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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 41 - गुणस्थान

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    Vidyasagar.Guru

    जिन सरस्वती खण्ड-1 में गुणस्थानों का वर्णन किया अब यहाँ (खण्ड-2 में ) विशेष रूप से गुणस्थानों का वर्णन किया जा रहा है ।


    1. गुणस्थान किसे कहते हैं?

    1. कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम, आदि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न होने वाले जिन परिणामों से युक्त जो जीव देखे जाते हैं, उन्हें सर्वदर्शियों ने गुणस्थान कहा है।( गो . जी.,8)
    2. मोह और योग के तारतम्य से आत्मा के जो परिणाम होते हैं उसे गुणस्थान कहते हैं ।


    2. गुणस्थान कितने होते हैं?
    गुणस्थान चौदह होते हैं-
    1. मिथ्यात्व, 2.सासादन सम्यक्त्व, 3. मिश्र या सम्यग्मिथ्यात्व, 4. अविरत सम्यक्त्व, 5. देशविरत या संयमासंयम, 6. प्रमत्तविरत, 7. अप्रमत्तविरत, 8. अपूर्वकरण, 9. अनिवृत्तिकरण, 10. सूक्ष्मसाम्पराय, 11. उपशान्तमोह, 12. क्षीणमोह, 13. सयोगकेवली, 14. अयोगकेवली ।


    3. गुणस्थान किनके होते हैं ?
    गुणस्थान संसारी जीवों के होते हैं।


    4. क्या सभी संसारी जीव गुणस्थान में ही पाए जाते हैं?
    हाँ, सभी संसारी जीव गुणस्थान में ही पाए जाते हैं। ऐसे कोई भी संसारी जीव नहीं है, जो प्रथम गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान में से किसी न किसी गुणस्थान में न पाए जाते हों।


    5. मिथ्यात्व गुणस्थान किसे कहते हैं?
    मिथ्यादर्शन के उदय से वशीकृत आत्मा मिथ्यादृष्टि है, अर्थात् जिसके मिथ्यादर्शन का उदय है, वह मिथ्यादृष्टि है (त.वा.,9/1/12/) जैसे- ज्वरयुक्त जीव को मधुर रस रुचता नहीं वैसे मिथ्यादृष्टि जीव को भी धर्म की बात अच्छी नहीं लगती है। मिथ्यादृष्टि जीवों के गुणस्थान को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। (गो.जी., 17 )


    6. पाँच प्रकार के मिथ्यात्व के नाम एवं स्वरूप बताइए?
    पाँच प्रकार के मिथ्यात्व के नाम क्रमशः एकान्त मिथ्यात्व, विपरीत मिथ्यात्व, संशय मिथ्यात्व, वैनयिक मिथ्यात्व, आज्ञानिक मिथ्यात्व ।

    1. एकान्त मिथ्यात्व - " यह ऐसा ही है, इसी प्रकार है"- इस तरह धर्म और धर्मी के विषय में एकान्त अभिप्राय रखना एकान्त मिथ्यात्व है । जैसे - यह सारा संसार ब्रह्मस्वरूप ही है, नित्य ही है, वा अनित्य ही है, आदि रूप से सर्वथा एकान्त की अवधारणा करना ।
    2. विपरीत मिथ्यात्व - परिग्रहधारी को निर्ग्रन्थ कहना, केवली को कवलाहारी कहना, स्त्री को मुक्ति हो सकती है आदि कथन व इस प्रकार की धारणा विपरीत मिथ्यात्व है । विशेष - धर्म और धर्मी के विषय में विपरीत (उल्टा) कथन रखना ( समझना ), श्रद्धान करना विपरीत मिथ्यात्व है ।
    3. संशय मिथ्यात्व - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र मोक्षमार्ग हो सकते हैं या नहीं, इस प्रकार संशय करना संशय मिथ्यात्व है ।
    4. वैनयिक मिथ्यात्व - सभी देवताओं और सभी शास्त्रों में बिना विवेक के समभाव रखना, सभी का समान विनय करना वैनयिक मिथ्यात्व है ।
    5. आज्ञानिकमिथ्यात्व - हित और अहित की परीक्षा का न होना अर्थात् हेयोपादेय के विवेक से शून्य हृदय काहोना आज्ञानिक मिथ्यात्व है। (त.वा. 8/1/28)


    7. मिथ्यात्व गुणस्थान की विशेषताएँ बताइए ?

    1. इस गुणस्थान में भव्य और अभव्य दोनों जीव रहते हैं ।
    2. मिथ्यादृष्टि मनुष्य और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च चारों गतियों में जन्म ले सकते हैं ।
    3. मिथ्यादृष्टि मुनि नवग्रैवेयक तक जन्म ले सकते हैं।
    4. लोकाकाश में ऐसा कोई प्रदेश नहीं हैं, जहाँ मिथ्यादृष्टि जीव न रहते हो ।


    8. मिथ्यादृष्टि जीवों के कितने भेद हैं ?
    मिथ्यादृष्टि जीवों के अनेक भेद हैं। -1. अनादि मिथ्यादृष्टि, 2. अनादि अनन्त मिथ्यादृष्टि, 3 अनादि सान्त मिथ्यादृष्टि 4.सादि सान्त मिथ्यादृष्टि 5. अगृहीत मिथ्यादृष्टि, 6. गृहीत मिथ्यादृष्टि, 7. सातिशय मिथ्यादृष्टि, 8. घातायुष्क मिथ्यादृष्टि, 9. लब्धोनलब्धिक मिथ्यादृष्टि, 10. वेदक सम्यक् प्राप्त योग्य मिथ्यादृष्टि, 11. 28 (मोहनीय) प्रकृति की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि, 12.27 मोहनीय प्रकृति की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि, 13. 26 मोहनीय प्रकृति की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि, 14. तीर्थङ्कर प्रकृति की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि, 15. अनन्तानुबन्धी कषाय रहित मिथ्यादृष्टि ।

     

    1. अनादि मिथ्यादृष्टि - जिस जीव के आज तक सम्यग्दर्शन प्राप्त न हुआ हो, उसे अनादि मिथ्यादृष्टि कहते हैं ।
    2. अनादिअनन्त मिथ्यादृष्टि - जिस जीव को न तो कभी सम्यग्दर्शन हुआ है और न आगे कभी प्राप्त होगा । ऐसे अभव्य एवं अभव्य समभव्य मिथ्यादृष्टि अनादि अनन्त मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं ।
    3. अनादिसान्त मिथ्यादृष्टि - जिन जीवों को आज तक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ किन्तु भविष्य में सम्यग्दर्शन प्राप्त होगा, वह अनादि सान्त मिथ्यादृष्टि है ।
    4. सादि सान्त मिथ्यादृष्टि - जिन जीवों ने पहले सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया हो किन्तु जो मिथ्यात्व कर्म उदय होने से पुन: मिथ्यात्व दशा को प्राप्त हो गए हैं, उन्हें सादि सान्त मिथ्यादृष्टि कहते हैं ।
    5. अगृहीत मिथ्यादृष्टि - परोपदेश के बिना मिथ्यादर्शन कर्म के उदय से जीवादि पदार्थों का अश्रद्धान रूप भाव होता है वह अगृहीत (नैसर्गिक) मिथ्यादर्शन है ।
    6. गृहीत मिथ्यादृष्टि - परोपदेश पूर्वक मिथ्यादर्शन कर्म के उदय से जीवादि पदार्थों का अश्रद्धान रूप होता है, गृहीत मिथ्यादर्शन है और वह जीव गृहीत मिथ्यादृष्टि है ।
    7. सातिशय मिथ्यादृष्टि - प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन के अभिमुख जीव सातिशय मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं । (ल.सा.जी.प्र., 230)
    8. घातायुष्क मिथ्यादृष्टि - किसी मनुष्य ( मुनि) ने अपनी संयम अवस्था में देवायु (बारहवें स्वर्ग से ऊपर) का बन्ध किया । पश्चात् संक्लेश परिणामों के निमित्त से संयम की विराधना कर दी और अपवर्तनाघात अर्थात् बद्धमान आयु का घात कर अधस्तन स्वर्गों (12 वें स्वर्ग तक) में उत्पन्न होता है । यदि वही पुरुष संयम की विराधना के साथ सम्यक्त्व की भी विराधना करता तो वह घातायुष्क मिथ्यादृष्टि कहलाता है । (ध.पु., 4/385 का विशेषार्थ)
    9. लब्धोनलब्धिक मिथ्यादृष्टि - मिथ्यात्व गुणस्थान में क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्य लब्धि हो जाती है। तथा पाँचवीं करणलब्धि में प्रवेश करके जो सम्यक्त्व के सम्मुख होता है, उसे लब्धोनलब्धिक मिथ्यादृष्टि कहते हैं ।
    10. वेदक सम्यक्त्व प्राप्त योग्य मिथ्यादृष्टि - वे सादि मिथ्यादृष्टि जिनकी सत्ता में सम्यक्त्वप्रकृति है अर्थात् सम्यक्त्वप्रकृति की उद्वेलना नहीं हुई है, उन्हें वेदक सम्यक्त्व प्राप्त योग्य मिथ्यादृष्टि कहते हैं ।
    11. 28 मोहनीय प्रकृति की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि - मिथ्यादृष्टि जीव जब मोहनीय कर्म की पाँच प्रकृतियों का अर्थात् अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ व मिथ्यात्व का उपशम करके प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करता है, तब मिथ्यात्व के तीन टुकड़े ( मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति) हो जाते हैं, कुछ वर्गणाएँ मिथ्यात्व रूप रहती हैं, कुछ सम्यग्मिथ्यात्व रूप रहती हैं और कुछ सम्यक्प्रकृति रूप रहती हैं। ये वर्गणाएँ प्रथमोपशम सम्यक्त्व का काल अन्तर्मुहूर्त पश्चात् यदि जीव मिथ्यात्व गुणस्थान में पहुँचता है, तब वह 28 प्रकृति की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि कहलाता है ।
    12. 27 मोहनीय प्रकृति की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि- 28मोहनीय प्रकृति की सत्ता वाला जीव जब मिथ्यात्व गुणस्थान में पल्य के असंख्यातवें भाग तक रहता है पश्चात् सम्यक्प्रकृति उद्वेलित (परिवर्तित) होकर सम्यग्मिथ्यात्व रूप हो जाती है, तब 27 मोहनीय प्रकृति की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि कहलाता है ।
    13. 26 मोहनीय प्रकृति की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि- 27 मोहनीय प्रकृति की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि जीव जब सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की उद्वेलना करके मिथ्यात्व रूप कर देता है, तब 26 मोहनीय प्रकृति की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि जीव कहलाता है। विशेष- अनादि मिथ्यादृष्टि जीव भी 26 मोहनीय प्रकृति की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि जीव कहलाता है ।
    14. तीर्थङ्कर प्रकृति की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि - किसी कर्मभूमि के मनुष्य ने मिथ्यात्व अवस्था में नरक आयु का बन्ध किया। तत्पश्चात् उपशम सम्यक्त्व या क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध किया । मरण से अन्तर्मुहूर्त पूर्व मिथ्यात्व में रहकर द्वितीय या तृतीय नरक में जाकर दो अन्तर्मुहूर्त (एक अन्तर्मुहूर्त पर्याप्ति पूर्ण दूसरे में विश्राम) मिथ्यात्व में रहा । ऐसे जीव तीर्थङ्कर प्रकृति की सत्तावाले मिथ्यादृष्टि जीव कहलाते हैं । वही जीव द्वितीय या तृतीय पृथ्वी में दो अन्तर्मुहूर्त पश्चात् क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर पुन: तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध प्रारम्भ कर लेता है ।
    15. अनन्तानुबन्धी कषाय रहित मिथ्यादृष्टि - जो जीव अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना करने के बाद एक आवली काल तक अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय बिना मिथ्यादृष्टि रहते हैं उन्हें अनन्तानुबन्धी कषाय रहित मिथ्यादृष्टि जीव कहते हैं ।


    9. अन्य अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि जीव के कितने भेद हैं ?
    मिथ्यादृष्टि जीव के तीन भेद हैं- अभव्य मिथ्यादृष्टि,भव्य मिथ्यादृष्टि और अभव्य सम भव्य मिथ्यादृष्टि ।

    1. अभव्य मिथ्यादृष्टि - जिसके सम्यग्दर्शनादि भाव प्रकट होने की योग्यता नहीं है उन्हें अभव्य मिथ्यादृष्टि कहते हैं, ऐसे जीव हमेशा मिथ्यात्व गुणस्थान में ही रहते हैं । (स.सि.,268)
    2. भव्य मिथ्यादृष्टि - जिसके सम्यग्दर्शन आदि भाव प्रकट होने की योग्यता है, उन्हें भव्य मिथ्यादृष्टि कहते हैं । (स.सि., 268)
    3. अभव्य सम भव्य ( दूरानुदूर भव्य ) मिथ्यादृष्टि - दूरानुदूर भव्य को सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती है । उनको भव्य इसलिए कहा गया है कि उनमें शक्ति रूप से तो संसार विनाश की शक्ति है, किन्तु उसकी मुक्ति नहीं होगी अर्थात् संसार नाश नहीं कर सकता। (ध.पु., 7/176)


    10. जो अनन्त काल में सिद्ध नहीं होगा उसे अभव्य ही कहना चाहिए?
    ऐसा नहीं है, क्योंकि कभी भी मोक्ष में नहीं जाने वालों का भी भव्यराशि में ही अन्तर्भाव होता है । जैसे कि उस स्वर्ण पाषाण को जो कभी भी सोना नहीं बनेगा अन्ध पाषाण नहीं कह सकते - क्योंकि उसमें स्वर्णपाषाणत्व शक्ति की योग्यता है । अथवा आगामी काल को जो अनन्त काल में भी नहीं आएगा। अनागामी (नहीं आने वाला) नहीं कह सकते, उसी प्रकार सिद्धि व्यक्त न होने पर भी भव्यत्व शक्ति की योग्यता से भव्य को अभव्य नहीं कहते ? वे भव्य राशि में आएंगे। (त.वा.,2/7/9)
    विशेष -

    1. अनेक वाहनों में लिखा रहता है रफ्तार 180 किलोमीटर प्रति घण्टा यह शक्ति है किन्तु इतनी रफ्तार से कोई चलाता नहीं अर्थात् उसकी व्यक्ति होगी नहीं।
    2. माचिस की पेटी में जो रोगन है यह शक्ति है किन्तु उसे कभी तीली का घर्षण मिलेगा नहीं अर्थात् उसकी व्यक्ति होगी नहीं।

     

    11. क्या भव्य जीव कभी अभव्य हो सकते हैं?
    नहीं । भव्य कभी अभव्य नहीं हो सकते हैं और न अभव्य कभी भव्य हो सकते हैं I

     

    12. मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्य एवं उत्कृष्ट काल कितना है ?
    मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट काल तीन प्रकार से है-

    1. अनादि अनन्त - यह अभव्य जीव की अपेक्षा है जो अनादि काल से मिथ्यात्व में है और अनन्त काल तक मिथ्यात्व में रहेगा।
    2. अनादि सान्त - यह भव्य मिथ्यादृष्टि जीव की अपेक्षा से है जो अनादि काल से मिथ्यात्व में है किन्तु उसको आगे नियम से सम्यग्दर्शन प्राप्त होगा, वह संसार का अन्त करेगा।
    3. सादि सान्त- यह भी भव्य मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से है जिसने सम्यग्दर्शन प्राप्त तो कर लिया किन्तु अभी मिथ्यात्व में है। पुनः सम्यग्दर्शन प्राप्त करेगा यह सादि सान्त है । इसका जघन्य व उत्कृष्ट काल क्रमश: अन्तर्मुहूर्त व कुछ कम अर्द्धपुद्गल परावर्तन है।

     

    13. अनादि मिथ्यादृष्टि जीव सर्वप्रथम कौन सा सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है ?
    अनादि मिथ्यादृष्टि जीव सर्वप्रथम प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है ।


    14. क्या अनादि मिथ्यादृष्टि संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च सम्मूर्च्छन प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है ?
    नहीं ।


    15. सादि मिथ्यादृष्टि संज्ञी पञ्चेन्द्रिय सम्मूर्च्छन तिर्यञ्च कौन-सा सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है ?

    क्षयोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है किन्तु पूर्व में प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त किया था ।


    16. अनादि मिथ्यादृष्टि क्षयोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त क्यों नहीं कर सकता ?
    क्योंकि क्षयोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए सत्ता में सम्यक्प्रकृति का होना अनिवार्य है। यह सादि मिथ्यादृष्टि के और उसमें भी जिसने सम्यक्प्रकृति की उद्वेलना नहीं की हो उसे ही हो सकता है इसलिए अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को क्षयोपशम सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता ।


    17. वे कौन से जीव है जो नियम से मिथ्यात्व गुणस्थान में ही रहते हैं ?
    सभी अर्थात् 850 म्लेच्छ खण्ड के जीव, दूसरी पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी के नारकी निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में, एकेन्द्रिय से असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक के जीव, भवनत्रिक में जन्म लेने के अन्तर्मुहूर्त काल तक के सभी देव-देवियाँ लब्ध्यपर्याप्तक मुनष्य, अभव्य सम भव्य जीव नियम से मिथ्यात्व गुणस्थान में ही रहते हैं ।


    18. मिथ्यात्व गुणस्थान से छूटने के उपाय क्या हैं ?
    मिथ्यात्व गुणस्थान से छूटने के उपाय निम्नांकित हैं—

    1. सच्चे देव शास्त्र गुरु पर सच्चा श्रद्धान रखना चाहिए।
    2. सात तत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धान करना ।
    3. आत्मा से शरीर को पृथक् मानना ।
    4. सत्संगति करना, तीर्थयात्रा करना, स्वाध्याय करना, वैयावृत्ति (सेवा) करना, सच्चे देव के दर्शन पूजन करना आदि से शुभोपयोग रूप प्रवृत्ति करते रहना चाहिए।


    19. मिथ्यात्व गुणस्थान में कितने जीव हैं ?
    मिथ्यात्व गुणस्थान में अनन्तानन्त जीव हैं ।


    20. सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान किसे कहते हैं?
    आसादन अर्थात् विराधना से सहित गुणस्थान को सासादन गुणस्थान कहते हैं । प्रथमोपशम सम्यक्त्व अथवा द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के काल में कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छ: आवली शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी कषाय के चार में से किसी एक कषाय के उदय आने पर उपशम सम्यक्त्व से च्युत होने पर और मिथ्यात्व प्रकृति के उदय न होने से मध्य के काल में जो परिणाम होते हैं उसे सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान कहते हैं । (गो.जी.जी., 19)
    उदाहरण -

    1. मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी का उपशम अन्तर्मुहूर्त के लिए होता है, इसमें मिथ्यात्व तो सीधी-साधी प्रकृति है जो अन्तर्मुहूर्त के बाद ही उदय में आती है किन्तु अनन्तानुबन्धी एक समय से लेकर छ:आवली के बीच में उदय आ जाती है । तब सासादन गुणस्थान बनता है । जैसे राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री का चुनाव पाँच वर्ष के लिए होता हैं, राष्ट्रपति मिथ्यात्व के समान है जो पाँच वर्ष के बाद ही नीचे आएगा किन्तु प्रधानमन्त्री अनन्तानुबन्धी के समान जो पाँच वर्ष के पहले भी नीचे आ सकता है ।
    2. जो फल वृक्ष रूपी सम्यक्त्व से गिरा है किन्तु अभी वह मिथ्यात्व रूपी भूमि पर आया नहीं है, बीच में वह सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान है ।


    21. सासादन गुणस्थान का नाम सासादन सम्यक्त्व क्यों है ?
    भूतपूर्वनय की अपेक्षा क्योंकि उसके पास पहले सम्यक्त्व था इसलिए सासादन गुणस्थान का नाम सासादन सम्यक्त्व हुआ, क्योंकि सम्यक्त्व की आसादना की है ।


    22. सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान की विशेषताएँ बताइए ?

    1. इस गुणस्थान वाला नियम से प्रथम गुणस्थान में आता है ।
    2. यह गुणस्थान चारों गति के जीवों को हो सकता है
    3. यह गुणस्थान वाला मरणकर नरक नहीं जाता है अर्थात् नरक गति की अपर्याप्त अवस्था में सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान नहीं होता है किन्तु पर्याप्त अवस्था में नरक गति में चार गुणस्थान होते हैं ।
    4. इस गुणस्थान वाला नियम से भव्य होता है ।
    5. तीर्थङ्कर की सत्ता वाला जीव इस गुणस्थान में नहीं आता है ।
    6. आहारकद्विक की सत्ता वाला जीव इस गुणस्थान में आता भी है और नहीं भी आता इस प्रकार दो मत हैं ।
    7. इस गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं किन्तु अनन्तानुबन्धी का उदय है ।
    8. सासादन सम्यक्त्व अन्तर मार्गणा है अर्थात् कभी ऐसा समय आ सकता जब एक भी जीव इस गुणस्थान में न हो ।
    9. इस गुणस्थान में मरण करने वाले जीव अपर्याप्त अवस्था अर्थात् औदारिक मिश्र काययोग एवं वैक्रियिक मिश्र काययोग में ही मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त कर लेते हैं ।
    10. एकेन्द्रिय से असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक आचार्य यतिवृषभ के मतानुसार अपर्याप्त अवस्था में दूसरा गुणस्थान भी होता है ।


    विशेष- कर्मभूमि के किसी मनुष्य, तिर्यञ्च या दूसरे स्वर्ग तक के देव (यह सभी एकेन्द्रिय में उत्पन्न होते हैं) मिथ्यात्व अवस्था में तिर्यञ्च आयु (एकेन्द्रिय से असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक) का बन्ध किया और बाद में प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त किया और दूसरे गुणस्थान में कुछ समय रहकर मरण को प्राप्त किया और विग्रह गति एवं औदारिक मिश्र काययोग में गुणस्थान दूसरे में रहा है और औदारिक मिश्र काययोग में ही प्रथम गुणस्थान को प्राप्त हुआ । इस तरह एकेन्द्रिय से असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक अपर्याप्त अवस्था में सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान होता है ।


    23. सासादन सम्यक्त्व गुणस्थानवर्ती जीव के कितने भेद हैं?

    1. प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन से च्युत सासादन सम्यग्दृष्टि ।
    2. द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन से च्युत सासादन सम्यग्दृष्टि ।
    3. अपर्याप्त अवस्था प्राप्त सासादन सम्यग्दृष्टि |


    24. प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन से च्युत सासादन सम्यग्दृष्टि किसे कहते हैं ?
    जो जीव प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन से च्युत होकर सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान में पहुँचते हैं वे प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन से च्युत सासादन सम्यग्दृष्टि कहलाते हैं।


    25. द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन च्युत सासादन सम्यग्दृष्टि किसे कहते हैं?
    जो जीव द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन से च्युत होकर सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान में पहुँचते हैं वे द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन च्युत सासादन सम्यग्दृष्टि कहलाते हैं ।


    26. अपर्याप्त अवस्था प्राप्त सासादन सम्यग्दृष्टि किसे कहते हैं?
    यदि किसी सासादन सम्यग्दृष्टि का मरण हो गया, सासादन सम्यक्त्व के साथ तो वह कार्मण काययोग में एवं जब तक औदारिक मिश्र काय योग या वैक्रियक मिश्र काययोग में हैं । तब तक वह अपर्याप्त अवस्था प्राप्त सासादन सम्यग्दृष्टि कहलाता है।


    27. क्या सभी औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव को सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान में आना अनिवार्य है ?
    सभी औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीवों को सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान में आना अनिवार्य नहीं है । यदि किसी औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव के मिथ्यात्व का उदय आ गया हो तो वह मिथ्यात्व गुणस्थान में जाएगा। यदि सम्यग्मिथ्यात्व का उदय आए तो वह तृतीय गुणस्थान में जाएगा । यदि सम्यक्प्रकृति का उदय आए तो वह क्षयोपशम सम्यकत्व को प्राप्त होगा और यदि मिथ्यात्व के बिना अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ में से एक का उदय आए तो वह सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान को प्राप्त होगा ।

     

    28. क्या द्वितीय गुणस्थान का काल औपशमिक सम्यग्दर्शन का काल है ?
    द्वितीय गुणस्थान का काल औपशमिक सम्यग्दर्शन का काल नहीं है, न मिथ्यादर्शन का काल है। बल्कि मिथ्यादर्शन के उपशम का काल है । मिथ्यादर्शन का उपशम होना और सम्यग्दर्शन का उदय होना दोनों में बहुत अन्तर है। द्वितीय गुणस्थान के काल को औपशमिक सम्यक्त्व का काल मानने से निम्नांकित बाधा आएंगी ।

    1. यदि सम्यग्दर्शन है तो कौन सा ? क्षायिक तो होगा नहीं, यदि औपशमिक मानोगे तो औपशमिक भाव मानना पड़ेगा जबकि द्वितीय गुणस्थान में दर्शनमोह की अपेक्षा पारिणामिक भाव है।
    2. औपशमिक सम्यग्दर्शन के साथ किसी भी आयु का बन्ध नहीं होता है, जबकि द्वितीय गुणस्थान में तीन आयु का बन्ध होता है, अत: वह औपशमिक सम्यग्दर्शन का काल नहीं है I
    3. अनन्तानुबन्धी और औपशमिक सम्यक्त्व दोनों में विरोध है। दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते हैं ।

     

    29. सासादन सम्यक्त्व कौन-सा भाव है ?
    सासादन सम्यक्त्व पारिणामिक भाव है । सासादन सम्यक्त्व क्षायिक भाव नहीं हैं, क्योंकि दर्शनमोहनीय के क्षय से उसकी उत्पत्ति नहीं होती । क्षायोपशमिक भाव भी नहीं है, क्योंकि दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय के देशघाती स्पर्द्धकों से उसकी उत्पत्ति नहीं होती । औदयिक भाव भी नहीं है, क्योंकि सासादन सम्यक्त्व दर्शनमोहनीय के उदय से नहीं होता ।


    30. द्वितीय गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि संज्ञा क्यों नहीं दी गई ?
    मिथ्यादृष्टि संज्ञा नहीं दी गई क्योंकि सासादन को स्वतन्त्र कहने से अनन्तानुबन्धी प्रकृतियों की द्विस्वभावता का कथन सिद्ध हो जाता है।


    दर्शनमोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से सासादनरूप परिणाम उत्पन्न नहीं होता, इसलिए सासादन को मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं कहा गया। जिस अनन्तानुबन्धी के उदय से द्वितीयगुणस्थान में जो विपरीताभिनिवेश होता है, वह अनन्तानुबन्धी दर्शनमोहनीय का भेद न होकर चारित्र का आवरण होने से चारित्र मोहनीय का भेद है।


    31. अनन्तानुबन्धी कषाय द्विस्वभाव वाली किस प्रकार से है, उदाहरण सहित समझाइए ?

    अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व का घात करती और अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों का अनन्त प्रवाह बनाए रखती है ।


    उदाहरण - एक दादाजी के तीन पोते । एक दिन दादाजी से कहते आप हम लोगों के साथ खेल के मैदान चलिए । हम लोगों को क्रिकेट खेलना है। बड़े लड़के खेलने नहीं देते। दादाजी कहते मैं क्या करूँगा? आप कुछ नहीं करना मात्र बैठे रहना । हम लोग खेलेंगे | दादाजी के साथ तीन पोते खेल के मैदान में खेलते रहे। बड़े लड़कों ने परेशान भी नहीं किया और जो आए भी तो दादाजी को देखकर वापस चले गए कि आज कोई बड़ा बैठा है ।


    दादाजी अनन्तानुबन्धी जो तीनों पोतों (अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन) के खेल का प्रवाह बनाए रखे हैं। दादाजी जाए तो खेल समाप्त । बड़े लड़कों का खेल के मैदान में नहीं आना ही उनका (सम्यग्दर्शन का ) घात है ।


    32. इस गुणस्थान से जीव कहाँ जाते हैं ?
    इस गुणस्थान से जीव मात्र प्रथम गुणस्थान में जाते हैं ।


    33. सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान में जीव कहाँ-कहाँ से आते हैं?
    अविरत सम्यक्त्व, देशविरत एवं प्रमत्तविरत गुणस्थानवर्ती उपशम सम्यग्दृष्टि जीव ही सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान में आते हैं ।


    34. सम्यग्मिथ्यात्व या मिश्र गुणस्थान किसे कहते हैं?

    1. पूर्व स्वीकृत अन्य देवता के अपरित्याग के साथ-साथ अरिहंत भी देव हैं ऐसा अभिप्राय: वाला पुरुष मिश्र गुणस्थान वाला है। (ध.पु., 1/168) जैसे- बालिका का विवाह होने के बाद भी मायका (पीहर) नहीं छूटता ।
    2. जिस गुणस्थान में सम्यक् और मिथ्यारूप मिश्रित श्रद्धान पाया जाए, उसे सम्यग्मिथ्यात्व या मिश्र गुणस्थान कहते हैं। (ध.पु., 1/167)
    3. दाल और चावल मिश्रित स्वाद खिचड़ी के समान सम्यक्त्व और मिथ्यात्व से मिश्रित भाव को सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं।


    35. तृतीय गुणस्थान में समीचीन और असमीचीन श्रद्धा एक साथ कैसे बनती है ? उदाहरण द्वारा बताइए?
    जैसे- किसी पुरुष को किसी पुरुष से शत्रुता और किसी से मित्रता तो शत्रुता और मित्रता दोनों प्रकार के भाव एक पुरुष में सम्भव हैं । उसी प्रकार तत्त्व और अतत्त्व श्रद्धान रूप दोनों भाव एक जीव में सम्भव हैं।


    36. सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान की विशेषताएँ बताइए?

    1. इस गुणस्थान में मरण नहीं होता है ।
    2. इस गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्धात नहीं होता है ।
    3. इस गुणस्थान में आयुबन्ध भी नहीं होता है ।
    4. इस गुणस्थान वाला संयम को प्राप्त नहीं कर सकता हैं। (ध.पु., 4/349)
    5. सादि मिथ्यादृष्टि जीव इस गुणस्थान को प्राप्त कर सकता है ।अनादि मिथ्यादृष्टि जीव नहीं क्योंकि उसकी सत्ता में सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का सत्व नहीं है ।
    6. इस गुणस्थान में मिश्र ज्ञान होते हैं।
    7. सम्यग्मिथ्यात्व अन्तर मार्गणा है अर्थात् कम से कम एक समय और अधिक से अधिक पल्य के असंख्यातवें भाग काल तक ऐसा हो सकता है कि कोई भी सम्यग्मिथ्यादृष्टि न हो ।
    8. तीर्थङ्कर प्रकृति की सत्ता वाला जीव इस गुणस्थान को प्राप्त नहीं होता ।

     

    37. सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान से किन गुणस्थानों को प्राप्त होते हैं?
    इस गुणस्थान से चतुर्थ एवं प्रथम गुणस्थान को प्राप्त होते हैं।


    38. सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में कहाँ से आते हैं ?
    सादि मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व गुणस्थान से सीधा तीसरे गुणस्थान में आ सकता हैं । चतुर्थ, पञ्चम एवं छठवें गुणस्थानवर्ती तृतीय गुणस्थान में आ सकते हैं।


    39. सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्य एवं उत्कृष्ट काल कितना है?
    मात्र अन्तर्मुहूर्त ।


    40. सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान के कितने भेद हैं?

    1. प्रथमोपशम सम्यक्त्व आगत सम्यग्मिथ्यादृष्टि ।
    2. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व आगत सम्यग्मिथ्यादृष्टि ।
    3. वेदक योग्य मिथ्यात्व आगत सम्यग्मिथ्यादृष्टि ।
    4. क्षयोपशम सम्यक्त्व आगत सम्यग्मिथ्यादृष्टि |
    5. 28 मोहनीय प्रकृति की सत्ता वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि ।
    6. 24 मोहनीय प्रकृति की सत्ता वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि ।


    41. प्रथमोपशम सम्यक्त्व आगत सम्यग्मिथ्यादृष्टि किसे कहते हैं?
    जो जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर तृतीय (सम्यग्मिथ्यात्व ) गुणस्थान में आते हैं वे प्रथमोपशम सम्यक्त्व आगत सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं ।


    42. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व आगत सम्यमिथ्यादृष्टि किसे कहते हैं?
    जो जीव द्वितीयोपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर तृतीय गुणस्थान में आते हैं । वे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व आगत सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहते हैं ।


    43. वेदक प्रायोग्य मिथ्यात्व आगत सम्यग्मिथ्यादृष्टि किसे कहते हैं?
    जो जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने के बाद मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं, ऐसे जीवों की सत्ता में अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व एवं सम्यक्प्रकृति का सत्व पाया जाता है, जिनके वेदक प्रायोग्य काल के अन्दर सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय आ जावे उन्हें वेदक प्रायोग्य मिथ्यात्व आगत सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहते हैं ।


    44. क्षयोपशम सम्यक्त्व आगत सम्यग्मिथ्यादृष्टि किसे कहते हैं?
    जो क्षयोपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में आते हैं, उन्हें क्षयोपशम सम्यक्त्व आगत सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहते हैं ।


    45. 28 मोहनीय प्रकृति की सत्तावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि किसे कहते हैं ?
    28 मोहनीय प्रकृति की सत्ता वाले सादि मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि ( गुणस्थान 4, 5, 6 ) जीवों के सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय आता है, उन्हें 28मोहनीय प्रकृति की सत्ता वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहते हैं।


    46. मोहनीय प्रकृति की सत्ता वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि किसे कहते हैं?
    जिन जीवों ने अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना की है। ऐसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व से गिरकर सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय आया है, उन्हें 28 प्रकृति की सत्ता वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहते हैं ।

     

    47. सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान किन जीवों के हो सकता है?
    चारों गति के संज्ञी पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्तक भव्य जीवों को सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान हो सकता है।

     

    48. सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान वाले जीव का किस गुणस्थान में मरण होता है ?
    मिथ्यात्व गुणस्थान में या अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान में ।


    विशेष- जिस गुणस्थान (प्रथम या चतुर्थ) में आयुबन्ध किया है वहीं मरण करेगा । (गो. जी.,.23)


    49. तृतीय गुणस्थान से चतुर्थ गुणस्थान में जाने वाला जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है?
    नहीं। तृतीय गुणस्थान वाला क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है। प्रथमोपशम तो मात्र मिथ्यादृष्टि ही प्राप्त करता है ।


    50. अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान किसे कहते हैं?
    जहाँ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व एवं सम्यक्प्रकृति के उपशम क्षय, क्षयोपशम से श्रद्धा गुण तो प्रगट हो गया है। किन्तु एक देश या सर्वदेश किसी प्रकार का व्रत नहीं हुआ है। तथा जो इन्द्रियों के विषयों से विरक्त नहीं है और सच्चे देव, शास्त्र, गुरु एवं सात तत्त्वों पर अटल श्रद्धान करता है, उसे अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान कहते हैं ।


    51. अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान की क्या विशेषताएँ हैं ?

    1. चतुर्थ गुणस्थान में जीव जघन्य अन्तरात्मा की संज्ञा प्राप्त हो जाती है ।
    2. इस गुणस्थान में तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध प्रारम्भ हो सकता है किन्तु तीर्थङ्कर प्रकृति के बन्ध का प्रारम्भ कर्मभूमि का मनुष्य ही करता है।
    3. यह गुणस्थान चारों गतियों के जीवों को प्राप्त हो सकता है
    4. नव अनुदिश एवं पञ्च अनुत्तर विमानों के देवों में मात्र चतुर्थ गुणस्थान ही होता है ।
    5. इस गुणस्थान में औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव पाए जाते हैं ।
    6. इस गुणस्थान के प्राप्त होने पर संसार मात्र अर्द्धपुद्गल परावर्तन शेष रह जाता है ।
    7. इस गुणस्थान वाला मनुष्य, तिर्यञ्च मरण करके वैमानिक देवों में ही उत्पन्न होता है। यदि किसी मनुष्य ने मिथ्यात्व अवस्था में मनुष्य, तिर्यञ्च या नरक आयु का बन्ध किया है तथा बाद में क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त किया तो वह भोगभूमि का मनुष्य या तिर्यञ्च बनेगा । और नरक आयु का बन्ध करने वाला प्रथम नरक का नारकी बनेगा ।
    8. इस गुणस्थान वाला देव या नारकी मरण करके कर्मभूमि के मनुष्यों में जन्म लेता है ।
    9. सम्यग्दृष्टि जीव आचार्यों द्वारा उपदिष्ट पदार्थों का श्रद्धान करता है किन्तु अज्ञानता वश या गुरु उपदेश से, पदार्थ के विपरीत अर्थ को भी स्वीकार कर ले तो मिथ्यादृष्टि नहीं होगा। (गो.जी., 27 )
    10. सम्यग्दृष्टि को जब समीचीन सूत्र दिखाकर आचार्य आदि के समझाने पर भी यदि वह अपनी विपरीत मान्यता नहीं छोड़ता तो वह उसी समय से मिथ्यादृष्टि बन जाता है । ( गो . जी., 28 )
    11. यह गुणस्थान चारों गतियों की अपर्याप्त अवस्था में भी होता है।


    52. अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान से किन गुणस्थानों को प्राप्त कर सकते हैं?

    1. इस गुणस्थान से पञ्चम गुणस्थान में जा सकते हैं । किन्तु कर्मभूमि के मनुष्य एवं तिर्यञ्च ही इस गुणस्थान को प्राप्त कर सकते हैं।
    2. इस गुणस्थानवर्ती के यदि सम्यग्मिथ्यात्व का उदय आ जावे तो तृतीय गुणस्थान को प्राप्त हो सकते हैं ।
    3. इस गुणस्थान से सप्तम गुणस्थाम में जा सकते हैं । किन्तु ऐसे जीव कर्मभूमि के मनुष्य ही होते हैं ।
    4. इस गुणस्थानवर्ती के अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी एक कषाय का उदय आ जावे तो द्वितीय गुणस्थान को प्राप्त कर सकते हैं। विशेष- उपशम सम्यग्दृष्टि ही सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान में आते हैं ।
    5. इस गुणस्थानवर्ती के यदि मिथ्यात्व प्रकृति का उदय आ जावे तो प्रथम गुणस्थान में जाते हैं ।


    53. अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान में किन गुणस्थानों से आ सकते हैं?

    1. मिथ्यात्व गुणस्थान से सीधे चतुर्थ गुणस्थान में आ सकते हैं ।
    2. तृतीय गुणस्थान से चतुर्थ गुणस्थान में आ सकते हैं ।
    3. पञ्चम गुणस्थान से गिरकर चतुर्थ गुणस्थान में आ सकते हैं
    4. छठवें गुणस्थान से गिरकर चतुर्थ गुणस्थान में आ सकते हैं ।
    5. सातवें, आठवें, नववें, दशवें, ग्यारहवें गुणस्थानों से मरण कर चतुर्थ गुणस्थान में आ सकते हैं ।

     

    विशेष- पाँचवें एवं छठवें गुणस्थान से भी मरण कर चतुर्थ गुणस्थान में आ सकते हैं ।


    54. अविरत सम्यग्दृष्टि का जघन्य एवं उत्कृष्ट काल कितना है ?
    अविरत सम्यग्दृष्टि का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट काल एक समय कम 33 सागर एवं 9 अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि।


    विशेष- एक प्रमत्तसंयत अथवा अप्रमत्तसंयत अथवा चारों उपशामकों में से कोई एक उपशामक जीव एक समय कम 33 हजार आयु की स्थिति वाले अनुत्तर विमानवासी देवों में उत्पन्न हुआ और इस प्रकार असंयम सहित सम्यक्त्व की आदि हुई । इसके पश्चात् वहाँ से च्युत होकर पूर्व कोटि वर्ष की आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ वहाँ वह 9 अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयु के शेष रह जाने तक असंयत सम्यग्दृष्टि होकर रहा। तत्पश्चात् अप्रमत्त भाव से संयम को प्राप्त हुआ (1) पुन: प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानों में सहस्रों परिवर्तन करके (2), क्षपक श्रेणी के प्रायोग्य विशुद्धि से विशुद्ध हो, अप्रमत्त संयत हुआ (3), पुन: अपूर्वकरण क्षपक (4), अनिवृत्तिकरण क्षपक (5), सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक ( 6 ), क्षीणमोह वीतराग छद्ममस्थ (7), सयोग केवली (8), और अयोग केवली ( 9 ) अन्तर्मुहूर्त होकर सिद्ध हो गया । (ध.पु.,4/347-348)


    55. चतुर्थ गुणस्थानवर्ती उपशम सम्यग्दृष्टि का जघन्य एवं उत्कृष्टकाल कितना है?
    उपशम सम्यग्दृष्टि का जघन्य काल छ: आवली कम अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।

     

    56. चतुर्थ गुणस्थानवर्ती क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि का जघन्य एवं उत्कृष्ट काल कितना है ?

    क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट काल 66 सागर हैं ।


    57. चतुर्थ गुणस्थानवर्ती क्षायिक सम्यग्दृष्टि का जघन्य काल एवं उत्कृष्ट काल कितना है ?

    चतुर्थ गुणस्थानवर्ती क्षायिक सम्यग्दृष्टि का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट काल एक समय कम 33 सागर एवं 9 अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि ।


    58. सम्यग्दर्शन किसे कहते है ?

    1. सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का तीन मूढ़ता व आठ मद से रहित और आठ अङ्ग सहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।
    2. आप्त, आगम और तत्त्वों का शंकादि दोष रहित जो अति निर्मल श्रद्धान होता है, उसे सम्यग्दर्शन जानना चाहिये।(व.श्रा., 6)


    59. सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिये क्या योग्यता होना चाहिए ?
    भव्य, संज्ञी पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्तक, जागृत अवस्था, साकार उपयोग वाले जीव को ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो सकती है ।


    विशेष- इन योग्यताओं के नहीं होने पर सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता किन्तु इन योग्यताओं के होने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो ही जावे यह आवश्यक नहीं है।


    60. जन्म लेने के कितने समय बाद किन-किन जीवों को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो सकता है ?
    जन्म लेते ही किसी को भी सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता है। भिन्न-भिन्न जीवों को निम्नाङ्कित समयों के बाद सम्यग्दर्शन प्राप्त हो सकता है।

    जैसे -

    1. कर्मभूमि का गर्भज मनुष्य - 8 वर्ष अन्तर्मुहूर्त के बाद
    2. कर्म भूमि के तिर्यञ्च (सम्मूर्च्छन) जन्म के तीन अन्तर्मुहूर्त बाद । विशेष- यह अन्तर्मुहुर्त काल में सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त हो पुनः अन्तर्मुहूर्त विश्राम करता हुआ एवं एक अन्तर्मुहूर्त में विशुद्ध होकर सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है
    3. कर्मभूमि का तिर्यञ्च (गर्भज) - गर्भकाल के बाद अर्थात् जिसका जितना गर्भकाल हो कम से कम 1.5 माह, अधिकतम 12 माह तक ।
    4. उत्तम भोगभूमि के मनुष्य तिर्यञ्च - 21 दिन बाद ।
    5. मध्यम भोगभूमि के मनुष्य- तिर्यञ्च - 35 दिन बाद ।
    6. जघन्य भोगभूमि के मनुष्य - तिर्यञ्च - 49 दिन बाद ।
    7. देवगति में - जन्म के तीन अन्तर्मुहूर्त बाद ।
    8. नरक गति में -जन्म के तीन अन्तर्मुहूर्त बाद। (ध.पु., 4/362)

     

    61. सम्यग्दृष्टि की पहचान किन भावों से होती है ?
    सम्यग्दृष्टि की पहचान चार भावों से होती है-
    1. प्रशम, 2. संवेग, 3. अनुकम्पा, 4. आस्तिक्य।

     

    1. प्रशम - रागादि की तीव्रता का न होना । विशेष- प्रतिकूल निमित्तों के मिलने पर भी अपने परिणामों को क्रोधादिक कषाय रूप नहीं करना प्रशम भाव है।
    2. संवेग - संसार से भयभीत होना । विशेष- पञ्चेन्द्रिय के विषयों से उदासीन होकर संसार से निरन्तर भीति (डर) होना, संयम मार्ग के प्रति हमेशा उत्साहित रहना, मोक्ष का अभिलाषी रहना संवेग भाव है ।
    3. अनुकम्पा - प्राणी मात्र में मैत्रीभाव रखना । विशेष- मन-वचन-काय की क्रिया से किसी भी जीव को दुःख नहीं पहुँचाना। दुःखी जीवों के दुःख दूर करने के लिए उनके लिए भोजन दान, औषधि दान एवं उनके लिए आजीविका के साधन देना उनके बच्चों के लिए पढ़ाई आदि के लिए धन से भी सहायता करना अनुकम्पा भाव है ।
    4. आस्तिक्य- " जीवादि पदार्थ हैं " ऐसी बुद्धि का होना । विशेष- सच्चे देव शास्त्र गुरु और तत्त्व के विषय में ये ऐसे ही हैं, इसी प्रकार से हैं अन्य प्रकार से नहीं, अन्य नहीं है। ऐसी दृढ़ आस्था का भाव रखना आस्तिक्य भाव है।


    62. सम्यग्दृष्टि जीव कौन सी भावना भाता है ?
    सम्यग्दृष्टि जीव चार भावनाएँ भाता है-

    1. मैत्री भावना - दूसरों को दुःख न हो ऐसी अभिलाषा रखना मैत्री भावना है ।
    2. प्रमोद भावना - गुणीजनों को देखकर मुख की प्रसन्नता आदि के द्वारा भीतर भक्ति और अनुराग का व्यक्त होना प्रमोद भावना है|
    3. कारुण्य भावना - दुःखी जनों को देखकर दया का भाव होना कारुण्य भावना है ।
    4. माध्यस्थ भावना- धर्म वे विपरीत प्रवृत्ति रखने वाले जीवों के प्रति माध्यस्थ भाव रखना माध्यस्थ भावना है। माध्यस्थ भाव में न उसकी प्रशंसा और न निन्दा होती है ।


    63. क्या सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिये अणुव्रत, महाव्रत प्राप्त करना अनिवार्य हैं ?
    नहीं । सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए अणुव्रत, महाव्रत प्राप्त करना अनिवार्य नहीं है ।
    विशेष- सम्यग्दृष्टि जीव हमेशा भावना रखता है कि मैं व्रत कब धारण करूँ । जब तक वह महाव्रती नहीं बनता तब तक वह वैसे ही छटपटाता है जैसे जल के बिना मछली । जो महाव्रती नहीं बन सकते वे अणुव्रती बनकर सन्तोष कर लेते हैं।


    64. अणुव्रत, महाव्रत बन्ध के कारण हैं क्या ?
    नहीं । अणुव्रत, महाव्रत तो संवर, निर्जरा के कारण हैं किन्तु अणुव्रती और महाव्रती के पास प्रमाद, कषाय, योग होते हैं इस कारण व्रती को बन्ध होता हैं ।


    65. देशविरत या संयमासंयम गुणस्थान किसे कहते हैं?
    जहाँ सम्यग्दर्शन के साथ पाँच पाप का स्थूल रूप से त्याग है, उसे देशविरत, संयमासंयम या विरताविरत गुणस्थान कहते हैं ।


    66. देशविरत गुणस्थान की विशेषताएँ बताइए?

    1. इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी एवं अप्रत्याख्यावरण कषाय का उदय न होने से देशसंयम पाया जाता है ।
    2. यह गुणस्थान कर्मभूमि के मनुष्य व तिर्यञ्च प्राप्त कर सकते हैं ।
    3. मनुष्यगति में आठ वर्ष और एक अन्तर्मुहूर्त के बाद इस गुणस्थान को प्राप्त कर सकते ।
    4. तिर्यञ्चगति (गर्भज) में गर्भकाल के बाद अर्थात् जिसका जितना गर्भकाल है अर्थात् (कम से कम 1.5 माह, अधिकतम 12 माह ) इसके बाद इस गुणस्थान को प्राप्त कर सकते हैं ।
    5. तिर्यञ्च गति( संज्ञी पञ्चेन्द्रिय सम्मूर्च्छन) जन्म के तीन अन्तर्मुहूर्त बाद इस गुणस्थान को प्राप्त कर सकते हैं ।
    6. भोगभूमि के मनुष्य व तिर्यञ्च इस गुणस्थानको प्राप्त नहीं कर सकते हैं ।
    7. इस गुणस्थान में पाँच पापों का स्थूल त्याग होता है जैसे -हिंसा पाप में त्रस हिंसा का त्याग होता है। स्थावर हिंसा का त्याग नहीं ।
    8. क्षायिक सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च इस गुणस्थान को प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि क्षायिक सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च भोगभूमि में पाए जाते हैं। और वहाँ गुणस्थान 1 से 4 तक होते हैं । तथा कर्मभूमि के तिर्यञ्चों में गुणस्थान 1 से 5 तक किन्तु यहाँ के तिर्यञ्चों में क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता हैं।
    9. इस गुणस्थान के साथ जन्म नहीं होता हैं ।
    10. इस गुणस्थान वाले जीव मरण करके वैमानिक देवों में ही उत्पन्न होते हैं ।
    11. जिन जीवों ने आगामी नरक, तिर्यञ्च या मनुष्य आयु का बन्ध कर लिया है वे जीव इस गुणस्थान को प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
    12. इस गुणस्थान में प्रतिसमय असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होती है।
    13. आर्यिकाएँ, एलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका, प्रतिमाधारी श्रावक, श्राविकाओं का यह गुणस्थान होता है ।
    14. अपर्याप्त दशा में यह गुणस्थान नहीं होता है।
    15. स्वयम्भूरमण समुद्र व विजयार्द्ध पर्वत पर भी इस गुणस्थानवर्ती जीव पाए जाते हैं।
    16. दर्शनादि प्रतिमाओं की अपेक्षा इसके ग्यारह भेद हैं ।
    17. ऐसा कभी नहीं हो सकता की पञ्चम गुणस्थानवर्ती इस लोक में कोई भी जीव न हो ।
    18. नपुंसक वेद (द्रव्य वेद) वाले मनुष्य, तिर्यञ्च भी इस गुणस्थान को प्राप्त कर सकते हैं ।


    67. देशविरत गुणस्थान से कौन-कौन से गुणस्थानों में जा सकते हैं?

    1. इस गुणस्थान से सातवें गुणस्थान में जा सकते हैं ।
    2. इस गुणस्थान से चतुर्थ गुणस्थान में जा सकते हैं।
    3. इस गुणस्थानवर्ती के यदि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय आ जावे तो तृतीय गुणस्थान में जाएगा।
    4. इस गुणस्थानवर्ती औपशमिक सम्यग्दृष्टि के यदि अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी एक का उदय आ जावे तो सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान में चला जाएगा।
    5. इस गुणस्थानवर्ती के यदि मिथ्यात्व का उदय आ जावें तो मिथ्यात्व गुणस्थान में चला जाएगा।

     

    68. देशविरत गुणस्थान में कौन-कौन से गुणस्थानों से आ सकते हैं?

    1. अनादि और सादि मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्व गुणस्थान से सीधे पञ्चम गुणस्थान में आ सकते हैं ।
    2. चतुर्थ गुणस्थान से पञ्चम गुणस्थान में आ सकते हैं।
    3. छठवें गुणस्थान से पञ्चम गुणस्थान में आ सकते हैं ।


    69. देशविरत गुणस्थान का जघन्य व उत्कृष्ट काल कितना है ?
    देशविरत गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट काल तीन अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि है ।


    विशेष - जघन्यकाल व उत्कृष्ट काल के बीच का काल मध्यम काल कहलाता है ।


    70. देशसंयम कौन-सा भाव है ?
    देशसंयम क्षायोपशमिक भाव है ।


    71. पञ्चम गुणस्थान में जब क्षायोपशमिकभाव है तो इस गुणस्थान में क्षायोपशमिक चारित्र भी हो सकता है ?
    इस गुणस्थान में क्षायोपशमिक चारित्र नहीं हो सकता क्योंकि क्षायोपशमिक चारित्र नाम, सकल चारित्र को ही प्राप्त होता है । तत्त्वार्थ सूत्र 2/5 में क्षायोपशमिक भाव 18भेद बताए गए हैं, उनमें संयमासंयम व क्षायोपशमिक चारित्र अलग-अलग भेद बताए हैं। क्षायोपशमिक चारित्र छठवें - सातवें गुणस्थान में होता हैं ।


    72. प्रमत्तविरत गुणस्थान किसे कहते हैं ?
    जहाँ सकल संयम प्रकट हो गया है किन्तु संज्वलन कषाय का तीव्र उदय होने से प्रमाद हो, उसे प्रमत्तविरत गुणस्थान कहते हैं। (ध.पु., 1/176)


    विशेष - 4 संज्वलन और 9 नोकषाय के तीव्र उदय का नाम प्रमाद है । (ध.पु., 7/11)


    73. प्रमत्तविरत गुणस्थान की विशेषताएँ बताइए?

    1. इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होने से सकल संयम पाया जाता है।
    2. यह गुणस्थान दिगम्बर मुनिराज को ही होता है ।
    3. यह गुणस्थान सप्तम गुणस्थान से नीचे आने पर होता है ।
    4. ऋद्धियों का प्रयोग इसी गुणस्थान में हो सकता है।
    5. मन:पर्ययज्ञान का प्रारम्भ इसी गुणस्थान से होता है ।
    6. इस गुणस्थान में आहारक शरीर प्राप्त हो सकता है ।
    7. इसी गुणस्थान से सामायिक चारित्र, छेदोपस्थापना चारित्र एवं परिहार विशुद्धि चारित्र प्रारम्भ हो जाते हैं किन्तु परिहार विशुद्धि चारित्र सभी जीवों को हो यह नियम नहीं है।
    8. मोक्ष प्राप्त करने वाले जीव को इस गुणस्थान में हजारों बार आना अनिवार्य है ।
    9. इस गुणस्थान से शुद्ध मनुष्य की संज्ञा प्राप्त हो जाती है। क्योंकि प्रथम चार गुणस्थान तक चारों गतियाँ हो जाती हैं। प्रथम पाँच गुणस्थान तक तिर्यञ्च व मनुष्य गति किन्तु गुणस्थान छठवें से मात्र मनुष्य गति । तेण परं सुद्ध मणुस्स । (षट्खण्डागम, 1/32)
    10. देवायु का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध इसी गुणस्थान में होता है । (गो.क., 136)


    74. संयम और विरति में क्या अन्तर है ?
    समितियों के साथ महाव्रत और अणुव्रत संयम कहलाते हैं और समितियों के बिना महाव्रत और अणुव्रत विरति कहलाते हैं। (ध.पु., 14/12)


    75. प्रमत्तविरत गुणस्थान से कहाँ जा सकते हैं ?

    1. छठवें गुणस्थान से सातवें गुणस्थान में जा सकते हैं।
    2. छठवें गुणस्थानवर्ती के प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय आने से पाँचवें गुणस्थान में जाएगा।
    3. छठवें गुणस्थानवर्ती के अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय आने से चतुर्थ गुणस्थान में जाएगा और यदि छठवें गुणस्थानवर्ती का मरण हो जाए तब भी वह चतुर्थ गुणस्थानवर्ती वैमानिक देवों उत्पन्न होगा।
    4. छठवें गुणस्थानवर्ती के सम्यग्मिथ्यात्व का उदय आ जाए तो वह तृतीय गुणस्थान में जाएगा।
    5. छठवें गुणस्थानवर्ती उपशम सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय आने से द्वितीय गुणस्थान में जाएगा।
    6. छठवें गुणस्थानवर्ती के मिथ्यात्व का उदय आने से मिथ्यात्व गुणस्थान में जाएगा ।


    76. प्रमत्तविरत गुणस्थान में कहाँ से आ सकते हैं?
    छठवें गुणस्थान में मात्र सप्तम गुणस्थान से आ सकते हैं ।


    विशेष- यह गुणस्थान चढ़ते समय नहीं उतरते समय बनता है । प्रथम, चतुर्थ या पञ्चम गुणस्थानवर्ती जीव पहले सप्तम गुणस्थान में जाएगा बाद में छठवें गुणस्थान में आएगा।


    उदाहरण- शताब्दी एक्सप्रेस दिल्ली से चलती है किसी को दिल्ली से विदिशा आना है और वह रेल विदिशा में रुकती नहीं है। अब यात्री दिल्ली से पहले भोपाल जाएगा और बाद में वापस विदिशा आएगा ।


    77. प्रमत्तविरत गुणस्थान का काल कितना है ?
    उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त एवं जघन्य काल भी सामान्यत: अन्तर्मुहूर्त है किन्तु मरण की अपेक्षा एक समय है अर्थात् कोई मुनिराज सप्तम गुणस्थान से छठवें गुणस्थान में पहुँचते हैं तथा एक समय रुकने के बाद उनका मरण हो गया इसी प्रकार सप्तम एवं उपशम श्रेणी के 8 से 11वें गुणस्थान का जघन्य काल जानना चाहिए।


    78. प्रमत्तविरत गुणस्थान में कौन-सा चारित्र होता हैं ?
    क्षायोपशमिक चारित्र ।


    79. क्षायोपशमिक चारित्र किसे कहते हैं ?
    अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण रूप बारह कषायों के उदयाभावी क्षय तथा सदवस्थारूप उपशम एवं चार संज्वलन कषायों में से किसी एक देशघाति प्रकृति के उदय से और नव नोकषायों का यथा सम्भव उदय होने पर क्षायोपशमिक चारित्र होता है ।


    80. अप्रमत्तविरत गुणस्थान किसे कहते हैं?
    जहाँ संज्वलन कषाय का मन्द उदय हो जाने से प्रमाद नहीं रहता उसे अप्रमत्तविरत गुणस्थान कहते हैं । (ध.पु., 1/179)


    81. अप्रमत्तविरत गुणस्थान की विशेषताएँ बताइए ?

    1. इस गुणस्थान के दो भेद हैं स्वस्थान और सातिशय ।
    2. इस गुणस्थान में प्रवृत्ति रूप शुभोपयोग तथा निवृति रूप शुद्धोपयोग होता है ।
    3. देवायु का उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध इसी गुणस्थान में होता है। (गो.क., 166 )
    4. इस वर्तमान के पञ्चम काल में कोई भी मुनि सातवें गुणस्थान से आगे नहीं बढ़ सकता है ।
    5. स्वस्थान अप्रमत्तविरत मुनि को औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं क्षायिक सम्यम्त्व में से कोई एक सम्यग्दर्शन हो सकता है।
    6. सातिशय अप्रमत्तविरत मुनि को द्वितीयोपशम अथवा क्षायिक सम्यग्दर्शन में से कोई एक सम्यग्दर्शन हो सकता है ।


    82. अप्रमत्तविरत गुणस्थान से कहाँ जा सकते हैं?

    1. इस गुणस्थान से आठवें गुणस्थान में जा सकते हैं ।
    2. इस गुणस्थान से छठवें गुणस्थान में जा सकते हैं ।
    3. इस गुणस्थान में मरण होने से सीधे चतुर्थ स्थान में (वैमानिक देवों में ) पहुँच जाते हैं ।

     

    83. अप्रमत्तविरत गुणस्थान में कहाँ से आ सकते हैं ?

    1. अनादि या सादि मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्व गुणस्थान से सीधे सातवें गुणस्थान में आ सकते हैं ।
    2. चतुर्थ, पञ्चम एवं छठवें गुणस्थान से सातवें गुणस्थान में आ सकते हैं ।
    3. उपशम श्रेणी के आठवें गुणस्थान से सातवें गुणस्थान में आ सकते हैं ।


    84. अप्रमत्तविरत गुणस्थान का काल कितना है ?
    इस गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त एवं जघन्य काल भी सामान्य से अन्तर्मुहूर्त तथा मरण की अपेक्षा एक समय है।


    विशेष - छठवें तथा सातवें गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है फिर भी छठवें गुणस्थान के काल से सातवें गुणस्थान का काल आधा है ।


    85. अपूर्वकरण गुणस्थान किसे कहते हैं ?

    1. अ = नहीं, पूर्व = पहले, करण = परिणाम । जिस गुणस्थान में आत्मा के जो पूर्व में परिणाम नहीं थे ऐसे अपूर्व-अपूर्व परिणाम उत्पन्न होते हैं। वह अपूर्वकरण गुणस्थान है।
    2. इस गुणस्थान में सम-समयवर्ती जीवों के परिणाम समान-असमान दोनों होते हैं, किन्तु भिन्न समय में रहने वाले जीव के परिणाम भिन्न ही होते हैं । ये परिणाम मुनिराज को पूर्व में कभी भी प्राप्त नहीं हुए थे, ऐसे अपूर्व परिणामों को धारण करते हैं इसलिए इस गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण गुणस्थान है। (ध.पु.,1/181)


    86. अपूर्वकरण गुणस्थान की विशेषताएँ बताइए ?

    1. इस गुणस्थान में द्वितीयोपशम या क्षायिक दोनों में से एक जीव कोई एक सम्यग्दर्शन रहता है ।
    2. इस गुणस्थान से श्रेणी प्रारम्भ होती है। श्रेणी दो प्रकार की होती है - उपशम श्रेणी, क्षपक श्रेणी ।
    3. द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन वाला उपशम श्रेणी चढ़ता है तथा क्षायिक सम्यग्दर्शन वाला उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी चढ़ता है।
    4. क्षपक श्रेणी में मरण नहीं होता है ।
    5. इस गुणस्थान के सात भाग होते हैं ।
    6. इस अपूर्वकरण गुणस्थान के चढ़ते समय प्रथम भाग में मरण नहीं होता है ।
    7. उपशम श्रेणी चढ़ने वाले नियम से नीचे के गुणस्थानों में आते हैं एवं मरण भी उपशम श्रेणी वालों का होता है ।
    8. क्षपक श्रेणी चढ़ने वाले नीचे के गुणस्थानों में नहीं आते एवं इसमें मरण भी नहीं होता ये नियम से मोक्ष प्राप्त करते हैं ।
    9. कोई भी जीव एक भव में अधिकतम इस गुणस्थान को 5 बार एवं संसार चक्र में 9 बार प्राप्त कर सकते हैं।


    विशेष- उपशम श्रेणी एक जीव एक भव में दो बार चढ़ना एवं दो बार उतरता । संसार चक्र में कुल चार बार चढ़ना एवं चार बार उतरना एवं क्षपक श्रेणी मात्र एक बार ही चढ़ना । इस प्रकार यह गुणस्थान एक भव में पाँच बार तथा संसार चक्र में 9 बार प्राप्त कर सकते हैं । इसी प्रकार गुणस्थान नौ वाँ एवं दशवाँ भी प्राप्त करेगा ।


    87. अपूर्वकरण गुणस्थान से किन गुणस्थानों में जा सकते हैं?

    1. इस गुणस्थान से नवमें गुणस्थान में जा सकते हैं ।
    2. इस गुणस्थान से सातवें गुणस्थानमें जा सकते हैं ।
    3. इस गुणस्थान से उपशम श्रेणी वाले मरण कर चतुर्थ गुणस्थान में (वैमानिक देवों में) जाते हैं।

     

    88. अपूर्वकरण गुणस्थान में किन गुणस्थानों से आ सकते हैं ?
    सातवें उपशम श्रेणी वाले एवं क्षपक श्रेणी वाले इस गुणस्थान में आते हैं।


    89. अपूर्वकरण गुणस्थान का काल कितना है?
    इस गुणस्थान के क्षपक श्रेणी जीवों का उत्कृष्ट एवं जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है तथा उपशम श्रेणी वालें जीवों का उत्कृष्ट एवं जघन्य काल भी अन्तर्मुहूर्त है किन्तु मरण की अपेक्षा जघन्य काल एक समय है ।

     

    90. अपूर्वकरण गुणस्थान में कौन-कौन से कार्य होते हैं ?
    अपूर्वकरण गुणस्थान में चार प्रमुख कार्य होते हैं ।
    1. स्थिति काण्डक घात, 2. अनुभाग काण्डक घात, 3. गुण श्रेणी निर्जरा, 4. गुण संक्रमण ।


    1. स्थितिकाण्डक घात - सत्ता में स्थित कर्मस्थिति के समूह के घात करने को स्थिति काण्डक घात कहते हैं। यह स्थिति काण्डक घात सातिशय मिथ्यादृष्टि के करण लब्धि के समय, अपूर्वकरण गुणस्थान में एवं अन्य कालों में यथागम होता है। इस स्थिति काण्डक घात से कर्मों की स्थिति कम पड़ जाती है तथा इस स्थिति काण्डक घात के बिना कर्म की स्थिति का घात सम्भव नहीं होता । (ध.पु.,12/489)


    इतना ध्यातव्य है कि आयु कर्म का स्थिति काण्डक घात नहीं होता है । (ध.पु.,6/224)


    जैसे - नारियल का गोला ( भेला) जिसे किस-किस कर उसकी स्थिति को कम किया जाता है ।
    2. अनुभाग काण्डक घात - सत्ता में स्थित कर्मों के अनुभाग ( फलदान शक्ति) का समूह रूप से घटना।


    किन्तु शुभ प्रकृतियों का अनुभाग घात नहीं होता है। (ध.पु., 12/18)

    जैसे -

    1. मेथी दाना की कड़वाहट को पानी से धो-धोकर कम किया जाता है ।
    2. एक प्रकार की ककड़ी (खीरा) जिसमें विष की मात्रा भी रहती है। उसके ऊपरी भाग को थोड़ा-सा काटकर उसे कटे भाग से उस ककड़ी के ऊपरी भाग में घिसा जाता है जिससे उस ककड़ी का विष का अनुभाग घटता चला जाता है।


    3. गुणश्रेणी निर्जरा - सत्ता में स्थित कर्मों की प्रतिसमय गुणित क्रम से निर्जरा होना गुणश्रेणी निर्जरा है।


    जैसे - किसी जीव के पहले समय में 20 कर्म परमाणु उदय में आए फिर दूसरे में असंख्यात गुणे परमाणु उदय
    में आए। तीसरे समय में असंख्यात गुणे परमाणु उदय में आए। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिये। माना कि असंख्यात= 3 हो । तथा प्रथम समय में उदीयमान परमाणु 20 हो तो प्रथम, द्वितीय, तृतीय आदि समयों में उदयागत परमाणुओं की संख्या ऐसी होगी - 20,60,180,540, 1620 यही गुण श्रेणी निर्जरा है।


    4. गुणसंक्रमण - जहाँ पर प्रतिसमय असंख्यात गुणश्रेणी क्रम से परमाणु प्रदेश अन्य प्रकृति रूप परिणमे वह गुणसंक्रमण है। ( गो . क. जी., 413 )


    91. अपूर्वकरण गुणस्थान में न तो कर्मों का क्षय ही होता है और न उपशम ही होता है फिर इस गुणस्थानवर्ती जीवों को क्षपण व उपशमन में उद्यमशील कैसे कहा गया है ?
    नहीं, क्योंकि भावी अर्थ में भूतकालीन अर्थ के समान उपचार कर लेने पर अपूर्वकरण गुणस्थान में यह संज्ञा बन जाती है । अर्थात् वह आगे के गुणस्थानों में क्षय व उपशम करेगा।


    92. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान किसे कहते हैं?
    अनिवृत्तिकरण के अन्तर्मुहूर्त काल में से किसी एक समय में रहने वाले अनेक जीव जिस प्रकार शरीर के आकार आदि में परस्पर में भिन्न-भिन्न होते हैं, किन्तु उनके परिणामों में भेद नहीं पाया जाता है, उसे अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहते हैं ।( गो . जी., 57 )


    मानलो प्रथम, द्वितीय आदि समय में 108, 1008 दर्जे (डिग्री) के परिणाम हैं तो प्रथम समयवर्ती जितने भी मुनिराज होंगे, उन सब के परिणाम 108 डिग्री के होंगे। दूसरे समयवर्ती जितने भी मुनिराज होंगे सभी के परिणाम 1008 डिग्री के होंगे।


    93. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान की विशेषताएँ बताइए ?

    1. यह गुणस्थान चारित्रमोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से होता है । अर्थात् यहाँ अप्रत्याख्यानावरण 4, प्रत्याख्यानावरण 4, संज्वलन क्रोध, मान, माया एवं हास्यादि 9 इन बीस प्रकृतियों का उपशम या क्षय करता है ।
    2. क्षपकश्रेणी वाला इस गुणस्थान में स्त्यानगृद्धि आदि निद्रा 3 एवं नाम कर्म की 13 अर्थात् कुल 16 प्रकृतियों का क्षय करता है ।
    3. इस गुणस्थान के 9 भागों में से प्रारम्भ के 6 भाग सवेद भाग एवं अन्त के 3 भाग अवेद भाग कहलाते हैं ।
    4. इस गुणस्थान में बादर कृष्टि से सूक्ष्म कृष्टि रूप क्रियाएँ होती हैं। जैसे- पहले अनार के दाने निकाले जाते और फिर उन दानों का रस निकाला जाता है ।
    5. इस गुणस्थान में प्रवेश करते ही निधत्ति और निकाचित कर्मों की अवस्थाएँ स्वयमेव समाप्त हो जाती हैं ।


    94. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान से किन गुणस्थानों में जा सकते हैं?

    1. इस गुणस्थान से दसवें गुणस्थान में जा सकते हैं।
    2. उपशम श्रेणी वाले इस गुणस्थान से आठवें गुणस्थान में जाते हैं ।
    3. उपशम श्रेणी वाले मुनिराज मरण कर चतुर्थ गुणस्थान (वैमानिक देवों में) जाते हैं ।


    95. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में जीव किन गुणस्थानों से आ सकते हैं?

    1. आठवें गुणस्थानवर्ती उपशम एवं क्षपक श्रेणी वाले जीव इस गुणस्थान में आते हैं ।
    2. दसवें गुणस्थानवर्ती उपशम श्रेणीवाले मुनिराज इस गुणस्थान में आते हैं ।


    96. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान का काल कितना है ?
    इस गुणस्थान के क्षपक श्रेणी वाले मुनिराजों का उत्कृष्ट एवं जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है तथा उपशम श्रेणी वाले मुनिराजों का उत्कृष्ट व जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । किन्तु मरण की अपेक्षा उपशम श्रेणी वाले मुनिराजों का जघन्य काल एक समय है।


    97. सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान किसे कहते हैं?
    जिस गुणस्थान में संज्वलन लोभ कषाय का अत्यन्त सूक्ष्म उदय होता है, उसे सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान कहते हैं । सूक्ष्म = छोटा, साम्पराय = कषाय ।
    विशेष - धुले हुए कसूम्भी वस्त्र में जिसप्रकार सूक्ष्म लालिमा रह जाती है उसी प्रकार जो जीव अत्यन्त सूक्ष्म लोभ कषाय से युक्त हैं, उनके सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान होता है । (गो.जी., 59 )


    98. सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान की विशेषताएँ बताइए?

    1. इस गुणस्थान में सूक्ष्म साम्पराय संयम होता है, जो यथाख्यात संयम से न्यून होता है ।
    2. कषाय के उदय सहित जीवों का यह अन्तिम गुणस्थान है ।
    3. सूक्ष्म साम्पराय संयम सान्तर मार्गणा है । अत: इसमें हमेशा जीव रहे यह नियम नहीं है ।

     

    99. सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानों से किन गुणस्थानों में जाते हैं?

    1. इस गुणस्थान से क्षपक श्रेणी वाले बारहवें गुणस्थान में जाते हैं तथा उपशम श्रेणी वाले ग्याहरवें गुणस्थान में जा सकते हैं।
    2. उपशम श्रेणी वाले इस गुणस्थान से नवमें गुणस्थान में जा सकते हैं ।
    3. उपशम श्रेणी वाले मुनिराज मरणकर चतुर्थ गुणस्थान में जाते हैं ।

     

    100. सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान में जीव किन गुणस्थानों से आते हैं ?

    1. नवमें गुणस्थानवर्ती उपशम एवं क्षपक श्रेणी वाले जीव इस गुणस्थान में आते हैं।
    2. ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीव इस गुणस्थान में आते हैं।


    101. सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान का काल कितना है ?
    इस गुणस्थान के क्षपक श्रेणी एवं उपशम श्रेणी वाले मुनिराजों का उत्कृष्ट एवं जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है तथा उपशम श्रेणी वाले मुनिराजों का उत्कृष्ट व जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है किन्तु मरण की अपेक्षा उपशम श्रेणी वाले मुनिराजों का जघन्य काल एक समय है।


    102. उपशान्त मोह गुणस्थान किसे कहते हैं?

    1. समस्त मोहनीय कर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाले गुणस्थान को उपशान्त मोह गुणस्थान कहते हैं (ध.पु.,1/189) विशेष- इस गुणस्थान का अपर नाम प्रशान्त मोह है । (म.पु., 21/183)
    2. कतकफल से युक्त निर्मल जल के समान अथवा शरद ऋतु में होने वाले सरोवर के निर्मल जल के समान सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाले निर्मल परिणामों को उपशान्त कषाय संज्ञा है । (गो.जी.,61)


    103. उपशान्त मोह गुणस्थान की विशेषताएँ बताइए?

    1. इस गुणस्थान से नियम के निचले गुणस्थानों में आते हैं।
    2. यह गुणस्थान क्षपक श्रेणी वाले मुनिराजों का नहीं होता है ।
    3. इस गुणस्थान से मुनिराज क्रमशः नीचे के गुणस्थानों को पार करते हुए मिथ्यात्व गुणस्थान को भी प्राप्त हो सकता है और कुछ कम अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल तक संसार में रह सकता है ।
    4. द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि एवं क्षायिक सम्यग्दृष्टि दोनों उपशम श्रेणी चढ़ते हैं किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थान से नीचे नहीं आते हैं ।
    5. उपशम सम्यग्दर्शन के साथ ग्यारहवाँ गुणस्थान तथा क्षायिक सम्यग्दर्शन के साथ ग्यारहवाँ गुणस्थान इन दोनों के परिणामों की निर्मलता में कोई अन्तर नहीं होता हैं ।
    6. इस गुणस्थान में प्रथम शुक्ल ध्यान होता है किन्तु आचार्य वीरसेनस्वामी जी के मतानुसार दोनों (प्रथम दो) शुक्ल ध्यान होते हैं ।


    104. उपशान्त मोह गुणस्थान से किन गुणस्थानों में जा सकते हैं?
    उपशान्त मोह गुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में नहीं जा सकते नीचे दसवें गुणस्थान में जाते हैं । यदि इस गुणस्थान में मरण हुआ तो वह चतुर्थ गुणस्थान (वैमानिक देवों) में जाता है ।


    105. उपशान्त मोह गुणस्थान में किस गुणस्थान से आ सकते हैं?
    दसवें गुणस्थानवर्ती उपशम श्रेणी वाले मुनिराज ही इस गुणस्थान में आ सकते हैं ।

     

    106. उपशान्त मोह गुणस्थान से नीचे के गुणस्थानों में आने के कारण बताइए?

    इस गुणस्थान से नीचे के गुणस्थानों में आने के दो कारण हैं-

    1. भवक्षय- आयु कर्म के समाप्त होने पर गुणस्थान से नीचे गिरना भवक्षय कहलाता है, ऐसे मुनिराज चतुर्थ गुणस्थान (वैमानिक देवों में) को प्राप्त होते हैं।
    2. कालक्षय- जो मुनिराज इस गुणस्थान का समय समाप्त होने पर गिरता है, वह पहले सूक्ष्मसाम्पराय दसवें गुणस्थान में आता है । इसके पश्चात् जिस प्रकार श्रेणी आरोहण के क्रम में बन्ध व्युच्छित्ती आदि करते हुए जैसे ऊपर के गुणस्थानों में आया था, पुनः उन्हीं प्रकृतियों का बन्ध प्रारम्भ करता हुआ क्रमश: दसवें, नवमें, आठवें, सातवें गुणस्थान में आता है।


    107. उपशान्त मोह गुणस्थान का काल कितना है ?
    इस गुणस्थान का उत्कृष्ट एवं जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है किन्तु मरण की अपेक्षा इस गुणस्थान का जघन्य काल एक समय है


    108. क्षीणमोह गुणस्थान किसे कहते हैं?
    जिसने मोहनीय कर्म का पूर्ण रूप से क्षय कर दिया है, स्फटिक मणि के निर्मल भाजन में रखे हुए स्वच्छ जल के समान जिसका चित्त निर्मल है, वीतरागदेव ने ऐसे निर्ग्रन्थ को क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती कहा है । (गो.जी., 62 )


    109. क्षीणमोह गुणस्थान की विशेषताएँ बताइए?

    1. दसवें गुणस्थानवर्ती क्षपक श्रेणी वाले मुनिराज मोहनीय कर्म का क्षय करके सीधे इसी गुणस्थान में आते हैं ।
    2. मोहनीय के अलावा शेष घातिया कर्मों का क्षय इसी गुणस्थान में होता है ।
    3. इस गुणस्थान में द्वितीय शुक्लध्यान होता है किन्तु आचार्य वीरसेनजी के मतानुसार इस गुणस्थान के प्रथम पाया में प्रथम शुक्ल ध्यान तथा अन्तिम पाया में द्वितीय शुक्लध्यान होता है ।
    4. इस गुणस्थान से मात्र क्षायिक सम्यग्दर्शन एवं क्षायिक चारित्र ही रहता है ।
    5. इस गुणस्थान के अन्त में औदारिक शरीर से निगोदिया जीवों का निष्कासन हो जाता है ।
    6. इस गुणस्थान तक छद्मस्थ अवस्था रहती है ।
    7. वज्रवृषभनाराच संहनन वाले जीव ही इस गुणस्थान में प्रवेश पाते हैं।

     

    110. इस गुणस्थान से किस गुणस्थान में जाते हैं ?
    मात्र सयोग केवली अर्थात् तेरहवें गुणस्थान में जाते हैं।

     

    111. क्षीणमोह गुणस्थान में किस गुणस्थान से आते हैं?
    इस गुणस्थान से मात्र दसवें गुणस्थान से क्षपक श्रेणी वाले जीव ही आते हैं।


    112. क्षीणमोह गुणस्थान का काल कितना है ?
    इस गुणस्थान का उत्कृष्ट व जघन्यकाल मात्र अन्तर्मुहूर्त है ।


    113. सयोग केवली गुणस्थान किसे कहते हैं?
    चार घातिया कर्मों के क्षय हो जाने से जहाँ अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख व अनन्त वीर्य प्रकट हो जाते हैं, उन्हें केवली कहते हैं और उनके जब तक योग रहता है तब तक उन्हें सयोग केवली कहते हैं । (त.वा., 9/24)


    114. सयोग केवली गुणस्थान की विशेषताएँ बताइए ?

    1. सयोग शब्द अन्त दीपक है अर्थात् गुणस्थान 1-13 तक के जीव योग सहित होते हैं।
    2. गुणस्थान 1 से 12 तक के जीवों को पहले दर्शन फिर ज्ञान होता है किन्तु गुणस्थान 13 - 14 एवं सिद्धों में दर्शन ज्ञान युगपत् होते हैं ।
    3. इस गुणस्थान में केवलज्ञान प्रकट होता है जिसके प्रभाव से ज्ञान में लोक और अलोक दर्पण के समान झलकने लगता है ।
    4. केवलज्ञान होते ही केवली भगवान् जमीन से 5000 धनुष ऊपर आकाश में अधर विराजमान हो जाते हैं ।
    5. तेरहवें गुणस्थानवर्ती अरिहन्त परमेष्ठी कहलाते हैं ।
    6. तीर्थङ्कर प्रकृति का उदय तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थान में है तीर्थङ्कर केवली के लिए समवसरण की रचना होती है ।
    7. सामान्य केवली के लिए गन्धकुटी की रचना होती है।
    8. इस गुणस्थानवर्ती अरिहन्त परमेष्ठी का औदारिक शरीर परम औदारिक शरीर कहलाता है।
    9. इस गुणस्थानवर्ती अरिहन्त परमेष्ठी को अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में तृतीय शुक्लध्यान होता है ।
    10. जिन जीवों के नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म की स्थिति आयु कर्म के समान होती है, वे समुद्घात के बिना ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं। दूसरे जीव समुद्घात करके ही मुक्त होते हैं । (ध.पु., 1/304)


    115. सयोग केवली गुणस्थान से किस गुणस्थान में जाते हैं?

    इस गुणस्थान से मात्र चौदहवें गुणस्थान में जाते हैं ।

     

    116. सयोग केवली गुणस्थान में किस गुणस्थान से आते है?
    इस गुणस्थान में मात्र बारहवें गुणस्थान से आते हैं ।


    117. सयोगकेवली गुणस्थान का काल कितना है ?
    इस गुणस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट काल एक पूर्वकोटि में 8 वर्ष व 8 अन्तर्मुहूर्त कम ।

     

    विशेष- कर्मभूमि में मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक पूर्वकोटि होती है। ऐसा कर्मभूमिज बालक आठ वर्ष का होने पर समस्त बाह्य परिग्रह का त्याग कर प्रथम अन्तर्मुहूर्त में सातवाँ गुणस्थान फिर दूसरे अन्तर्मुहूर्त में असंख्यात बार छठवाँ-सातवाँ गुणस्थान फिर तीसरे अन्तर्मुहूर्त में सातवाँ गुणस्थान फिर चौथे अन्तर्मुहूर्त में क्षपक श्रेणी का आठवाँ गुणस्थान, फिर पाँचवें अन्तर्मुहूर्त में नववाँ गुणस्थान, फिर छठवें अन्तर्मुहूर्त में दसवाँ गुणस्थान फिर सातवें अन्तर्मुहूर्त में बारहवाँ गुणस्थान, शेष समय गुणस्थान तेरह में तथा आठवाँ अन्तर्मुहूर्त चौदहवाँ गुणस्थान इस प्रकार सयोग केवली गुणस्थान का उत्कृष्ट काल एक पूर्व कोटि में 8 वर्ष व 8 अन्तर्मुहूर्त कम ।


    118. अयोग केवली गुणस्थान किसे कहते हैं?

    1. जिसने शील के स्वामित्व को प्राप्त कर लिया है, सम्पूर्ण आस्रवों का जिसने निरोध किया है और जो नूतन कर्मरज से भी रहित है, वह गतयोगकेवली अर्थात् अयोगकेवली कहलाता है। (गो.जी.,65)
    2. सयोग केवली के जब योग नष्ट हो जाते हैं एवं जब तक इनको अयोग केवली कहते हैं । अयोग केवली का काल 5 ह्रस्व अक्षर (अ, इ, उ, ऋ, लृ ) बोलने में जितना समय लगता है, उतना ही है । इनके उपान्त्य समय में 72 एवं अन्तिम समय में 13 प्रकृतियों का क्षय हो जाता है । (त.वा., 9/1/24)

     

    119. शील के 18,000 भेदों के नाम बताइए?
    तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पाँच इन्द्रिय आदि दस भेद, उत्तम क्षमादि दश धर्म इनको परस्पर गुणा करने से (3×3×4×5×10x10) शील के 18,000 भेद होते है । (मू.टी., 1019)


    120. सयोग केवली को शील का स्वामित्व ( शैलेष्य ) क्यों नहीं कहा?
    सयोग केवली ने भी आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लिया है। वे अशेष गुणों के खजाने हैं, निष्कलंक हैं और परम उपेक्षा लक्षण वाले यथाख्यात विहारशुद्धि संयम की पराकाष्ठा में अधिष्ठित है । इस प्रकार सयोग केवली के सकल गुण और शील प्रगट हो गए हैं, किन्तु उनके योग के निमित्त से होने वाले आस्रव मात्र के सत्त्व की अपेक्षा सम्पूर्ण कर्म निर्जरा रूप फल वाला सकल संवर नहीं उत्पन्न हुआ है। जबकि अयोग केवली ने समस्त आस्रवों के द्वार रोक दिए और प्रतिपक्ष रहित आत्मलाभ प्राप्त कर लिया है, इस अभिप्राय से ‘शैलेष्य' विशेषण अयोग केवली के साथ लगाया गया है। (ज.ध., 16/183)

     

    121. अयोग केवली गुणस्थान की विशेषताएँ बताइए?

    1. यह अन्तिम गुणस्थान है।
    2. कर्मबन्ध से मुक्त होते ही आत्मा एक समय में ऋजुगति से सिद्धालय में पहुँच जाती है।
    3. इस गुणस्थान में अन्तिम शुक्ल ध्यान होता है ।
    4. इस गुणस्थान में कोई भी लेश्या नहीं रहती है ।


    122. अयोग केवली गुणस्थान से किस गुणस्थान में जाते हैं ?
    इस गुणस्थान से किसी भी गुणस्थान में नहीं जाते मात्र मोक्ष ही जाते हैं ।

     

    123. इस गुणस्थान में किस गुणस्थान से आते हैं ?
    इस गुणस्थान में मात्र तेरहवें गुणस्थान से आते हैं।


    124. अयोग केवली गुणस्थान का काल कितना है ?
    वचन ऋद्धिधारक मुनि महाराज द्वारा अ, इ, उ, ऋ, लृ अक्षरों के उच्चारण में जितना समय (काल)लगता है,अयोग केवली गुणस्थान का उतना काल है । किन्तु यह काल भी जघन्य एवं उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है।


    125. सिद्ध भगवान् किन्हें कहते हैं ?
    जो आठ प्रकार के कर्मों से रहित है, अत्यन्त शान्तिमय हैं, निरञ्जन है, नित्य हैं, आठ गुणों से युक्त हैं, कृतकृत्य हैं, और लोक के अग्र भाग पर निवास करते हैं, वे सिद्ध भगवान् हैं। (गो.जी., 68)


    126. सिद्ध भगवान् की विशेषताएँ बताइए?

    1. सिद्ध भगवान् द्रव्य कर्म (ज्ञानावरणादि कर्म ), भावकर्म ( राग, द्वेष) और नोकर्म ( शरीरादि) से रहित हैं ।
    2. सिद्ध भगवान् अचल, अमूर्त हैं।
    3. सिद्धों में भी उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यपना पाया जाता है।
    4. अपने अवगाहनत्व गुण के कारण सिद्ध भगवान् में अनन्त सिद्ध भगवान् निवास करते हैं।
    5. सिद्धालय में अनन्तान्त सिद्ध भगवान् विराजमान हैं ।
    6. सिद्धक्षेत्र का विस्तार मनुष्य क्षेत्र के बराबर पैंतालीस लाख योजन है।
    7. एक जीव की अपेक्षा सिद्ध अवस्था का प्रारम्भ होता है, अत: उनका काल सादि है किन्तु इस अवस्था का कभी नाश नहीं होता, अत: सिद्ध भगवान् सादि अनन्त हैं । किन्तु नाना जीव की अपेक्षा सिद्ध पर्याय अनादि अनन्त है ।
    8. सिद्ध अवस्था में भव्यत्व भाव का अभाव है।
    9. सिद्धालय के आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होने से अनन्तशक्ति धारी सिद्ध परमेष्ठी वहीं रुक जाते हैं।


    127. किस कर्म के क्षय से सिद्धों में कौन-सा गुण प्राप्त होता है?

     

    मोहो खाइयसम्मं केवलणाणं च केवलालोयं।

    हणदि हु आवरणदुगं अणंतविरियं हणेदि विग्धं तु।

    सुमं च णामकम्मं हणेदि आऊ हणेदि अवगहणं।

    अगुरुलहुगं गोदं अव्वावाहं हणेइ वेयणियं ॥

    ( गो . जी. कन्नड़ी टीका, 68 )

     

    मोहनीय कर्म के क्षय से (1) क्षायिक सम्यक्त्व, ज्ञानावरण, दर्शनावरण इन दो आवरणकर्मों के क्षय से क्रमश: (2) केवलज्ञान और (3) केवलदर्शन, अन्तराय कर्म के विनाश से (4) अनन्तवीर्य, नाम कर्म के नाश से (5) सूक्ष्मत्व (अमूर्तत्व), आयु कर्म के नाश से (6) अवगाहनत्व, गोत्र कर्म के नाश से, (7) अगुरुलघुत्व और वेदनीय कर्म के नाश से (8) अव्याबाधत्व ये आठ गुण सिद्धों में प्रकट होते हैं।


    128. सिद्धों का सुख किस प्रकार है ?
    जब एक शास्त्र या सर्वशास्त्रों को भली प्रकार जान लेने वाले मनुष्य तीव्र सन्तोष को प्राप्त होते है, तब समस्त अर्थ एवं तत्त्वों को एक साथ निरन्तर जानने वाले सिद्ध भगवान् क्या तृप्ति को प्राप्त नहीं होंगे? अवश्य ही होंगे । (त्रि. सा., 559 )


    129. सबसे ज्यादा सुख किसका ?
    चक्रवर्ती, भोगभूमिज, धरणेन्द्र, देवेन्द्र और अहमिन्द्रों का सुख क्रमश: एक दूसरे से अनन्त गुणा है । इन सबके त्रिकालवर्ती सुखों में सिद्धों का एक क्षण का भी सुख अनन्तगुणा है । (त्रि. सा.,560)


    130. सिद्ध भगवान् कहाँ रहते हैं ?
    अढ़ाईद्वीप प्रमाण सिद्ध शिला के ठीक ऊपर तनुवातवलय के अन्तिम भाग से नीचे की ओर सिद्ध भगवान् रहते हैं ।


    131. सिद्धों की अवगाहना कितनी होती है?
    सिद्ध भगवान् की उत्कृष्ट अवगाहना कुछ कम 525 धनुष एवं जघन्य कुछ कम साढ़े तीन हाथ है।

     

    132. सिद्धों की जघन्य अवगाहना कुछ कम साढ़े तीन हाथ यह कौन से काल के जीवों की होगी ?
    चतुर्थ काल के अन्त में या पञ्चम काल के प्रारम्भ में । मनुष्यों की अवगाहना सात हाथ होती है । अत: उस समय आठ वर्ष के बालक की अवगाहना साढ़े तीन हाथ होगी और आठ वर्ष का बालक भी दीक्षा लेकर मोक्ष जा सकता है अत: उसी की अवगाहना कुछ कम साढ़े तीन हाथ होगी ।


    133. सिद्धों का आकार कैसा हैं ?
    सिद्ध भगवान् निराकार हैं, किन्तु आत्मप्रदेशों की अपेक्षा उनके आत्मा के प्रदेश पुरुषाकार होते हैं।

     

    134. सिद्ध भगवान् पुरुषाकार कैसे होते हैं ?
    जैसे - साँचा (सोना चाँदी गलाने की घरिया) के भीतर मोम रखकर मोम के चारों तरफ सोना चाँदी रखकर आभूषण ढालने के लिए मोम गलाकर फिर तैयार आभूषण निकाला जाता है तब वहाँ मोम रहित साँचा के बीच आकार पूर्व जैसा रह जाता है, इसी प्रकार जिस पूर्व शरीर में कर्मबद्ध जीव रहता था, , कर्म के नष्ट हो जाने पर, आत्मा के सिद्ध हो जाने पर आत्मप्रदेशों का वही आकार रह जाता है, जो पूर्व शरीर था ।


    135. सिद्ध लोक कैसा है ?
    ईषत् प्राग्भार अष्टम भूमि में स्थित सिद्धशिला के ऊपर अन्तिम तनु वातवलय के ऊपरी भाग में पैतालीस लाख योजन व्यास के बराबर स्थान सिद्ध लोक है ।


    136. आठ भूमियाँ कौन सी हैं ?
    धम्मादि सात पृथिवियाँ एवं ईषत्प्राग्भार सहित आठ भूमियाँ हैं । (ध.पु., 14/495)

     

    137. सिद्धों की आत्मा के प्रदेश लोक प्रमाण क्यों नहीं हो जाते हैं ?
    नाम कर्म का सम्बन्ध जीव के संकोच और विस्तार का कारण है, किन्तु उसका अभाव हो जाने से जीव के प्रदेशों का संकोच और विस्तार नहीं होता है। (स.सि., 928) नाम कर्म के सद्भाव में आत्मा चींटी के शरीर में जाता तो आत्मा के प्रदेश उतने शरीर में फैल जाते हैं, जब वही आत्मा हाथी के शरीर को प्राप्त होती है तो आत्मा के प्रदेश पूरे शरीर में फैल जाते हैं । सिद्ध भगवान् के नाम कर्म का अभाव होने से आत्म प्रदेश लोक प्रमाण फैलते नहीं हैं। पूर्व शरीर के समान रह जाते हैं ।


    जैसे - रोटी बनाते समय (कच्ची रोटी) संकोच विस्तार को प्राप्त होती है, किन्तु जब वह अङ्गारें पर सिक जाती है तब उसमें जल का अभाव होने से संकोच विस्तारको प्राप्त नहीं होते हैं । उसी प्रकार मुक्त जीव भी नाम कर्म का अभाव होने पर संकोच विस्तार को प्राप्त नहीं होते हैं ।


    138. सिद्धों में नया-नया परिणमन कैसे होता है उदाहरण दीजिए?
    जैसे- आधा घण्टा तक बिजली जली तो वहाँ प्रतिक्षण नई-नई बिजली हुई । लगातार होने से व समान प्रकाश होने से उसमें अन्तर मालूम नहीं होता है। वैसे ही सिद्धों के प्रतिसमय के परिणमन में अन्तर ज्ञात नहीं होता ।


    139. आठ प्रकार की मुक्ति बताइए ?

    1. मिथ्यात्व से मुक्ति- सौधर्मइन्द्र, लौकान्तिक देव, नव अनुदिश, पाँच अनुत्तर के देवों को ।
    2. असंयम से मुक्ति- आचार्य, उपाध्याय एवं साधुओं को ।
    3. प्रमाद से मुक्ति - छठवें गुणस्थान से ऊपर गुणस्थानवर्ती मुनिराजों को है।
    4. बादर कषाय से मुक्ति - क्षपक श्रेणी वाले दसवें, बारहवें गुणस्थान वाले तथा उससे ऊपर वाले जीव।
    5. सूक्ष्म कषाय से मुक्ति - बारहवें गुणस्थान से लेकर ऊपर वाले गुणस्थानवर्ती जीव ।
    6. अज्ञान से मुक्ति- बारहवें गुणस्थान से ऊपर वालों को है ।
    7. योग से मुक्ति- चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीवों को, सिद्धों को । 8. शरीर से मुक्ति - सिद्धों को ।

    ***


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