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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 44 - पञ्च परावर्तन

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    Vidyasagar.Guru

    संसरणं संसारः परिवर्तनमित्यर्थः - संसरण करने को संसार कहते हैं, जिसका अर्थ परिवर्तन है । इसके पाँच भेद हैं। उन्हीं का वर्णन इस अध्याय में है ।


    1. पञ्च परावर्तन के नाम बताइए?
    द्रव्य परिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन, काल परिवर्तन, भव परिवर्तन और भाव परिवर्तन ।


    2. द्रव्य परिवर्तन के कितने भेद हैं ?
    कर्म द्रव्य परिवर्तन एवं नोकर्म द्रव्य परिवर्तन |

    • कर्म द्रव्य परिवर्तन - किसी विवक्षित समय में एक जीव ने ज्ञानावरणादि सात कर्मों (क्योंकि आयु कर्म हमेशा नहीं बँधता है) के योग्य पुद्गल स्कन्ध ग्रहण किए और आबाधा काल व्यतीत होने पर उन्हें भोगकर छोड़ दिए इसके बाद अनन्त बार अगृहीत ग्रहण कर के अनन्त बार मिश्र ग्रहण करके और अनन्त बार गृहीत ग्रहण करके छोड़ दिए ।

    इसके बाद जब वे ही पुद्गल वैसे ही रूप, रस, गन्ध स्पर्श आदि भावों को लेकर उसी जीव के वैसे ही परिणामों से पुनः कर्म द्वारा परिणत होते हैं । उसे कर्म द्रव्यपरिवर्तन कहते हैं ।

     

    • नोकर्म द्रव्य परिवर्तन - इसी तरह किसी विवक्षित समय में एक जीव ने तीन प्रकार के शरीर एवं छ: पर्याप्ति के योग्य नोकर्म पुद्गल ग्रहण किए और भोगकर छोड़ दिए, पूर्वोक्त क्रम के अनुसार जब वे ही नोकर्म पुद्गल उसी रूप, रस आदि को लेकर उसी जीव के द्वारा पुनः नोकर्म रूप से ग्रहण किए जाते हैं उसे नोकर्म द्रव्य परिवर्तन कहते हैं । कर्म द्रव्य परिवर्तन और नोकर्म द्रव्य परिवर्तन को द्रव्य परिवर्तन कहते हैं ।

    कहा भी है-"इस जीव ने सभी पुद्गलों को क्रम से भोगकर छोड़ दिया । और इस प्रकार यह जीव असकृत अनन्तबार पुद्गल परिवर्तनरूप संसार में घूमता है ॥ " (स.सि., 275 में उद्धृत)


    3. क्षेत्र परिवर्तन किसे कहते हैं ?
    समस्त लोकाकाश का ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है जहाँ सभी जीव अनन्तबार जन्में व मरे न हों । यह लोक जगत् श्रेणी का घन रूप है । सात राजू की जगत् श्रेणी है । उसका घन 343 राजू है। इन 343 राजू में सभी जीव अनेक बार जन्म ले चुके हैं और मरण कर चुके हैं यही क्षेत्र परिवर्तन है । यह दो प्रकार का है स्वक्षेत्र परिवर्तन और परक्षेत्र परिवर्तन।

     

    1. स्वक्षेत्र परिवर्तन - कोई जीव सूक्ष्म निगोदिया जीव की जघन्य अवगाहना को लेकर उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मरण को प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् अपने शरीर की अवगाहना क्रमश: एक-एक प्रदेश की अवगाहना को बढ़ाते-बढ़ाते महामत्स्य की अवगाहना पर्यन्त अनेक अवगाहना धारण करता है उसे स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं।
    2. परक्षेत्र परिवर्तन- कोई जघन्य अवगाहना का धारक सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव लोक के आठ मध्यप्रदेशों को अपने शरीर के आठ मध्यप्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ पश्चात् वही जीव उसी रूप से उसी स्थान में दूसरी बार, तीसरी बार भी उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार घनाङ्गुल के असंख्यातवें भाग जघन्य अवगाहना के जितने प्रदेश हैं । उतनी बार उसी स्थान पर क्रम से उत्पन्न हुआ और श्वास के अठारहवें भाग प्रमाण क्षुद्र आयु को भोगकर मरण को प्राप्त हुआ । पश्चात् एक-एक प्रदेश बढ़ते हुए सम्पूर्ण लोक को अपना जन्म-मरण क्षेत्र बना ले वह परक्षेत्र परिवर्तन है ।


    कहा भी है- “समस्त लोक में ऐसा एक भी प्रदेश नहीं है जहाँ यह अवगाहना के साथ क्रम से नहीं उत्पन्न हुआ। इस प्रकार इस जीव ने क्षेत्र संसार में अनेक बार परिभ्रमण किया ।" (स.सि., 276 उद्धृत)


    4. काल परिवर्तन किसे कहते हैं ?
    उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय पर्यन्त सब समयों में यह जीव क्रमश: जन्म लेता है और मरण करता है ।


    कोई जीव उत्सर्पिणी काल के प्रथम समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मरण को प्राप्त हुआ । पुनः भ्रमण करके किसी अन्य उत्सर्पिणी के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ आयु पूर्ण करके मरण को प्राप्त हुआ। पुनः भ्रमण कर उत्सर्पिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ और उसी तरह मरण को प्राप्त हुआ । यही क्रम अवसर्पिणी काल के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए। इसी क्रम से उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी काल के 20 कोड़ाकोड़ी सागर के जितने समय हैं उनमें उत्पन्न हुआ तथा उसी क्रम से मरण को प्राप्त हुआ। अर्थात् उत्सर्पिणी के दूसरे समय में मरण को प्राप्त हुआ । इसे काल परिवर्तन कहते हैं ।

     

    कहा भी है-'काल संसार में भ्रमण करता हुआ यह जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के सब समयों में अनेक बार जन्मा और मरण को प्राप्त हुआ।" (स.सि., 277 उद्धृत)


    5. भव परिवर्तन किसे कहते हैं?
    संसारी जीव नारकादिक चार गतियों की जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त सब स्थितियों में ग्रैवेयक तक जन्म लेता है ।


    नरक गति में जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है। उस आयु को लेकर कोई जीव प्रथम नरक से उत्पन्न हुआ और मरण को प्राप्त हुआ । इसी प्रकार दस हजार वर्ष के जितने समय हैं उतनी बार दस हजार वर्ष की आयु लेकर प्रथम नरक में उत्पन्न हुआ और मरण को प्राप्त हुआ। पुनः एक समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु लेकर उत्पन्न हुआ । इसी प्रकार एक एक समय बढ़ते बढ़ते नरक गति की उत्कृष्ट आयु 33 सागर पूर्ण करता है । पश्चात् तिर्यञ्च गति में अन्तर्मुहूर्त की जघन्य आयु लेकर उत्पन्न हुआ और पहले ही की तरह अन्तर्मुहूर्त की के जितने समय होते हैं उतनी बार अन्तर्मुहूर्तआयु लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ। फिर एक-एक समय बढ़ते-बढ़ते तिर्यञ्च गति की उत्कृष्ट आयु तीन पल्य समाप्त करता है ।


    पुन: तिर्यञ्च गति ही की तरह मनुष्य गति में भी अन्तर्मुहूर्त की जघन्य आयु लेकर तीन पल्य की उत्कृष्ट आयु समाप्त करता है । पुन: नरक गति की तरह देव गति की आयु को समाप्त करता है । किन्तु देव गति में इतनी विशेषता है कि वहाँ 31 सागर उत्कृष्ट आयु को पूर्ण करता है, क्योंकि ग्रैवेयक में उत्कृष्ट आयु 31 सागर की ही होती है और मिथ्यादृष्टियों की उत्पत्ति ग्रैवेयक तक ही होती है। इसी प्रकार चारों गतियों की आयु पूर्ण करने को भव परिवर्तन कहते हैं ।


    कहा भी है- "नरक की जघन्य आयु से लेकर ऊपर के ग्रैवेयक पर्यन्त के सब भवों में यह जीव मिथ्यात्व के अधीन हो कर अनेक बार भ्रमण करता है।" इस प्रकार चारों गतियों की आयु पूर्ण करने को भव परिवर्तन कहते हैं । (स.सि.,278 उद्धृत)


    6. भाव परिवर्तन किसे कहते हैं ?
    सैनी जीव जघन्य आदि उत्कृष्ट स्थिति बन्ध के कारण तथा अनुभाग बन्ध के कारण अनेक प्रकार की कषायों से तथा श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थान से वर्धमान भाव संसार में परिभ्रमण करता है।


    योगस्थान, अनुभाग बन्धाध्यवसाय स्थान, कषायाध्यवसायस्थान और स्थिति स्थान इन चारों के निमित्त से भाव परिवर्तन होता है। प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध के कारण आत्मा के प्रदेश परिस्पन्दन रूप योग के तरतम रूप स्थानों को योगस्थान कहते हैं । अनुभाग बन्ध के कारण कषाय के तरतम स्थान के अनुभाग बन्धाध्यवसाय स्थान कहते हैं । स्थिति बन्ध के कारण कषाय के तरतम स्थान को कषाय स्थान या स्थिति बन्धाध्यवसाय स्थान कहते हैं । बँधने वाले कर्म की स्थिति के भेदों को स्थिति स्थान कहते हैं। योगस्थान श्रेणी के अंसख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अनुभाग बन्धाध्यावसाय स्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं । तथा कषायाध्यवसाय स्थान भी असंख्यात लोक प्रमाण हैं ।


    मिथ्यादृष्टि पञ्चेन्द्रिय सैनी पर्याप्तक कोई जीव ज्ञानावरण कर्म की अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण जघन्य स्थिति को बाँधता है। उस जीव के उस स्थिति के योग्य जघन्य कषाय स्थान, जघन्य अनुभाग स्थान और जघन्य ही योगस्थान होता है । फिर उसी स्थिति, उसी कषायाध्यवसाय स्थान और उसी अनुभाग स्थान को प्राप्त जीव के दूसरे योगस्थान होते हैं। जब सब योगस्थानों को समाप्त कर लेता है तब उसकी स्थिति और उसी कषायस्थान प्राप्त जीव के दूसरे अनुभाग स्थान होते हैं। उसके योगस्थान भी पूर्वोक्त प्रकार ही जानने चाहिए ।


    इसी प्रकार प्रत्येक अनुभाग स्थान के साथ सब योगस्थानों को समाप्त करता है । अनुभाग स्थानों के समाप्त होने पर उसी स्थिति को प्राप्त जीव के दूसरा कषाय स्थान होता है। इस कषायाध्यवसाय स्थान के अनुभाग स्थान तथा योगस्थान पूर्ववत् जानने चाहिए । इसप्रकार सब कषाय स्थानों की समाप्ति तक अनुभाग स्थान और योगस्थानों की समाप्ति का क्रम जानना चाहिए। कषाय स्थानों के भी समाप्त होने पर वही जीव उसी कर्म की एक समय अधिक अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति बाँधता है। उसके भी कषाय स्थान, अनुभाग स्थान तथा योगस्थान पूर्ववत् जानने चाहिए। इस प्रकार एक-एक स्थान बढ़ते- बढ़ते उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर पर्यन्त स्थिति के कषायस्थान, अनुभाग स्थान और योगस्थान का क्रम जानना चाहिए । इसी प्रकारआठ मूल और उत्तर प्रकृतियों में समझना चाहिए । अर्थात् प्रत्येक मूल प्रकृति और प्रत्येक उत्तर प्रकृति जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त प्रत्येक स्थिति के साथ पूर्वोक्त सब कषायस्थानों, अनुभाग स्थानों और योगस्थानों को पहले की ही तरह लगा लेना चाहिए। इस प्रकार सब कर्मों की स्थिति को भोगने को भाव परिवर्तन कहते हैं।

     

    कहा भी है- "इस जीव ने मिथ्यात्व के संसर्ग से सब प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्ध के स्थानों को प्राप्त कर भावसंसार में परिभ्रमण किया ।" (स.सि., 279 उद्धृत)


    जिस परिवर्तन को पूर्ण करने में जितना काल लगता है उतना काल भी उस उस परिवर्तन के नाम से कहलाता है ।


    7. पञ्च परावर्तन में सबसे छोटा काल किसका है और उसके बाद वाले परावर्तनों का काल कितना-कितना है ?
    इनमें सबसे छोटा द्रव्य परावर्तन है, द्रव्य परावर्तन से अनन्तगुणा बड़ा क्षेत्र परावर्तन है, क्षेत्र परावर्तन से अनन्त गुणा बड़ा काल परावर्तन है, काल परावर्तन से अनन्त गुणा बड़ा भव परावर्तन है। तथा भव परावर्तन से अनन्त गुणा बड़ा भाव परावर्तन है । अथवा - द्रव्य परावर्तन x अनन्त = क्षेत्र परावर्तन अनन्त = काल परावर्तन x अनन्त = भव परावर्तन x अनन्त = भाव परावर्तन ।


    विपरीत रूप से इस प्रकार होगा ।
    भाव परावर्तन ÷ अनन्त = भव परावर्तन ।

    भव परावर्तन : अनन्त = काल परावर्तन |

    काल परावर्तन÷अनन्त = क्षेत्र परावर्तन ।
    क्षेत्र परावर्तन : अनन्त = द्रव्य परावर्तन।


    विशेष - 1 पाँचों परावर्तन एक साथ चलते हैं किन्तु क्रम से पूर्ण होते हैं ।

    उदाहरण- जिस प्रकार सेकण्ड, मिनिट, घण्टा, दिन, वर्ष होते हैं अर्थात् 60 सेकण्ड होने पर एक मिनट होता है, 60 मिनट होने पर एक घण्टा होता है, 24 घण्टे होने पर एक दिन होता है, 360 दिन होने पर एक वर्ष पूर्ण होता है। अर्थात् 60 सेकण्ड होने पर एक मिनट होता है, पुन: 60 सेकण्ड होने पर दूसरा मिनट, इस प्रकार 60 मिनट होने पर एक घण्टा होता है । पुन: 60 मिनट होने पर दूसरा घण्टा होता है। इसी प्रकार 24 घण्टे होने पर एक दिन होता है। अर्थात् एक दिन पूर्ण जब होता तब 24 घण्टे हो जाते हैं । और 24 × 60 =1440 मिनट हो जाते हैं सेकण्ड तो 1440 × 60= 86,400 हो जाते हैं । इसी प्रकार 360 दिन पूर्ण होने पर एक वर्ष होता है। अर्थात् एक वर्ष जब पूर्ण होता है तब 360 तो दिन हो जाते हैं। उसमें घण्टे तो 360 × 24 = 8640 हो जाते हैं। मिनट 8640 × 60 - 5,18,400 हो जाते हैं । सेकण्ड तो 5,18,400 × 60= 3,11,04,000 हो जाते हैं जबकि पाँचों (सेकण्ड, मिनट, घण्टा, दिन, वर्ष) वर्ष के प्रारम्भ से ही चल रहे हैं। इस प्रकार पञ्च परावर्तन में भी लगा लेना अर्थात् यहाँ सेकण्ड के स्थान पर द्रव्य परावर्तन, मिनट के स्थान पर क्षेत्र परावर्तन, घण्टे के स्थान पर काल परावर्तन, दिन के स्थान पर भव परावर्तन एवं वर्ष के स्थान पर भाव परावर्तन समझना चाहिए। यह उदाहरण मात्र है। भाव से देखें तो प्रत्येक परावर्तन का काल एक दूसरे से अनन्तगुणा है ।


    विशेष- 2 पाँचों परावर्तनों का एक क्रम है, उस क्रम को भङ्ग नहीं किया जा सकता है ।
     

    8. योगस्थान किसे कहते हैं ?
    प्रकृतिबन्ध और प्रदेश बन्ध के कारण आत्मा के प्रदेश परिस्पन्दरूप योग के तरतमरूप स्थानों को योगस्थान कहते हैं ।


    9. अनुभागबन्ध अध्यवसाय स्थान किसे कहते हैं ?
    जिन कषायों के तरतम रूप स्थानों से अनुभाग बन्ध होता है, उनको अनुभागबन्ध अध्यवसाय स्थान कहते हैं ।


    10. स्थिति बन्ध अध्यवसायस्थान किसे कहते हैं?
    स्थिति बन्ध के करण कषाय के तरतम स्थानों कषायस्थान या स्थितिबन्ध अध्यवसाय स्थान कहते हैं ।

     

    11. स्थितिस्थान किसे कहते हैं ?
    बँधने वाले कर्म की स्थिति के भेदों को स्थितिस्थान कहते हैं ।


    12. नित्य निगोदिया जीवों के पञ्च परावर्तन का कथन क्यों नहीं करना चाहिए?
    इनके पञ्च परिवर्तन का कथन नहीं करना चाहिए क्योंकि नित्यनिगोद के जीवों को तीन काल में भी त्रसपना प्राप्त नहीं होता है। कहा भी है - ऐसे अनन्त जीव हैं । जिन्होंने अब तक त्रस पर्याय नहीं प्राप्त की है। वे प्रचुर भाव कलंक होने से निगोदपना नहीं छोड़ते हैं। (वृ.द्र. सं. टी., 35)


    13. जीव के भूतकाल में कितने परिवर्तन हुए हैं?
    अतीतकाल में एक जीव के सबसे कम भाव परिवर्तन हुए हैं । भाव परिवर्तन के प्रमाण से भव परिवर्तनों का प्रमाण अनन्त गुणा है, भव परिवर्तन से काल परिवर्तन अनन्तगुणी बार हुए हैं। काल परिवर्तनों से क्षेत्र परिवर्तन अनन्तगुणी बार हुए हैं। क्षेत्र परिवर्तनों से पुद्गल परिवर्तन अनन्तगुणी बार हुए है । (क्योंकि इनका काल आगे आगे अनन्त - अनन्त गुणा है ।) (ध.पु., 4/334)

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