की सीमा- कितने समय आगे व पीछे की जानता है । जैसे - 1 वर्ष, 10 वर्ष, 100 वर्ष, 1 भव अनेक भव, आगे पीछे की जानना ।
    • भाव जानने की सीमा - भाव का अर्थ अवस्था विशेष व स्वभाव विशेष से है । जिस जीव के अवधिज्ञानावरण कर्म का जितना क्षयोपशम होता है, उसको उतना कम व अधिक अवधिज्ञान होता है ।

     

    23. अवधिज्ञान के कितने भेद हैं ?
    अवधिज्ञान के दो भेद हैं-

    1. 1भवप्रत्यय अवधिज्ञान
    2. गुणप्रत्यय अवधिज्ञान 


    24. भवप्रत्यय अवधिज्ञान किसे कहते हैं ?
    जिस अवधिज्ञान के होने में भव निमित्त है वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है । (स.सि., 213 ) जैसे- भैंस, मछली आदि का जल में तैरना, पक्षियों का आकाश में उड़ना भवप्रत्यय है।


    25. गुणप्रत्यय अवधिज्ञान किसे कहते हैं?
    सम्यक्त्व से सहित अणुव्रत और महाव्रत गुण जिस अवधिज्ञान के कारण हैं वह गुणप्रत्यय है । (ध.पु., 13/291)


    26. चारों गतियों में अवधिज्ञान के स्वामी कितने जीव हैं?

    1. सामान्यत: अवधिज्ञान चारों गतियों में सम्भव किन्तु मात्र संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों को होता है ।
    2. भवप्रत्यय अवधिज्ञान मात्र देव, नारकियों व तीर्थङ्कर के होता है ।
    3. गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मात्र मनुष्य व तिर्यञ्चों में ही होता है।
    4. भवप्रत्यय अवधिज्ञान सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि दोनों को होता है ।
    5. उत्कृष्ट देशावधि मनुष्य के ही होता है। और उत्कृष्ट संयतों के ही होता है ।
    6. जघन्य देशावधि मनुष्य व तिर्यञ्चों दोनों में सम्भव है पर देव व नारकियों में नहीं । जघन्य ज्ञान असंयत सम्यग्दृष्टि आदि को भी सम्भव है।
    7. परमावधि व सर्वावधि ज्ञान चरमशरीरी संयतों में ही होता है ।


    26. क्या अपर्याप्तवस्था में अवधिज्ञान सम्भव हैं ?
    चारों गतियों के चतुर्थ गुणस्थान के अपर्याप्त अवस्था में अवधिज्ञान सम्भव है किन्तु अपर्याप्त अवस्था में अवधिज्ञान उत्पन्न नहीं होता है ।

    27. अवधिज्ञान की उत्पत्ति चिह्न विशेष से होती है, या सर्वाङ्ग से?
    नारकी व देवों का अवधिज्ञान सर्वाङ्ग से उत्पन्न होता है । मनुष्य एवं तिर्यञ्चों को शरीरवर्त्ती शंख, कमल, स्वस्तिक, चक्र आदि चिह्नों से उत्पन्न होता है ।


    28. नारकी तथा देव अवधिज्ञान से अपने आगामी भव को जान सकते हैं या नहीं?
    नारकी आगामी भव को नहीं जान सकते क्योंकि नारकी अवधिज्ञान से नीचे अधिकांश 4 कोस, तिर्यक् में असंख्यात कोड़ाकोड़ी योजन तथा ऊपर अपने बिल के ऊपरी भाग तक जानते हैं । अत: वह अपना आगामी भव नहीं जान सकते क्योंकि उन्हें तो मनुष्य या तिर्यञ्च ही होना है । देवों का अवधिज्ञान का क्षेत्र अधिक है अत: अपने आगामी भव को जान सकते हैं ।


    29. अवधिज्ञानी मुनि महाराज तैजस कार्मण सहित विग्रह गति में गमन करने वाले जीव को देख सकते हैं या नहीं ?
    तैजस-कार्मण शरीर मूर्तिक हैं और उनसे वह आत्मा भी मूर्तिक हैं अतः अवधिज्ञानी के द्वारा देखा जाता है।


    30. अवधिज्ञानी मुनि महाराज आहारक शरीर को देख सकते हैं या नहीं ?
    आहारक शरीर मूर्तिक है अत: अवधिज्ञानी के द्वारा देखा जाता है।


    31. पञ्चम काल में क्या अवधिज्ञानी मुनि हो सकते हैं ?
    पञ्चम काल के अन्त तक अवधिज्ञानी मुनि होंगे एक हजार वर्ष के पश्चात् पृथक्-पृथक् एक-एक कल्की तथा पाँच सौ वर्ष पश्चात् एक-एक उपकल्की होते हैं, प्रत्येक कल्की के प्रति एक-एक दुःषमाकालवर्ती मुनि को अवधिज्ञान होता है । (ति.प., 4/ 1524,1528 )

    विशेष- इसके अलावा शेष पञ्चम काल में अवधिज्ञानी मुनि नहीं होते हैं ।


    32. मन:पर्ययज्ञान किसे कहते हैं?
    इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही दूसरे के मन में स्थित रूपी पदार्थों का द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव की सीमा सहित जो प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वह मन:पर्ययज्ञान है । मन:पर्ययज्ञान का क्षयोपशम छठवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक रहता है । किन्तु गुरूपदेशानुसार इसका प्रयोग छठवें एवं सातवें गुणस्थान में होता है।


    33. मन:पर्यय ज्ञान के कितने भेद हैं?
    मन:पर्ययज्ञान के दो भेद हैं - ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान तथा विपुल मति मन:पर्ययज्ञान ।

    1. ऋजुमति मनः पर्ययज्ञान - जो मन, वचन, काय की सरलता से चिन्तित पर के मन में स्थित रूपी पदार्थों को जानता है ।
    2. विपुलमति मन:पर्ययज्ञान- जो सरल तथा कुटिल रूप से चिन्तित पर के मन में स्थित रूपी पदार्थों को जानता है जैसे किसी के यहाँ छापा (रेड) पड़ा उसे आपकी तिजोरी में रखा सोना मिल जाता है यह ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान से पकड़ में आया किन्तु जो दीवार के अन्दर छिपाकर रखा है वह मशीन से अर्थात् विपुलमति मन:पर्ययज्ञान से पकड़ में आता हैं ।


    34. मन:पर्ययज्ञान का विषय मात्र मन के विचारों को जान लेना है या मन में विचार किए गए पदार्थ को प्रत्यक्ष जानकर उन पदार्थों के सम्बन्ध में कुछ विशेष जानना भी है ?
    मन:पर्ययज्ञान का विषय मात्र मन के विचार नहीं है किन्तु पदार्थ भी है जिसका मन में विचार किया जा रहा है।


    35. क्या पञ्चम काल में मन:पर्ययज्ञान हो सकता है ?
    भरत चक्रवर्ती के स्वप्नों का फल बताते हुए भगवान् ने कहा कि मण्डल से युक्त चन्द्रमा देखने से यह जान पड़ता कि पञ्चम काल में मन:पर्ययज्ञान का अभाव।


    36. क्या अवधिज्ञान व मनः पर्ययज्ञान के बिना मोक्ष प्राप्त हो सकता है ?
    केवलज्ञान की उत्पत्ति पूर्ववर्ती पूर्ण द्वादशाङ्ग श्रुतज्ञान रूप कारण से होती है । अतः केवलज्ञान के लिए मतिश्रुतज्ञान निश्चित कारण है । अवधिज्ञान व मन:पर्ययज्ञान के बिना भी मोक्ष हो सकता है । मोक्षमार्ग में अवधिज्ञान व मन:पर्ययज्ञान कोई आवश्यक नहीं हैं।


    37. सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष किसे कहते है ?
    केवलज्ञान को सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं, स्वाभाविक पूर्ण ज्ञान है। इसलिए सकल पारमार्थिक कहा और इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना सीधा आत्मा से स्पष्ट जानता है इसलिए प्रत्यक्ष कहा।

     

    38. केवलज्ञान किसे कहते हैं ?
    जो त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों की अनन्त पर्यायों को एक साथ स्पष्ट रूप से जानता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं ।(तत्त्वार्थवृत्ति सुखबोध टीका, 1/29)
    विशेष- लोक में ऐसा कोई द्रव्य नहीं है और न ऐसी पर्याय है जो केवलज्ञान का विषय न हो । लोक में छ: द्रव्य हैं। इन छहों द्रव्यों की पृथक् पृथक् तीनों कालों में होने वाली अनन्तानन्त पर्यायें हैं, उन्हें केवलज्ञान एक साथ जानता है । अरिहन्तों व सिद्धों में यह सदा व्यक्त रूप से चमकता रहता है, संसारी जीवों में शक्ति रूप से रहता है, किन्तु अभी उनके ज्ञानावरण कर्म का पर्दा पड़ा है। जब शुक्ल ध्यान के बल से सर्व ज्ञानावरण कर्म का क्षय हो जाता है तो वह ज्ञान तेरहवें गुणस्थान में प्रगट होता है।

     

    39. परोक्ष प्रमाण किसे कहते हैं?
    इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाले पदार्थों के ज्ञान को परोक्ष प्रमाण कहते हैं ।


    40. परोक्ष प्रमाण के कितने भेद हैं?
    परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद हैं- स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क अनुमान एवं आगम (प.मु., 3/2) इनमें स्मृति प्रत्यभिज्ञान, तर्क अनुमान मतिज्ञान के भेद और आगम श्रुतज्ञान का भेद है।
    1. स्मृति - पूर्व में जानी हुई वस्तु का स्मरण स्मृति है । जैसे - मैंने जिनबिम्बों के दर्शन किये और सामायिक में उन जिनबिम्बों के दर्शन का ध्यान करना स्मृति है, जाति स्मरण अर्थात् पूर्व भव का स्मरण है भी स्मृतिज्ञान है ।
    2. प्रत्यभिज्ञान- यह वही है जिसे पूर्व में देखा था ऐसे स्मृति और प्रत्यक्ष के जोड़ रूप ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । इसका अपर नाम सञ्ज्ञा भी है।
    जैसे -

    1. यह वही फल है जो कल देखा था।
    2. यह वही तीर्थराज सम्मेदशिखर जी है जिसके दर्शन पिछले वर्ष किए थे ।
    3. यह वही जिनसरस्वती खण्ड-2 है जो कल था ।
    4. यह वही आत्मा है जो कल थी ।

     

    प्रत्यभिज्ञान के भेद-
    1. एकत्व प्रत्यभिज्ञान - स्मृति और प्रत्यक्ष के विषयभूत पदार्थ में एकता दिखाते हुए जोड़ रूप ज्ञान को एकत्व प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । जैसे -

    1. यह वही दुकान है जिसे कल देखा था ।
    2. यह वही मुनि महाराज है जो कल अतिशय क्षेत्र भौरासा (जिला विदिशा) में थे ।
    3. यह वही पण्डित जी हैं जो कल विधान करा रहे थे


    2. सादृश्य प्रत्यभिज्ञान - स्मृति व प्रत्यक्ष के विषय भूत पदार्थों में सादृश्य दिखाते हुए जोड़ रूप ज्ञान को सादृश्य प्रत्यभिज्ञान कहते हैं ।जैसे -

    1. मुनिश्री समयसागरजी गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी के सदृश हैं ।
    2. आपका चेहरा मेरे गुरुभाई के चेहरे के सदृश है ।
    3. सरोजनी नायडू की आवाज कोयल के सदृश थी ।
    4. गोम्मटेश बाहुबली जी में मैंने एक व्यक्ति को देखा था वह बिलकुल आप जैसा दिखता था।
    5. आपका चश्मा वैसा ही है जैसा कि मेरा ।

     

    विशेष - प्रत्यभिज्ञान के अनेक भेद हैं-


    41. तर्क किसे कहते हैं ?
    व्याप्ति के ज्ञान को तर्क कहते हैं ।


    42. व्याप्ति किसे कहते हैं?
    अविनाभाव सम्बन्ध को व्याप्ति कहते हैं।


    43. अविनाभाव सम्बन्ध किसे कहते हैं?
    जहाँ-जहाँ साधन (हेतु) होता है, वहाँ-वहाँ साध्य का होना और जहाँ-जहाँ साध्य नहीं होता वहाँ- वहाँ साधन के भी नहीं होने को अविनाभाव सम्बन्ध कहते हैं । जैसे -

    1. जहाँ-जहाँ धूम है, वहाँ-वहाँ अग्नि है और जहाँ-जहाँ अग्नि नहीं है वहाँ-वहाँ धूम भी नहीं है।
    2. जहाँ-जहाँ दर्शनज्ञान हैं, वहाँ-वहाँ आत्मा है और जहाँ-जहाँ आत्मा नहीं है, वहाँ-वहाँ दर्शनज्ञान भी नहीं हैं।
    3. जहाँ-जहाँ स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण हैं, वहाँ-वहाँ पुद्गल और जहाँ-जहाँ पुद्गल नहीं, वहाँ-वहाँ स्पर्श, रस, गन्ध वर्ण भी नहीं हैं।


    44. व्याप्ति कितने प्रकार की है ?
    व्याप्ति दो प्रकार की है - समव्याप्ति और विषम व्याप्ति ।
    1. समव्याप्ति- दोनों तरफ साधन की साध्य के साथ व्याप्ति को समव्याप्ति कहते हैं । अर्थात् साधन के होने पर साध्य का अवश्य होना और साधन के न होने पर साध्य का भी न होना ।जैसे -

    1. जहाँ-जहाँ रत्नत्रय है वहाँ मोक्षमार्ग होता है, और जहाँ-जहाँ रत्नत्रय नहीं होता, वहाँ-वहाँ मोक्षमार्ग नहीं होता है।
    2. जहाँ-जहाँ हवा होती है वहाँ-वहाँ वृक्षों के पत्तों का हिलना अवश्य होता है और जहाँ-जहाँ हवा नहीं होती, वहाँ-वहाँ वृक्षों के पत्तों का हिलना भी नहीं होता है ।
    3. जहाँ-जहाँ वर्तना गुण है, वहाँ-वहाँ काल द्रव्य है, और जहाँ-जहाँ वर्तना गुण नहीं वहाँ-वहाँ काल द्रव्य भी नहीं है।


    2. विषम व्याप्ति - एक तरफा व्याप्ति को विषम व्याप्ति कहते हैं अर्थात् साधन के होने पर साध्य का अवश्य होना किन्तु साधन के न होने पर साध्य होवे या न भी होवे । जैसे-

    1. धुएँ के होने पर अग्नि अवश्य होती, किन्तु धुआँ के न होने पर भी अग्नि होवे या न होवे ।
    2. प्रधानमन्त्री होने पर वह सांसद अवश्य है, किन्तु प्रधानमन्त्री के न होने पर वह सांसद हो भी सकता नहीं भी हो सकता।
    3. सौधर्म इन्द्र के होने पर सम्यग्दर्शन अवश्य है किन्तु सौधर्म इन्द्र के न होने पर सम्यग्दर्शन हो भी सकता नहीं भी हो सकता।
    4. आचार्य परमेष्ठी के होने पर वे साधु परमेष्ठी अवश्य हैं किन्तु आचार्य परमेष्ठी के न होने पर साधु परमेष्ठी हो भी सकते और नहीं भी हो सकते।


    45. साधन किसे कहते हैं ?
    जो साध्य के बिना नहीं होता। जैसे - अग्नि का हेतु धूम |जैसे -

    1. दिगम्बरत्व के बिना रत्नत्रय नहीं ।
    2. पुद्गल के बिना स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण नहीं ।
    3. आँवला के बिना कषायलापना नहीं होता ।
    4. नमक के बिना खारापन नहीं होता है ।
    5. शरीर के बिना श्वासोच्छ्वास नहीं होता है ।

     

    46. साध्य किसे कहते हैं ?
    इष्ट, अबाधित, असिद्ध को साध्य कहते हैं।

     

    47. इष्ट किसे कहते हैं ?
    वादी जिसको सिद्ध करना चाहे उसे इष्ट कहते हैं।


    48. अबाधित किसे कहते हैं ?
    जो दूसरे प्रमाण से बाधित नहीं होता ।
    जैसे- अग्नि का ठण्डापन प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित है इस कारण यह ठण्डापन साध्य नहीं हो सकता ।सृष्टि को ईश्वर ने बनाया अनुमान बाधित है। पाप सुख का कारण है आगम बाधित है।


    49. असिद्ध किसे कहते हैं?
    जो दूसरे प्रमाण से सिद्ध नहीं होता उसे असिद्ध कहते हैं अथवा जिसका निश्चय नहीं होता उसे असिद्ध कहते हैं ।जैसे -

    1. मोक्ष इष्ट भी है, अबाधित भी है और असिद्ध भी है । मोक्ष हम प्राप्त करना चाहते हैं इसलिए इष्ट है। मोक्ष किसी प्रमाण से बाधित भी नहीं है क्योंकि मोक्ष है । हमें प्राप्त नहीं हुआ इसलिए असिद्ध भी है ।
    2. श्री श्रवणबेलगोला जी हम जाना चाहते हैं इसलिए श्री श्रवणबेलगोला जी इष्ट है श्री श्रवणबेलगोला जी है भी इसलिए अबाधित है। श्री श्रवणबेलगोला जी के अभी जिसके दर्शन नहीं हुए इसलिए असिद्ध भी है।

     

    50. अनुमान किसे कहते हैं ?
    साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं ।
    जैसे -

    1. धूम से अग्नि का ज्ञान होना ।
    2. नाड़ी चल रही है तो जीवित होने का ज्ञान होता है ।
    3. यदि रागद्वेष हो रहे हैं तो मोहनीय कर्म के सद्भाव का ज्ञान होता है ।
    4. शरीर में आत्मा रुका हुआ है, इसलिए आयु कर्म का ज्ञान होता है। (प.जी.)
    5. बच्चा रो रहा है तब भूख या वेदना का ज्ञान होता है ।
    6. मुनिराज के आहार के बाद श्रावक का चेहरा उदास है तब अन्तराय का ज्ञान होता है ।
    7. रेलवे स्टेशन की पटरी पर कुछ आगे संकेत (सिग्नल) झुके हुए हैं तो उस पटरी पर रेल आने वाली है। उसका ज्ञान होता है।
    8. संसद भवन का राष्ट्रीय ध्वज झुका हुआ है तो यह राष्ट्रीय शोक का प्रतीक है अर्थात् देश के प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति का अवसान हुआ है।


    51. हेत्वाभास किसे कहते हैं?
    सदोष हेतु को हेत्वाभास कहते हैं।


    52. हेत्वाभास के कितने भेद हैं?
    हेत्वाभास के चार भेद हैं- 1. असिद्ध हेत्वाभास, 2. विरुद्ध हेत्वाभास, 3. अनैकान्तिक हेत्वाभास, 4. अकिञ्चित्कर हेत्वाभास।(प.मु., 6/21)
    1. असिद्ध हेत्वाभास - जिस हेतु के अभाव का निश्चय होता है अथवा जिसके सद्भाव में सन्देह होता है अर्थात् साध्य की सिद्धि के लिए जो हेतु दिया उस हेतु से साध्य की सिद्धि नहीं होती।
    जैसे - नीम कड़वी है क्योंकि घ्राण इन्द्रिय का विषय है । किन्तु कड़वापन तो रसना इन्द्रिय का विषय है । घ्राण इन्द्रिय का नहीं ।
    2. विरुद्ध हेत्वाभास - साध्य से विरुद्ध पदार्थ के साथ जिसकी व्याप्ति होती है अर्थात् जो साध्य को तो सिद्ध न करे और विपरीत को सिद्ध कर दे वह विरुद्ध हेत्वाभास है ।
    जैसे -

    1. क्रोध एक विभाव है क्योंकि जो शान्त हो उसे क्रोधी कहते हैं । शान्त हेतु से तो क्षमावान की सिद्धि होती है, अत: यह हेतु विरुद्ध हेत्वाभास है। (प.जी.)
    2. अधर्मास्तिकाय अमूर्तिक है क्योंकि वह जीव व पुद्गल को चलने में सहायक है ।

    इस हेतु से धर्मास्तिकाय की सिद्धि होती है, अधर्मास्तिकाय की नहीं ।
    3. अनैकान्तिक हेत्वाभास- जो हेतु पक्ष, सपक्ष, विपक्ष इन तीनों में व्यापता ( रहता ) है । उसको अनैकान्तिक हेत्वाभास कहते है ।
    जैसे- इस कोठे में धूम है क्योंकि इसमें अग्नि है, यहाँ अग्नि हेतु पक्ष, सपक्ष व विपक्ष तीनों में व्याप्त होने से अनैकान्तिक हेत्वाभास है । अर्थात् जो हेतु साध्य की भी सिद्धि करे और साध्य से विरुद्ध पदार्थ की भी सिद्धि करे तथा संशय उत्पन्न करें, उसे अनैकान्तिक हेत्वाभास कहते हैं ।

    विशेष- अनैकान्तिक हेत्वाभास को व्यभिचारी ( सदोष ) भी कहते है जैसे- कोई विवाहित पुरुष अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य से भी सम्बन्ध रखता है तो उसे व्यभिचारी कहते हैं। ठीक इसी प्रकार से जो हेतु साध्य के साथ भी सम्बन्ध रखता है एवं असाध्य के साथ भी सम्बन्ध रखता है उसे व्यभिचारी हेतु कहा है।


    जैसे -इस कोठे में धूम है क्योंकि अग्नि है यहाँ धूम साध्य है और अग्नि हेतु है अतः इस अग्नि हेतु से एक जगह धूम की सिद्धि हो रही है, एक जगह धूम की सिद्धि में संशय है । और एक जगह धूम की सिद्धि नहीं हो रही अतः यह अग्नि हेतु पक्ष - कोठा, सपक्ष - रसोईघर, विपक्ष अग्नि से तपा लोहे का गोला।


    अत: गीले ईन्धन युक्त रसोई घर में धूम की सिद्धि हो रही है। कोठे में धुएँ का संशय होता और तपे हुए गोले में धुएँ का अभाव है। 


    53. पक्ष किसे कहते हैं ?
    जहाँ साध्य के रहने का संशय होता है । जैसे- इस कोठे में धूम है क्योंकि अग्नि है यहाँ साध्य धूम के रहने में संशय है, क्योंकि निर्धूम अग्नि भी होती है।


    54. सपक्ष किसे कहते हैं ?
    जहाँ साध्य के सद्भाव का निश्चय होता है ।जैसे -

    1. जिस रसोईघर में गीला ईन्धन हो । (प.जी.)
    2. लोक में धर्मादि द्रव्य हैं।


    55. विपक्ष किसे कहते हैं?
    जहाँ-जहाँ साध्य के अभाव का निश्चय हो । जैसे - अग्नि से तपा हुआ लोहा का गोला । यहाँ साध्य धूम का अभाव हैI


    56. अकिञ्चत्कर हेत्वाभास किसे कहते हैं?
    जो हेतु कुछ भी कार्य करने में समर्थ नहीं होता अर्थात् जो साध्य की सिद्धि के लिए पङ्गु हो, कुछ भी काम न हो वह अकिञ्चत्कर हेत्वाभास है ।
    अकिञ्चत्कर हेत्वाभास के दो भेद हैं- सिद्ध साध्य एवं बाधित ।
    सिद्ध साध्य हेत्वाभास- जब साध्य स्वयं सिद्ध है, फिर भी उसकी सिद्धि के लिए हेतु देना सिद्ध साध्य अकिञ्चित्कर हेत्वाभास है ।
    जैसे - 1. अग्नि गर्म है क्योंकि स्पर्शन इन्द्रिय से ऐसा ही प्रतीत होता है, अग्नि गर्म है । यह स्वयं सिद्ध है इसके लिए हेतु देना व्यर्थ है।


    बाधित अकिञ्चत्कर हेत्वाभास - जब साध्य प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से बाधित हो, फिर भी उसकी सिद्धि के लिए हेतु देना बाधित किञ्चित्कर हेत्वाभास है। जैसे- नमक मीठा है। क्योंकि वह द्रव्य है ।

     

    57. बाधित हेत्वाभास के कितने भेद हैं?
    बाधित हेत्वाभास के- प्रत्यक्ष बाधित, अनुमान बाधित, स्ववचन बाधित, आगम बाधित अनेक भेद हैं।

     

    • प्रत्यक्ष बाधित - जिस हेतु के साध्य में प्रत्यक्ष से बाधा आती है ।जैसे -
    1. अग्नि ठण्डी है क्योंकि द्रव्य है ।तो यह हेतु प्रत्यक्ष से बाधित है ।
    2. गुड खट्टा है क्योंकि वह द्रव्य है ।तो यह हेतु प्रत्यक्ष से बाधित है ।
    3. करेला मीठा है क्योंकि वह द्रव्य हैं ।तो यह हेतु प्रत्यक्ष से बाधित है ।

     

    • अनुमान बाधित- जिस हेतु के साध्य में अनुमान से बाधा आती है।

    जैसे-लोक को बनाने वाला ईश्वर है क्योंकि कार्य है । यह अनुमान बाधित है । छः द्रव्यों के समूह को लोक कहते हैं। छ: द्रव्य अनादि हैं । उत्पन्न नहीं होते हैं, मात्र अवस्था में परिवर्तन होता है अत: सृष्टि को बनाने वाला ईश्वर नहीं हैं । (प.जी.)

     

    • आगम बाधित- शास्त्र से जिसका साध्य बाधित होता है, वह आगम बाधित है।जैसे -
    1. चक्रवर्ती की पटरानी मरण के बाद नरक ही जाती है । यह आगम बाधित है क्योंकि आगम में कहाँ पटरानी नरक भी जा सकती है ।
    2. दो हजार सागर में 48 मनुष्य के भव मिलते है । यह आगम बाधित है। क्योंकि आगम में कहा है दो हजार सागर में मनुष्य के भव अनेक मिल सकते हैं । किन्तु लगातार 48 से अधिक नहीं ।
    3. पान में 36/56 हरी होती हैं यह आगम बाधित है, क्योंकि ऐसा आगम में लिखा नहीं है । पान में एक ही हरी होती है।

     

    • स्ववचन बाधित- जिसके साध्य में अपने ही वचन से बाधा आती है ।जैसे -
    1. कोई पुरुष कहता है कि मेरी पत्नी विधवा हो गई आप ( पुरुष ) जीवित है और अपकी पत्नी विधवा हो गई यह स्ववचन बाधित है ।
    2. मैं शयन कर रहा हूँ यह स्ववचन बाधित है शयन करते समय बोलने का अर्थ आप जाग रहे हैं।


    58. अनुमान के कितने अङ्ग हैं?
    अनुमान के पाँच अङ्ग है- 1. प्रतिज्ञा, 2. हेतु, 3. उदाहरण, 4. उपनय, 5. निगमन ।


    59. प्रतिज्ञा किसे कहते हैं ?
    धर्म और धर्मी के समुदाय रूप पक्ष के कहने को प्रतिज्ञा कहते हैं ।

    जैसे-यह पर्वत अग्नि वाला है । धर्म= अग्नि, धर्मी = पर्वत ।


    60. हेतु किसे कहते हैं ?
    साधन के वचन को हेतु कहते हैं ।
    जैसे - 1. शरीर में आत्मा है क्योंकि नाड़ी चल रही है (प.जी.)


    61. उदाहरण किसे कहते हैं ?
    व्याप्ति पूर्वक दृष्टान्त के कहने को उदाहरण कहते हैं ।
    जैसे -

    1. जहाँ-जहाँ ज्ञान है वहाँ-वहाँ आत्मा है । जैसे- जीवित शरीर,
    2. जहाँ-जहाँ आत्मा नहीं है, वहाँ-वहाँ ज्ञान भी नहीं है । जैसे- पेन । ( प.जी.)
       

    62. दृष्टान्त किसे कहते हैं ?
    जहाँ साध्य व साधन की मौजूदगी व गैर मौजूदगी दिखाई जाती है ।
    जैसे- जीवित शरीर अथवा पेन ।


    63. दृष्टान्त के कितने भेद हैं ?
    अन्वय दृष्टान्त और व्यतिरेक दृष्टान्त ।

    • अन्वय दृष्टान्त -साधन के सद्भाव में साध्य का सद्भाव जहाँ दिखाया जाता है वह अन्वय दृष्टान्त है । (प.मु.टी., 3/44)जैसे -
    1. अरिहन्त सिद्ध में केवलज्ञान का सद्भाव होने पर परमात्मा का सद्भाव दिखाना (प.जी.)
    2. रसोईघर में घूम का सद्भाव होने पर अग्नि का सद्भाव दिखाना। 


    व्यतिरेक दृष्टान्त- जहाँ पर साध्य के अभाव में साधन का अभाव कहा जावे वह व्यतिरेक दृष्टान्त है । (प.मु.,3/45)जैसे -

    1. छद्मस्थ में केवलज्ञान के नहीं होने पर परमात्मपना भी नहीं पाया जाता । (प.जी.)
    2. तालाब में अग्नि के न होने पर धूम भी नहीं होता।


    64. अन्वय व व्यतिरेक किसे कहते हैं?
    अन्वय-जहाँ अस्ति रूप से कथन किया जाता है अथवा जहाँ इसके होने पर इसका होना आदि रूप से कथन किया जाता है ।
    जैसे- जहाँ-जहाँ कर्ण इन्द्रिय होती है, वहाँ-वहाँ चक्षु इन्द्रिय होती है ।
    व्यतिरेक- जहाँ निषेध रूप से कथन किया जाता है उसे व्यतिरेक कहते हैं ।


    जैसे -

    1. जहाँ-जहाँ धारा (करेन्ट) नहीं, वहाँ-वहाँ बिजली का प्रकाश भी नहीं ।
    2. जहाँ-जहाँ नमक नहीं वहाँ-वहाँ खारापन भी नहीं है । जैसे - नीम । (प.जी.)

     

    65. उपनय किसे कहते हैं ?
    पक्ष और साधन के दृष्टान्त की सदृश्ता दिखाने को उपनय कहते हैं ।
    जैसे - 1. यह पर्वत भी वैसा ही धूमवान है ।


    विशेष- इस पर्वत में अग्नि है क्योंकि धूम है। फिर कोई एक दृष्टान्त देकर कहा जाता है कि "उसी तरह इसमें धूम है" अथवा " उसी तरह यह धूम वाला है " यहाँ पहले धूम है कहा था फिर दुबारा कहा कि "इसमें धूम है " इसलिए कहा जाता है कि पक्ष में साधन (हेतु) का दुहराना उपनय है।


    66. निगमन किसे कहते हैं ?
    नतीजा निकालकर प्रतिज्ञा के दुहराने को निगमन कहते हैं ।
    जैसे- इसलिए यह पर्वत भी अग्निवान है ।
    विशेष- पक्ष को ही प्रतिज्ञा कहते हैं ।


    67. प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन का सामूहिक उदाहरण दीजिए?

    • प्रतिज्ञा- मैंने गुरुदेव आचार्य श्री विद्यासागर जी से संघ में रहने के लिए निवेदन किया कि मुझे संघ में रहने की स्वीकृति प्रदान करें ।
    • हेतु- क्योंकि संसार में सुख नहीं है मैं मुनि बनकर सुखी होना चाहता हूँ ।उदाहरण- जैसे इतने युवा मुनि बनकर धर्म साधना कर रहे हैं।
    • उपनय- इन्होंने भी आपसे निवेदन किया था अत: इन्हें आपने रहने की स्वीकृति प्रदान की ।
    • निगमन - इसलिए मुझे भी संघ में रहने की स्वीकृति प्रदान करें, जिससे मैं भी मुनि बनकर धर्म साधना कर सुखी हो जाऊँ ।

     

    68. हेतु के कितने भेद हैं?
    हेतु के तीन भेद हैं- 1. केवलान्वयी, 2. केवल व्यतिरेक, 3. अन्वय व्यतिरेक ।
    1. केवलान्वयी - जिस हेतु में सिर्फ अन्वय दृष्टान्त होता है ।जैसे -

    1. जीव अनेकान्त स्वरूपी है क्योंकि सत्स्वरूपी होता है। जो-जो सत्स्वरूपी होता है वह वह अनेकान्त स्वरूपी होता है। जैसे- पुद्गलादिक
    2. जीव चेतन है क्योंकि जानता - देखता है। जो-जो जानता - देखता है। वह वह चेतन है । (प.जी.)

    2. केवल व्यतिरेक- जिसमें सिर्फ व्यतिरेक दृष्टान्त पाया जाता है ।
    जैसे - शरीर में ज्ञान नहीं है अत: आत्मा भी नहीं है, जहाँ-जहाँ ज्ञान नहीं होता वहाँ-वहाँ आत्मा भी नहीं होती जैसे - पुस्तक, पेन आदि । (प.जी.)
    3. अन्वयव्यतिरेक- जिसमें अन्वय दृष्टान्त व व्यतिरेक दृष्टान्त दोनों होते हैं ।
    जैसे- पर्वत में अग्नि है क्योंकि इसमें धूम है, जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँ-वहाँ अग्नि भी होती है जैसे - रसोईघर । जहाँ-जहाँ अग्नि नहीं होती वहाँ-वहाँ धूम भी नहीं होता। जैसे तालाब।


    69. आगम प्रमाण किसे कहते है ?
    आप्त के वचन से उत्पन्न हुए पदार्थ के ज्ञान को आगम प्रमाण कहते हैं ।

     

    70. आप्त किसे कहते हैं?
    वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी को आप्त कहते हैं।

     

    71. प्रमाण का विषय क्या है ?
    सामान्य और विशेष स्वरूप वाला वह पदार्थ प्रमाण का विषय है । (प.मु., 4/1)
    जैसे-

    • सामान्य अथवा धर्मी- आत्मा
    • विशेष अथवा धर्म- दर्शन - ज्ञान
    • सामान्य अथवा धर्मी- नमक
    • विशेष अथवा धर्म- खारापन (प.जी.)

     

    72. सामान्य किसे कहते हैं?
    अनेक द्रव्यों में पाए जाने वाले समान धर्म को सामान्य कहते हैं ।

     

    73. सामान्य के कितने भेद हैं ?
    सामान्य के दो भेद हैं-

    1. तिर्यक् साामान्य अर्थात् गुण ।
    2. ऊर्ध्वता सामान्य अर्थात् पर्याय ।

     

    74. विशेष किसे कहते हैं ?
    वस्तु के किसी एक खास अंश अथवा हिस्से को विशेष कहते हैं ।

     

    75. विशेष के कितने भेद हैं?
    विशेष के दो भेद है- 1. सहभावी विशेष, 2. क्रमभावी विशेष ।

    1. सहभावी विशेष - वस्तु के पूरे हिस्से और उसकी सब अवस्थाओं में रहने वाले विशेष को सहभावी विशेष अथवा गुण कहते हैं ।जैसे - 1. आत्मा में ज्ञान सम्पूर्ण द्रव्य में, सम्पूर्ण प्रदेशों (क्षेत्र) में रहता है, सम्पूर्ण अवस्थाओं में अर्थात् आत्मा निगोद में, मनुष्य व देव पर्याय में या सिद्ध अवस्था में कहीं भी रहे ज्ञान अवश्य ही रहता है ।
    2. क्रमभावी विशेष - क्रम से होने वाले वस्तु के विशेष को क्रमभावी विशेष अथवा पर्याय कहते हैं । क्रमभुवः पर्यायः -जो क्रम से होती है वह पर्याय है ।जैसे - आत्मा में ज्ञान गुण की पहले मतिज्ञान पर्याय होगी फिर श्रुतज्ञान ।

     

    76. पर्याय के कितने भेद है ?
    पर्याय के दो भेद है-

    1. अर्थ पर्याय
    2. व्यञ्जन पर्याय 

    अर्थ पर्याय सूक्ष्म है, केवलज्ञान का विषय है, शब्दों से नहीं कहीं जा सकती और क्षण-क्षण में नाश होती रहती है। किन्तु व्यञ्जन पर्याय स्थूल है, शब्दगोचर है अर्थात् शब्दों द्वारा कहीं जा सकती है और चिरस्थायी है। 
     

    77. अर्थपर्याय के कितने भेद हैं?
    अर्थपर्याय के दो भेद हैं-
    1. स्वभाव अर्थपर्याय, 2 विभाव अर्थ पर्याय ।

    1. स्वभाव अर्थपर्याय- बिना दूसरे के निमित्त से जो अर्थपर्याय होती है उसे स्वभाव अर्थपर्याय कहते हैं । जैसे- जीव के केवलज्ञान आदि ।
    2. विभावअर्थ पर्याय- पर के निमित्त से जो अर्थ पर्याय होती है उसे विभाव अर्थ पर्याय कहते हैं ।जैसे- जीवके राग द्वेषादि।


    78. व्यञ्जन पर्याय के कितने भेद है ?
    व्यञ्जन पर्याय के दो भेद है - 1. स्वभाव व्यञ्जन पर्याय, 2. विभाव व्यञ्जन पर्याय ।
    1. स्वभाव व्यञ्जन पर्याय - किसी दूसरे के निमित्त बिना जो व्यञ्जन पर्याय होती है उसे स्वभाव व्यञ्जन पर्याय कहते हैं । जैसे- जीव की सिद्ध पर्याय ।
    2. विभाव व्यञ्जन पर्याय - दूसरे के निमित्त से जो व्यञ्जन पर्याय होती है। उसे विभाव व्यञ्जन पर्याय कहते हैं । जैसे- जीव की नारकादि पर्याय ।


    79. इन पर्यायों के उदाहरण बताइए?

    • स्वभाव अर्थ पर्याय - जल की शीतल पर्याय ।
    • विभाव अर्थ पर्याय - जल की उष्ण पर्याय - क्योंकि अग्नि के निमित्त से जल उष्ण हुआ ।
    • स्वभाव व्यञ्जन पर्याय- बादल जल की स्वभाव व्यञ्जन पर्याय है। क्योंकि वह किसी के निमित्त से नहीं ।
    • विभाव व्यञ्जन पर्याय - लोटे के माध्यम से जो जल का आकार बना ।


    80. प्रमाणाभास किसे कहते हैं?
    मिथ्याज्ञान को प्रमाणाभास कहते हैं।


    81. प्रमाणाभास के कितने भेद हैं?
    प्रमाणाभास के तीन भेद है - 1. संशय, 2. विपर्यय, 3. अनध्यवसाय ।
    1. संशय - विरुद्ध अनेक कोटि के स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं । जैसे - यह सीप है या चाँदी, मैं जीव हूँ कि शरीर ।
    2. विपर्यय- विपरीत एक कोटि के निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय कहते हैं । जैसे - सीप को चाँदी जानना। शरीर को ही जीव मानना ।
    3. अनध्यवसाय- यह क्या है ऐसे प्रतिभास को अनध्यवसाय कहते हैं । जैसे - मार्ग में चलते हुए व्यक्ति के तृण आदि का ज्ञान।

    उदाहरण- एक सेठजी थे उन्होंने कुत्ते के दो पिल्ले खरीदे। जो कि देखने में सुन्दर थे। जब तीन ठगों ने उनको देखा तो वे सोचने लगे कि ये कुत्ते के पिल्ले कितने सुन्दर है । इन्हें किसी भी तरह सेठजी से ले लेना चाहिए। इसके लिए वे तीनों मिलकर एक योजना बनाते हैं। तीनों आधा-आधा किलोमीटर की दूरी पर खड़े हो जाते हैं और जब सेठजी उधर से निकलते हैं तो पहला ठग कहता है- अरे सेठजी ये बिल्ली के बच्चे कहाँ से लाए? सेठजी इस बात पर ध्यान नहीं देते और विचार करते हैं- पता नहीं क्या कह रहा है । यह अनध्यवसाय की स्थिति है । जब सेठजी आधा किलोमीटर और आगे जाते हैं तब दूसरा ठग उनको मिलता है । वह भी अपनी पूर्व नियोजित योजना के अनुसार कहता है - सेठजी ये बिल्ली के बच्चे कितने सुन्दर हैं । आप इन्हें कहाँ से लाए हैं। सेठजी यह सुनकर संशय में पड़ जाते हैं । कि पहले भी उस व्यक्ति ने टोका था, और अब यह भी वही बात कह रहा है।


    पता नहीं यह बिल्ली के बच्चे हैं या कुत्ते के ? सेठजी यही विचारते हुए जब कुछ ओर आगे बढ़े तीसरा ठग उन्हें मिला । वह भी उसी बात को दोहराता है। तब सेठजीको यह निश्चय हो जाता है कि ये कुत्ते के नहीं, बिल्ली के ही बच्चे हैं यही विपरीत ज्ञान है । (प.जी.)


    इसी प्रकार जब हम सुनते हैं शरीर में आत्मा है किन्तु उस पर कुछ ज्यादा गौर नहीं करते । यह अनध्वसाय है। फिर सुनते है कि शरीर में आत्मा है किन्तु है या नहीं है । इस बात का संशय होना संशय ज्ञान है। और तभी कोई यह कहें कि आत्मा कुछ नहीं होती । उसे किसने देखा । शरीर आत्मा एक ही है। ऐसा निश्चय हो जाना ही विपरीत ज्ञान है।


    82.  निक्षेप किसे कहते हैं?
    संशय, विपर्यय और अध्यवसाय में अव्यस्थित वस्तु को उनसे निकालकर निश्चय में क्षेपण करता है उसे निक्षेप कहते हैं। (ध.पु., 4/2 )


    83. निक्षेप के कितने भेद हैं?
    निक्षेप के चार भेद हैं-1. नाम निक्षेप, 2. स्थापना निक्षेप, 3. द्रव्य निक्षेप, 4. भाव निक्षेप ।
    1. नाम निक्षेप - संज्ञा के अनुसार गुण रहित वस्तु में व्यवहार के लिए अपनी इच्छा से की गई संज्ञा को नाम निक्षेप कहते हैं । जैसे- किसी का नाम महावीर रख दिया । किन्तु उसमें महावीर के गुण नहीं हैं ।
    2. स्थापना निक्षेप - धातु, काष्ठ, पाषाण आदि के चित्र व मूर्ति में या अन्य पदार्थ में 'यह वह है' इस प्रकार स्थापित करने वाले को स्थापना निक्षेप कहते हैं । इसके दो भेद हैं- तदाकार स्थापना और अतदाकार स्थापना।

    • तदाकार स्थापना- जैसे शान्तिनाथ की प्रतिमा में तीर्थङ्कर शान्तिनाथ की स्थापना करना ।
    • अतदाकार स्थापना- जैसे - शतरञ्ज की गोटी में वजीर, बादशाह आदि की स्थापना करना ।

    3. द्रव्य निक्षेप - भूत और भावी अवस्था के कारण व्यक्ति या वस्तु की उस अभिप्राय से पहचान करना द्रव्य निक्षेप है । जैसे- सेवानिवृत जिलाधीश (कलेक्टर) को जिलाधीश कहना तथा बी. एड. करने वाले विद्यार्थी को शिक्षक कहना आदि ।
    4. भाव निक्षेप - वर्तमान पर्याय युक्त वस्तु को भाव निक्षेप कहते हैं । जैसे- प्राचार्य को प्राचार्य कहना । तीर्थङ्कर प्रकृति के उदय से तीर्थङ्कर कहना आदि।


    84. चारों निक्षेप के उदाहरण बताइए?
    अग्नि चार प्रकार की-

    • नाम निक्षेप-अग्निकुमार नामक व्यक्ति ।
    • स्थापना निक्षेप - अग्नि का चित्र ।
    • द्रव्य निक्षेप - ईन्धन ।
    • भाव निक्षेप- जलती हुई अग्नि । (प.जी.)

    मुनि चार प्रकार के-

    • नाम निक्षेप - मुनि नाम का बालक
    • स्थापना निक्षेप - मुनि की प्रतिमा ।
    • द्रव्यनिक्षेप - मुनि नामक बालक पर मुनि दीक्षा के संस्कार देते हुये आचार्य परमेष्ठी ।
    • भाव निक्षेप - दिगम्बर मुनि गुणस्थान छठवें - सातवें से युक्त ।

     

    85. नाम निक्षेप और स्थापना निक्षेप में क्या अन्तर है ?
    नाम निक्षेप में पूजा, सम्मान आदि नहीं होता किन्तु स्थापना निक्षेप में पूजा सम्मान आदि होता है ।

    ***


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