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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 42 - कर्म व उनके भेद प्रभेद

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    Vidyasagar.Guru

    कर्म ईमानदार है क्योंकि वह किसी के साथ पक्षपात नहीं करता है एवं कर्म स्वाभिमानी है वह बिना बुलाएँ किसी के यहाँ नहीं आता है। जब तक आप राग द्वेष रूपी पीले चावलों से निमन्त्रण नहीं करेंगे तब तक कर्म आने वाला नहीं । प्रथम खण्ड में कर्म 8भेदों का अध्ययन किया । अब उन 8 कर्मों की 148 प्रकृतियों के बारे में जानकारी ग्रहण करेंगे।


    1. कर्म किसे कहते हैं ?
    जो आत्मा को परतन्त्र करते हैं अथवा आत्मा जिनके द्वारा परतन्त्र किया जाता है, उन्हें कर्म कहते हैं।

     

    2. ज्ञानावरणादि कर्म किसे कहते हैं ?

    1. ज्ञानावरण कर्म- जो आत्मा के ज्ञान गुण को आवरण करता है वह ज्ञानावरण कर्म है । (स.सि.,738)
    2. दर्शनावरण कर्म- जो आत्मा के दर्शन गुण को आवरण करता है वह दर्शनावरण कर्म है । (स.सि., 738)
    3. वेदनीय कर्म - जो सुख दुःख का वेदन (अनुभूति) कराता है, वह वेदनीय कर्म है ।
    4. मोहनीय कर्म- जो मोहित करता है अथवा जिसके द्वारा जीव मोहित किया जाता है वह मोहनीय कर्म है । (स.सि.,738)
    5. आयु कर्म- जो प्राणी को मनुष्य आदि के शरीर में रोके रखता है, वह आयु कर्म है । विशेष- जिसके द्वारा नारक आदि भवों को जाता है, वह आयु कर्म हैं । (स.सि.,738)
    6. नाम कर्म- जो नाना प्रकार के शरीर आदि की रचना करता है वह नाम कर्म है । (ध.पु. 6/13)
    7. गोत्र कर्म - जिसके द्वारा उच्च और नीच कहा जाता है, वह गोत्र कर्म है । (स.सि.,738)
    8. अन्तराय कर्म- जो दान, लाभ, भोग, उपभोग एवं वीर्य (शक्ति) में विघ्न डालता है । वह अन्तराय कर्म है


    3. कर्मों की आठ प्रकृतियों की उत्तर प्रकृतियों की संख्या बताइए?

    ज्ञानावरण की 05
    दर्शनावरण की 09
    वेदनीय की 02
    मोहनीय की 28
    आयु की 04
    नाम की 93
    गोत्र की 02
    अन्तराय की 05
    कुल  148

     

    4. ज्ञानावरण कर्म की पाँच उत्तर प्रकृतियों के नाम परिभाषा सहित बताइए ?

    1. मति ज्ञानावरण- जो मतिज्ञान का आवरण करता है । वह मतिज्ञानावरण है ।
    2. श्रुतज्ञानावरण- जो श्रुतज्ञान का आवरण करता है । वह श्रुतज्ञानावरण है।
    3. अवधिज्ञानावरण- जो अवधिज्ञान का आवरण करता है वह अवधिज्ञानावरण है ।
    4. मन:पर्ययज्ञानावरण- जो मन:पर्ययज्ञान का आवरण करता है वह मन:पर्यय ज्ञानावरण ।
    5. केवलज्ञानावरण-जो केवलज्ञान का आवरण करता है वह वह केवलज्ञानावरण है।


    5. ज्ञानावरण के स्थान पर 'ज्ञान विनाशक 'ऐसा क्यों नहीं कहा ?
    लक्षण का अभाव नहीं होता यदि इसका अभाव होगा तो जीव का अभाव होगा इससे ज्ञान विनाशक नहीं कहा।(ध.पु.,6/6-7)


    6. ज्ञान का विनाश नहीं मानने पर सर्व जीवों के ज्ञान का अस्तित्व प्राप्त है ?
    इसमें कोई विरोध नहीं। क्योंकि अक्षर का अनन्तवाँ भाग नित्य - उद्घाटित रहता है । किन्तु इसे केवलज्ञान नहीं मान लेना।


    7. नित्य - उद्घाटित ज्ञान के उदाहरण दीजिए ?

    1. बहुत ठण्ड पड़ रही है आपने पूरा शरीर वस्त्रों से ढक लिया है। किन्तु नाक खुली रखते हैं यदि वह भी बन्द कर ले तो श्वास निरोध से मरण हो जाएगा।
    2. एक बहुत लम्बा इंचीटेप होता है। जिसे एक गोले में अन्दर करते जाते हैं । किन्तु थोड़ा भाग जो हल्का सा मोटा होता है वह बाहर ही रहता जिसे खींचकर टेप बाहर निकालते हैं । यदि वह भी अन्दर चला जाए तो फिर वह टेप कोई काम का नहीं रहेगा।


    8. दर्शनावरण कर्म की नौ उत्तर प्रकृतियों के नाम परिभाषा सहित बताइए?

    1. चक्षुदर्शनावरण- जो चक्षु इन्द्रिय द्वारा होने वाले सामान्य अवलोकन को न होने दे वह चक्षुदर्शनावरण है।
    2. अचक्षुदर्शनावरण- जो चक्षु इन्द्रिय के अलावा अन्य इन्द्रिय व मन से होने वाले सामान्य अवलोकन को न होने दे वह अचक्षुदर्शनावरण है।
    3. अवधिदर्शनावरण- जो अवधिज्ञान से पूर्व होने वाले सामान्य अवलोकन को न होने दे अवधिदर्शनावरण है ।
    4. केवलदर्शनावरण- जो केवलज्ञान के साथ होने वाले सामान्य अवलोकन को न होने दे वह केवलदर्शनावरण है।
    5. निद्रा - जिस प्रकृति के तीव्र उदय से जीव अल्पकाल सोता है, उठाए जाने पर जल्दी उठ जाता है और अल्प शब्द के द्वारा भी सचेत हो जाता है । (ध.पु., 6/32)
    6. निद्रा - निद्रा - जिस प्रकृति के तीव्र उदय से जीव वृक्ष के शिखर पर, विषम भूमि पर अथवा जिस किसी स्थान पर घुर घुराता हुआ या नहीं घुरघुराता हुआ गाढ़ निद्रा में सोता है । (ध.पु., 6/31)
    7. प्रचला- जिस प्रकृति के तीव्र उदय से आँख रेत से भरे हुए के समान हो जाते हैं, सिर भारी हो जाता है तथा आँख बार-बार खोलता एवं बन्द करने लगता है । (ध.पु., 6/32)
    8. प्रचलाप्रचला - जिसके उदय से मुख से लार बहती है और हाथ आदि अङ्ग चलते हैं किन्तु सावधान नहीं रहता है ।( गो .क.,24)
    9. स्त्यानगृद्धि - जिसके उदय से स्वप्न में विशेष शक्ति का आविर्भाव हो जाता है । जिससे वह अनेक रौद्र कर्म तथा असम्भव कार्य करके सो जाता है, पश्चात् कुछ भी स्मरण नहीं रहता है। (त.वा.,8/7/6)

     

    उदाहरण- एक बालक रात्रि में सोता और सुबह उठता तो उसके वस्त्र गीले मिलते थे। उससे पूछा ऐसा क्यों ? वह कहता मुझे पता नहीं । एक दिन परिवार के लोग रातभर जागते रहे । जब वह उठकर नदी पर जा रहा था तो परिवार के लोग उसके पीछे जाकर देखने लगे। जैसे ही वह नदी में कूदा तो परिवार के लोगों को ज्ञात था इसे तैरना नहीं आता, कहीं यह डूब न जाए यह सोचकर लोगों ने जोर-जोर से आवाज लगाई जिससे उसकी नींद खुल गई । वह डूबकर मर गया । उसे स्त्यानगृद्धि निद्रा में तैरना आता था लेकिन जागृत अवस्था में नहीं।

    विशेष -

    1. चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा और प्रचला का उदय बारहवें गुणस्थान तक तथा निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला एवं स्त्यानगृद्धि का उदय छठवें गुणस्थान तक होता है।
    2. निद्रा - निद्रा, प्रचलाप्रचला एवं स्त्यानगृद्धि का देव, नारकियों, भोगभूमिज, लब्ध्यपर्याप्तक,कर्मभूमिज मनुष्य तथा तिर्यञ्च के इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने पूर्व तक उदय नहीं होता है।

     

    9. वेदनीय कर्म को दो उत्तर प्रकृतियों के नाम परिभाषा सहित बताइए ?

    1. सातावेदनीय- जिसके उदय से देवादि गतियों में प्राणी शारीरिक, मानसिक आदि अनेक प्रकार के सुखों का अनुभव करता है वह सातावेदनीय कर्म है। (त.वा., 8/8/1)
    2. असातावेदनीय- जिसके उदय से नरकादि गतियों में कायिक, मानसिक और अति दुस्सह वध बन्धक आदि दुःखों को सहन करता है वह असातावेदनी कर्म है। (त.वा., 8/8/2)

     

    10. मोहनीय कर्म ने अट्ठाईस प्रकृतियों के नाम परिभाषा सहित बताइए ?

    मोहनीय कर्म के मूल में दो भेद हैं- दर्शन मोहनीय एवं चारित्र मोहनीय |

     

    दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं- मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति ।

     

    चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं- कषाय वेदनीय और अकषाय वेदनीय ।

     

    कषाय वेदनीय के सोलह भेद हैं-

    • अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ ।
    • अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ ।
    • प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ ।
    • संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ ।


    अकषाय वेदनीय के नौ भेद हैं- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद ।

     

    • दर्शन मोहनीय - जो आत्मा के सम्यक्त्व गुण का घात करती है, वह दर्शन मोहनीय है ।
    • चारित्र मोहनीय- जो आत्मा के चारित्र गुण का घात करती है, वह चारित्र मोहनीय है ।
    • मिथ्यात्व- जिसके उदय से तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान नहीं होता है, वह मिथ्यात्व है ।
    • सम्यग्मिथ्यात्व- दाल और चावल से मिश्रित अर्थात् खिचड़ी के स्वाद के समान सम्यक्त्व और मिथ्यात्व से मिश्रित भाव को सम्यग्मिथ्यात्व कहते हैं ।
    • सम्यक्प्रकृति-
    1. जिसके उदय से आप्त, आगम और पदार्थों की श्रद्धा में शिथिलता होती है वह सम्यक्प्रकृति है । (ध.पु., 6/39)
    2. जिस कर्म के उदय से सम्यग्दर्शन का मूल से विनाश तो नहीं होता किन्तु स्थिरता व निष्कांक्षिता का घात होने से में चल, मलिन, अवगाढ़ दोष लग जाते हैं। वह सम्यक्प्रकृति हैं । (ज.ध., 5/130)

     

    11. चल, मलिन और अवगाढ़ दोष किसे कहते हैं ?

    • चल- आप्त, आगम और पदार्थ विषयक श्रद्धान के विकल्प में जो चलित होता है, उसे चल कहते हैं जैसे- अपने द्वारा स्थापित कराए गए जिनबिम्ब आदि में 'यह मेरे देव हैं' इस प्रकार अपने पन से और दूसरे के द्वारा स्थापित कराए गए जिनबिम्ब आदि में यह दूसरों के हैं इस प्रकार भेद करने से चल दोष कहा है । (गो.जी. जी., 25 )
    • मलिन दोष- जैसे मल के योग से शुद्ध स्वर्ण मलिन हो जाता है, वैसे ही सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से अपने माहात्म्य को न पाकर मल के संग से मलिन होता है । (गो.जी. जी., 25 ) विशेष- सम्यग्दर्शन में शंका- कांक्षा आदि अथवा तीन मूढ़ता आदि 25 दोष लगाने को मलिन दोष कहते हैं ।
    • अवगाढ़- आप्त, आगम और पदार्थ की श्रद्धान रूप अवस्था में ही रहते हुये भी जो काँपता है, स्थिर नहीं रहता उसे अवगाढ़ कहते हैं । जैसे - सब अरिहन्त समान होते हुए भी शान्तिनाथ, शान्ति के कर्त्ता हैं । विघ्न विनाश पार्श्वनाथ हैं । ( गो . जी . जी., 25 ) विशेष- गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 25 में अगाढ़ शब्द लिया है।
    • कषाय वेदनीय- जो दुःख रूप धान्य को उत्पन्न करने वाले कर्म रूपी खेत का कर्षण ( जोतना) करते हैं वे कषाय वेदनीय हैं।
    • अनन्तानुबन्धी- जो सम्यक्त्व व चारित्र दोनों का विनाश करती है तथा जो अनन्त भव के अनुबन्धन स्वभाव वाली होती है, वह अनन्तानुबन्धी कषाय कहलाती है। (ध.पु., 13/360)
    • अप्रत्याख्यानावरण- जो देशसंयम का घात करती है, वह अप्रत्याख्यानावरण है । ( गो .क., ,4)
    • प्रत्याख्यानावरण- जो सकल संयम का घात करती है, वह प्रत्याख्यानावरण है । ( गो .क.,45)
    • संज्वलन कषाय- जिस कषाय के रहते सकल संयम तो रहता है किन्तु यथाख्यात संयम प्रकट नहीं हो पाता है, वह संज्वलन कषाय है । ( गो .क., 45)
    • अकषाय वेदनीय- ईषत् कषाय को अकषाय या नोकषाय कहते हैं । ये स्वयं कषाय न होकर दूसरे के बल पर कषाय बन जाती हैं। जैसे - कुत्ता स्वामी का इशारा पाकर काटने को दौड़ता है और स्वामी के ही इशारे से वापस आ जाता है, उसी तरह क्रोधादि कषाय के बल पर ही हास्य आदि नोकषायों की प्रवृति होती है, क्रोधादि के अभावों में ये निर्बल रहती हैं, इसलिए इन्हें ईषत् कषाय, अकषाय या नोकषाय कहते हैं। (त.वा.,8/9/3)
    • हास्य-जिसके उदय से हँसी आती है वह हास्य है ।
    • रति- जिसके उदय से देश आदि में उत्सुकता होती है, वह रति है ।
    • अरति- जिसके उदय से देश आदि में उत्सुकता नहीं होती है, वह अरति है या जिसके उदय से तप, ध्यान आदि में अरति ( अरुचि ) हो वह अरति है ।
    • शोक- जिसके उदय से इष्ट वियोगज क्लेश उत्पन्न हो वह शोक है ।
    • भय- जिसके उदय से भय उत्पन्न हो वह भय है ।
    • जुगुप्सा - जिसके उदय से ग्लानि उत्पन्न हो अथवा जिसके उदय से आत्म दोषों का संवरण (ढकता) और पर दोषों का आविष्करण (प्रकट करना) होता है, वह जुगुप्सा है। (स.सि.,750)
    • स्त्रीवेद-जिसके उदय से स्त्री सम्बन्धी भावों को प्राप्त हो वह स्त्रीवेद है ।
    • पुरुषवेद - जिसके उदय से पुरुष सम्बन्धी भावों को प्राप्त हो वह पुरुषवेद है ।
    • नपुंसक वेद - जिसके उदय से नपुंसक सम्बन्धी भावों को प्राप्त हो वह नपुंसकवेद है । (स.सि.,750)

     

    विशेष-

    1. क्रोध, मान, माया व लोभ में से एक समय में एक ही का उदय होता है, चारों का नहीं । जहाँ अनन्तानुबन्धी क्रोध का उदय है, वहाँ अप्रत्ख्यानावरण क्रोध, प्रत्याख्यानावरण क्रोध एवं संज्वलन क्रोध का भी उदय होगा । जहाँ अप्रत्याख्यानावरण क्रोध का उदय है । वहाँ प्रत्याख्यानावरण एवं संज्वलन क्रोध का भी उदय रहेगा। जहाँ प्रत्याख्यानावरण क्रोध का उदय है वहाँ संज्वलन क्रोध का भी उदय रहेगा और जहाँ संज्वलन क्रोध है वहाँ मात्र संज्वलन क्रोध ही रहेगा ।
    2. बन्ध सामान्य से प्रतिसमय चारों कषायों का विशेष से इक्कीस को आदि लेकर एक कषाय का बन्ध होता है।
    3. अन्तर्मुहूर्त में क्रोध आदि कषायों का उदय नियम से बदल जाता है ।
    4. हास्य कषाय के साथ रति कषाय रहती है या शोक के साथ अरति कषाय रहती है। दोनों युगल का उदय एक जीव में एक साथ नहीं रहता है । भय और जुगुप्सा में से कोई भी एक या दोनों या दोनों से रहित भी हो सकता है। तीन वेदों में से एक जीव का एक जीवन में एक ही वेद का उदय रहता है ।


    12. आयु कर्म के चार प्रकृतियों के नाम परिभाषा सहित बताइए ?
    आयु कर्म- दस प्राणों में आयु प्राण मुख्य है । जिसके सद्भाव में जीवन और अभाव में मरण हो वह आयु कर्म है । (त.वा., 8/10/03)

    • नरक आयु- जिसके उदय से तीव्र शीत और उष्ण वेदना वाले नरकों में भी दीर्घ जीवन होता है, वह नरक आयु है। (त .वा., 8/10/5)
    • तिर्यञ्च आयु- क्षुधा, तृषा, शीत-उष्ण, दंशमशक आदि अनेक दुःखों के स्थानभूत तिर्यञ्चों में जिसके उदय से भव धारण हो वह तिर्यञ्च आयु है। (त.वा., 8/10/06)
    • मनुष्य आयु- शारीरिक और मानसिक सुख दुःख से समाकुल मानुष पर्याय में जिसके उदय से भव धारण हो वह मनुष्य आयु है। (त.वा., 8/10/7)
    • देव आयु- शारीरिक एवं मानसिक अनेक सुखों से प्राय: युक्त देवों में जिसके उदय से भव धारण हो वह देव आयु है। (त.वा., 8/10/8)


    13. गति एवं आयु में क्या अन्तर हैं?

    गति आयु
    1. आधार है 1. आधेय है ।
    2. मोटर साइकिल है । 2. पेट्रोल है ।
    3. बल्ब है 3. करेन्ट है
    4. पेन है 4. स्याही है ।
    5. गति का बन्ध प्रतिसमय होता है । 5. आयु बन्ध निश्चित समय के बाद अन्तर्मुहूर्त तक होता है।
    6. गतिबन्ध प्रथम गुणस्थान से आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक होता है । 6. आयु बन्ध तीसरा गुणस्थान छोड़कर प्रथम गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक होता है।


    14. नाम कर्म के तिरानवें प्रकृतियों के नाम परिभाषा सहित बताइए?
    गति 4, जाति 5, शरीर 5, अङ्गोपाङ्ग 3, निर्माण 1, बन्धन 5, सङ्घात 5, संस्थान 6, संहनन 6, स्पर्श 8, रस 5, गन्ध 2, वर्ण 5, आनुपूर्वी 4, अगुरुलघु 1, उपघात 1, परघात 1, उच्छ्वास 1, आतप 1, , उद्योत विहायोगति 2, प्रत्येक शरीर, साधारण शरीर, त्रस, स्थावर, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, शुभ, अशुभ, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, आदेय, अनादेय, यश: कीर्ति अयश: कीर्ति और तीर्थङ्कर ।


    गति - जिसके उदय से आत्मा भवान्तर को जाता है। वह गति है । (त.वा.,8/11/1)


    नरक गति नाम कर्म - जिस कर्म को निमित्त पाकर आत्मा नारकभाव को प्राप्त करता है, वह नरक गति है, इसी प्रकार शेष गति जानना चाहिए। (त.वा.,8/11/1)


    जाति नाम कर्म - जिस कर्म के उदय से अनेक जीवों में अविरोधी समान अवस्था प्राप्त होती है, वह जाति नाम कर्म है। (त.वा., 8/11/2) इसके पाँच भेद हैं- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पञ्चेन्द्रिय ।


    शरीर नाम कर्म - जिसके उदय से आत्मा के लिए शरीर की रचना होती है, वह शरीर नाम कर्म है । इसके पाँच भेद हैं- औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर एवं कार्मण शरीर ।

     

    अङ्गोपाङ्ग-

    1. जिसके उदय से सिर, पीठ, जाँघ, बाहु, उदर, नल, हाथ और पैर ये आठ अङ्ग तथा ललाट, नासिका, अङ्गुली आदि उपाङ्गों की रचना हो वह अङ्गोपाङ्ग नाम कर्म है। इसके तीन भेद है- औदारिक अङ्गोपाङ्ग, वैक्रियिक अङ्गोपाङ्ग और आहारक अङ्गोपाङ्ग (त.वा.,8/11/4)
    2. शरीर में दो पैर, दो हाथ, नितम्ब (कमर का पिछला भाग), पीठ, हृदय और मस्तक (ध.पु., 6/54 में उद्धृत)


    निर्माण नाम कर्म - जिसके उदय से अङ्ग और उपाङ्गों की रचना हो वह निर्माण नाम कर्म है । यह जाति नाम कर्म के उदय की अपेक्षा चक्षु आदि के स्थान और प्रमाण की रचना करता है । जिससे रचना की जाए वह निर्माण है । (त.वा., 8/11/5)


    बन्धन नाम कर्म - शरीर नाम कर्म के उदय से ग्रहण किए गए पुद्गलों का परस्पर प्रदेश संश्लेष जिसके द्वारा होता है । वह बन्धन नाम कर्म है । इसके औदारिक शरीर बन्धन आदि पाँच भेद हैं । यदि बन्धन नाम कर्म नहीं होता तो शरीर के प्रदेश लकड़ियों के ढेर के समान परस्पर पृथक्-पृथक् रहते। (त.वा., 8/11/6)


    संघात नाम कर्म- जिसके उदय से औदारिक आदि शरीर के परमाणु छिद्र रहित होकर मिलें, वह संघात नाम कर्म हैं। (त.वा., 8/11/7) विशेष- नोकर्मवर्गणाओं का ऐसा निश्छिद्र होना कि उनमें हवा का आना जाना तो बना रहें किन्तु खून आदि न निकले । (आ. श्री)


    संस्थान नाम कर्म - जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों की आकृति बनती है, वह संस्थान नाम कर्म है।(त.वा., 8/11/8) इसके छ: भेद हैं ।

     

    • समचतुरस्र संस्थान - जिस नाम कर्म के उदय से शरीर की आकृति सामुद्रिक शास्त्र के अनुपात से बनती है, वह समचतुरस्र संस्थान है।
    • न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान - न्यग्रोध नाम वट वृक्ष का है, जिसके उदय से शरीर में नाभि से नीचे का भाग पतला और ऊपर का भाग मोटा हो, वह न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान है।
    • स्वाति संस्थान - स्वाति नाम वल्मीक (सर्प की बाँबी) या शाल्मली वृक्ष का है। जिसके उदय से शरीर में नाभि से नीचे का भाग मोटा हो और ऊपर का भाग पतला होता है, वह स्वाति संस्थान है ।
    • कुब्जक संस्थान - जिसके उदय से जीव का शरीर कुबड़ा हो, वह कुब्जक संस्थान है या जिसके उदय से शाखाओं में दीर्घता और मध्य भाग में ह्रस्वता होती है, वह कुब्जक संस्थान है । (ध.पु., 6/71)
    • वामन संस्थान - सर्व अङ्ग व उपाङ्गों को जो छोटा बनाने में कारण होता है, वह वामन संस्थान है या जिसके उदय से शाखाओं में ह्रस्वता और शरीर में दीर्घता होती है, वह वामन संस्थान है । (ध.पु., 6/72)
    • हुण्डक संस्थान - जिसके उदय से शरीर का आकार बेडौल हो, वह हुण्डक संस्थान है ।


    संहनन नाम कर्म - जिसके उदय से हड्डियों का बन्धन विशेष होता है, वह संहनन नाम कर्म है। (त.वा., 8/11/9) इसके छ: भेद हैं ।

     

    • वज्रऋषभनाराच संहनन - जिस शरीर में वज्र की हड्डियाँ हों, वज्र का ऋषभ हो और वज्र का नाराच हो वह वज्रऋषभनाराच संहनन है । ( मू.टी., 1237)
    • वज्रनाराच संहनन- जिसमें वज्र के बन्धन न हों सामान्य बन्धन से बाँधा जाए किन्तु कील व हड्डियाँ वज्र की हों, वह वज्रनाराच संहनन है। (त.वा., 8/11/9)
    • नाराच संहनन - जिसमें वज्र विशेष से रहित साधारण नाराच से कीलित हड्डियों की सन्धि हो वह नाराच संहनन है। (मू.टी., 1237)
    • अर्द्धनाराच संहनन- जिस कर्म के उदय से हड्डियों का समूह नाराच से आधा कीलित हो अर्थात् एक तरफ से कीलित हो । दूसरी तरफ से नहीं, वह अर्द्धनाराच संहनन है । (मू.टी., 1237)
    • कीलक संहनन- जिसमें हड्डियाँ परस्पर में नोंक के गड्ढे के द्वारा फँसी हो, अर्थात् अलग से कील नहीं रहती, वह कीलक संहनन है । ( गो .क.,33)
    • असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन - जिसमें अलग-अलग हड्डियाँ नसों से बँधी हों, परस्पर में कीलित न हों,वह असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन है। (त. वा., 8/11/9)

    विशेष- वज्र का अर्थ जिसका भेदन न किया जाए। ऋषभ का अर्थ जिससे बाँधा जाए वेस्टन । नाराच का अर्थ कील। संहनन का अर्थ हड्डियों का समूह ।


    स्पर्श नाम कर्म - जिसके उदय से स्पर्श की उत्पत्ति होती है वह स्पर्श नाम कर्म है। (स.सि., 755 ) वह आठ प्रकार का है। स्निग्ध ( चिकना ), रूक्ष (सूखा ), कर्कश (कड़ा), मृदु (नरम ), शीत ( ठण्डा), उष्ण (गरम), गुरु (भारी), लघु (हल्का)


    रस नाम कर्म-जिसके उदय से रस में भेद होता है, वह रस नाम कर्म है । (स.सि.,755) इसके पाँच भेद हैं - तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल, मधुर ।


    गन्ध नाम कर्म - जिसके उदय से गन्ध की उत्पत्ति होती है, वह गन्ध नाम कर्म है । (स.सि, 755 ) इसके दो भेद है- सुगन्ध एवं दुर्गन्ध ।


    वर्ण नाम कर्म- जिसके उदय से वर्ण में विभाग होता है, वह वर्ण नाम कर्म है । (स.सि., 755 )
    इसके पाँच भेद हैं - कृष्ण (काला), नील (नीला), रक्त (लाल), हारिद्र (पीला), शुक्ल (सफेद)।

    विशेष- यद्यपि ये पुद्गल के स्वभाव हैं पर शरीर में इनका अमुक रूप से प्रादुर्भाव कर्मोदय कृत है। (त.वा.,8/11/10)


    आनुपूर्व्य- जिसके उदय से पूर्व शरीर ( छोड़ हुए) के आकार का विनाश नहीं होता है, वह आनुपूर्व्य नाम कर्म है। जिस प्रकार कोई मनुष्य या तिर्यञ्च मरणकर देवगति में जा रहा तब उसके आत्मा के प्रदेशों का आकार वैसा ही बना रहता है, जैसा उसके पूर्व शरीर का आकार था । जिसे वह छोड़कर आया है,वह आकार देवगत्यानुपूर्व्य है । इसीप्रकार नरकगत्यानुपूर्व्य, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्व्य, मनुष्यगत्यानुपूर्व्य जानना चाहिए। क्योंकि आनुपूर्व्य चार हैं


    अगुरुलघु नाम कर्म- जिसके उदय से लोहे के पिण्ड समान गुरु होने से न तो नीचे गिरता है। और न अर्कतूल (कपास जैसा) के समान लघु होने से न तो ऊपर जाता है वह अगुरुलघु नाम कर्म है । (स.सि., 755)


    उपघात नाम कर्म - जिसके उदय से अपने आप का नाश करने वाले अङ्गोपाङ्ग हों वह उपघात नाम कर्म है।
    जैसे - बड़े सींग, बड़ा पेट, लम्बे नाखून आदि । (मू.टी., 1237)

    विशेष- पित्त निकल गया, कफ अटक गया, घात हो गया। (आ. श्री.)


    परघात नाम कर्म- जिसके उदय से दूसरों का घात करने योग्य अङ्ग - उपाङ्ग होते हैं वह परघात नाम कर्म है । (ध.पु., 6/59) जैसे- तीक्ष्ण सींग, शेर का पंजा आदि ।


    आतप नाम कर्म - जिसके उदय से शरीर में आतप की रचना होती है, वहआतप नाम कर्म है। (स.सि.,755)
    इसका उदय सूर्यबिम्ब में उत्पन्न बादर पृथ्वीकायिक में रहता है । ( गो .क.,33)

     

    उद्योत नाम कर्म - जिसके निमित्त से शरीर में उद्योत होता है, वह उद्योत नाम कर्म हैं । इसका उदय चन्द्रबिम्ब में उत्पन्न बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक में तथा जुगनू आदि में होता है। (स.सि.,755)

    विशेष- उद्योत नाम कर्म का उदय बादर पृथ्वीकायिक, बादर जलकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में रहता है । बिल्ली आदि जानवर रात्रि में चलते हैं अत: उनकी आँखों में उद्योत नाम कर्म का उदय रहता है।


    उच्छ्वास नाम कर्म - जिसके उदय से उच्छ्वास हो, वह उच्छ्वास नाम कर्म है । (स.सि.,755)

     

    विहायोगति - जिसके उदय से विहाय अर्थात् आकाश में (आकाश सर्वत्र होता है) गमन होता है, वह विहायोगति है । इसके दो भेद है -

    1. प्रशस्त विहायोगति - जिसके उदय से सिंह, हाथी, हँस, बैल आदि के समान प्रशस्त गमन होता है।वह प्रशस्त विहायोगति है ।
    2. अप्रशस्त विहायोगति - जिसके उदय से गधा, ऊँट, कुत्ते, आदि के समान अप्रशस्त गमन होता है वह अप्रशस्त विहायोगति है ।


    विशेष - विहायोगति का उदय एकेन्द्रिय को छोड़कर सभी जीवों के होता है, न केवल पक्षियों को ।(त.वा.,8/11/18)


    प्रत्येक शरीर नाम कर्म - जिसके उदय से एक शरीर का एक ही आत्मा के लिए उपभोग का कारण है । वह प्रत्येक शरीर नाम कर्म है। (मू.टी., 1238-39 )


    साधारण शरीर नाम कर्म - जिसके उदय से एक शरीर अनन्तानन्त जीवों के उपभोग का कारण हो वह साधारण शरीर नाम कर्म है।(मू.टी., 1238-39 )

    त्रस नाम कर्म - जिसके उदय से द्वीन्द्रियादिक में जन्म होता है, वह त्रस नाम कर्म है । (स.सि., 755)

     

    स्थावर नाम कर्म - जिसके उदय से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में उत्पत्ति होती है, वह स्थावर नाम कर्म है । (त.वा.,8/11/22)


    सुभग नाम कर्म - जिसके उदय से रूपवान या कुरूप कैसा भी हो सबको प्यारा लगता है, वह सुभग नाम कर्म है।(त.वा .,8/11/23-24 ) जैसे- कोयल काली होकर भी सबको अच्छी लगती ।


    दुर्भग नाम कर्म - जिसके उदय से रूपवान् होने पर भी लोगों को अच्छा नहीं लगता है वह दुर्भग नाम कर्म है। (मू.टी., 1240) जैसे - बगुला ।


    सुस्वर नाम कर्म - जिसके उदय से जीवों को मधुर लगने वाला स्वर हो वह सुस्वर नाम कर्म है । (मू.टी., 1238- 39 ) जैसे - कोयल, मयूर आदि के स्वर ।


    दुःस्वर नाम कर्म - जिसके उदय से जीवों को बुरा लगने वाला स्वर हो वह दु:स्वर नाम कर्म है। (मू.टी., 1238- 39) जैसे गधा, ऊँट आदि के स्वर ।


    शुभ नाम कर्म - जिसके उदय से अङ्गों और उपाङ्गों में सुन्दरता होती है। वह शुभ नाम कर्म है। (मू.टी. 1239) जैसे- तिल आदि शरीर में रहते तो शरीर और सुन्दर लगता है


    अशुभ नाम कर्म- जिसके उदय से अङ्गों और उपाङ्गों में सुन्दरता नहीं होती है, वह अशुभ नाम कर्म है । (मू. (. टी., 1239 ) जैसे - शूकर, ऊँट, गधा आदि ।

    विशेष- शुभ-अशुभ नाम कर्म का उदय सभी संसारी प्राणियों में रहता है ।


    सूक्ष्म नाम कर्म - जिसके उदय से ऐसा शरीर मिलता है जो किसी से रुकता नहीं है तथा किसी को रोकता नहीं है, जिसका किसी के द्वारा घात नहीं होता है। वह सूक्ष्म नाम कर्म है। (त.वा., 8/11/29-30)

     

    बादर नाम कर्म - जिसके उदय से अन्य जीवों को बाधा उत्पन्न होने करने वाला शरीर प्राप्त हो, वह बादर नाम कर्म है। (त.वा.,8/11/29-30)


    पर्याप्ति नाम कर्म - जिसके उदय से आत्मा अन्तर्मुहूर्त में आहार आदि पर्याप्तियों की पूर्णता कर लेता है।वह पर्याप्ति नाम कर्म है। (त. वा., 8/11/31-33)


    अपर्याप्ति नाम कर्म- जिससे पर्याप्तियों की पूर्णता न कर सके वह अपर्याप्त नाम कर्म है। (त.वा., 8/11/31-33) यह लब्ध्यपर्याप्तक जीवों के होता है ।


    स्थिर नाम कर्म - जिसके उदय से दुष्कर उपवास आदि तप करने पर भी अङ्ग - उपाङ्ग आदि स्थिर बने रहते है, कृश नहीं होते वह स्थिर नाम कर्म है। (त.वा.,8/11/34-35)


    अस्थिर नाम कर्म - जिसके उदय से एक उपवास से या साधारण शीत उष्ण आदि से शरीर में अस्थिरता आ जाए कृश हो जाए वह अस्थिर नाम कर्म है। (त. वा., 8 /11 / 34-35)
    विशेष -

    1. कुछ भी खाओ पचेगा नहीं। (आ.श्री. )
    2. स्थिर - अस्थिर इन दोनों का उदय सभी संसारी प्राणियों के रहता है ।


    आदेय नाम कर्म- प्रभायुक्त शरीर का कारण आदेय नाम कर्म है । (स.सि.,755)

    विशेष- जिसे सब चाहते हैं, वह भी आदेय नाम कर्म है। ( आ. श्री . )


    अनादेय नाम कर्म - निष्प्रभ शरीर का कारण अनादेय नाम कर्म है ।


    यशःकीर्ति नाम कर्म - जिसके उदय से विद्यमान या अविद्यमान गुणों का उद्भावन लोगों के द्वारा किया जाता है, वह यश:कीर्ति नाम कर्म है । (ध.पु., 6/65-66)


    अयशः कीर्ति नाम कर्म - जिसके उदय से विद्यमान अवगुणों का उद्भावन लोगों द्वारा किया जाता है, वह अयश:कीर्ति नाम कर्म है । (ध.पु., 6/66)
    विशेष - अपवाद भी अयश: कीर्ति नाम कर्म के उदय से होता है । (आ . श्री . )


    तीर्थङ्कर नाम कर्म - जिसके उदय से तीर्थङ्कर नामक अचिन्त्य विशेष विभूति आर्हन्त्यपद प्राप्त होता है, वह तीर्थङ्कर नाम कर्म है । (त.वा., 8/11/40)


    15. गोत्र कर्म किसे कहते हैं?

    1. जो उच्च और नीच कुल को ले जाता है, वह गोत्र कर्म है ।
    2. जो उच्च-नीच का ज्ञान कराता है वह गोत्र कर्म है। (ध.पु., 13/387 )
    3. सन्तान क्रम से चला आया जो आचरण है उसकी गोत्र संज्ञा है । (गो.क., 13)


    विशेष- गोत्र, वंश, कुल और सन्तान ये सब एकार्थवाचक नाम हैं। (ध.पु., 6/77-78)


    16. गोत्र कर्म के कितने भेद हैं, परिभाषा सहित बताइए?
    गोत्र कर्म के दो भेद हैं उच्च गोत्र एक नीच गोत्र ।

    1. उच्च गोत्र - जिसके उदय से लोक पूजित महत्त्वशाली इक्ष्वाकु, उग्र, कुरु, हरि, ज्ञाति आदि वंशों में जन्म हो, वह उच्च गोत्र है। (त.वा.,8/11/2) विशेष- देव और भोगभूमिज मनुष्यों के उच्च गोत्र का ही उदय है, किन्तु कर्मभूमिज मनुष्यों में दोनों प्रकार के गोत्र वाले होते हैं ।
    2. नीच गोत्र- जिसके उदय से निन्द्य, दरिद्र, अप्रसिद्ध, और दु:खाकुल कुलों में जन्म हो, वह नीच गोत्र है। (त.वा.,8/11/3) विशेष - नारकी और तिर्यञ्च के नीच गोत्र का उदय रहता है, किन्तु आचार्य वीरसेन स्वामी (ध.पु., 15/152) के मतानुसार संयमासंयम को पालने वाले तिर्यञ्चों में उच्च गोत्र भी पाया जाता है ।


    17. अन्तराय कर्म किसे कहते हैं एवं इसके कितने भेद हैं?
    जो दान, लाभ, भोग, उपभोग एवं वीर्य में विघ्न डालता है, वह अन्तराय कर्म है। इसके पाँच भेद हैं ।

    दानान्तराय- जिसके उदय से दान देने की इच्छा होने पर भी दान न दे सके, वह दानान्तराय कर्म है ।

    लाभान्तराय - जिसके उदय से लाभ की इच्छा होने पर भी लाभ नहीं हो पाता वह लाभान्तराय कर्म है ।

    भोगान्तराय - जिसके उदय से भोगने की इच्छा होने पर भी भोग नहीं सकता है, वह भोगान्तराय कर्म है ।

    उपभोगान्तराय- जिसके उदय से उपभोग की इच्छा होने पर भी उपभोग नहीं कर सकता है, वह उपभोगान्तराय कर्म है ।
    वीर्यान्तराय - जिसके उदय से कार्य करने का उत्साह होने पर भी निरुत्साहित हो जाता है, वह वीर्यान्तराय कर्म है ।

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