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  • अध्याय 40 - अनुप्रेक्षा

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    Vidyasagar.Guru

    बार-बार चिन्तन करने को अनुप्रेक्षा कहते हैं अर्थात् अपने-अपने नाम के अनुसार वस्तु के स्वरूप का विचार करना अनुप्रेक्षा है । अनुप्रेक्षाओं से भव्यजनों को आत्मिक सुख प्राप्त होता है, अतः उन्हें आनन्द की जननी अर्थात् माता कहा है । इन्हीं बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन इस अध्याय में है ।


    1. बारह अनुप्रेक्षाओं के नाम बताइए?
    1. अनित्य अनुप्रेक्षा, 2. अशरण अनुप्रेक्षा, 3. संसार अनुप्रेक्षा, 4. एकत्व अनुप्रेक्षा, 5. अन्यत्व अनुप्रेक्षा, 6. अशुचि अनुप्रेक्षा, 7. आस्रव अनुप्रेक्षा, 8. संवर अनुप्रेक्षा, 9. निर्जरा अनुप्रेक्षा, 10. लोक अनुप्रेक्षा, 11. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा, 12. धर्म अनुप्रेक्षा।


    2. अनित्यादि अनुप्रेक्षा किसे कहते हैं?
    1. अनित्य अनुप्रेक्षा- धन, यौवन, जीवन, दुकान, मकान, कारखाना, परिवार, वर्षायोग, रेल, मोटर, हवाई जहाज, गुलाबजामुन, मैसूरपाक, इमरती, डोसा, खाजा, गाठिया, वस्त्र, स्वर्ण, चाँदी के आभूषण, शास्त्र, शास्त्रों के रचयिता आदि समस्त पदार्थ बिजली की चमक के समान अनित्य हैं। ये कभी भी नित्य नहीं हो सकते हैं । अनित्य अनुप्रेक्षा का यही फल है कि संसार के विषयों को अनित्य जानकर उनसे मोह को त्यागे ।


    2. अशरण अनुप्रेक्षा - जैसे भयानक जङ्गल में बहुत दिनों से भूखे एवं बलवान सिंह के द्वारा पकड़े हुए हिरण को कोई भी नहीं बचा सकता है, वैसे ही कष्टों में व्यक्ति को और मृत्यु के मुख में पड़े हुए प्राणी को भी कोई नहीं बचा सकता । यदि मरते हुए मनुष्य को देव, मन्त्र, तन्त्र, औषध, क्षेत्रपाल, पद्मावती बचा सकते तो मनुष्य अमर हो जाते ।


    विशेष - 1. क्षेत्रपाल, पद्मावती, भवनवासी के देव - देवी हैं। इनकी भी आयु होती है। जब इनकी आयु पूर्ण हो जाती है तब इन्हें भी अपनी देवगति को छोड़कर अन्य गति में चले जाते हैं । तब विचार कीजिए जिन्हें मरना पड़ता है । वे तुम्हें मृत्यु से बचा सकते? कदापि नहीं ।


    अशरण अनुप्रेक्षा का यही फल है कि जब कोई किसी को शरण नहीं दे सकता है। यदि इस पर अटल आस्था है तो हम सब सुखी हो जाएंगें ।


    3. संसार अनुप्रेक्षा - कर्म विपाक के वश से आत्मा को भवान्तर की प्राप्ति होना संसार है। इस संसार में धनवान निर्धन हो जाता है। निर्धन धनवान् हो जाता है। राजा सेवक हो जाता है । और सेवक भी राजा हो जाता है । प्रातः पुत्र का जन्म होता है और सन्ध्या को पुत्र का मरण हो जाता है । चाय बेचने वाला भी प्रधानमन्त्री हो जाता है । दादा, नाती हो जाता है, नाती भी दादा हो जाता है । कहाँ तक कहे पिता स्वयं का पुत्र भी बन जाता है । यह संसार केले के वृक्ष के समान निस्सार है ।


    इस प्रकार संसार को जानकर सम्यक्त्व, व्रत ध्यान आदि समस्त उपायों से मोह को त्यागकर अपने उस शुद्ध ज्ञानमय स्वरूप का ध्यान करो, जिससे पाँच प्रकार के संसार भ्रमण का नाश होता है ।

     

    4. एकत्व अनुप्रेक्षा- यह आत्मा अकेला ही शुभाशुभ कर्म बाँधता है, अकेला ही अनादि संसार में भ्रमण करता है, अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है, अकेला अपने कर्मों का फल भोगता हैं। अकेला ही तीर्थङ्कर होता है, अकेला ही नरक जाता है, अर्थात् इसका कोई साथी नहीं है।


    इस प्रकार चिन्तन करते हुए इस जीव के स्वजनों में प्रीति का अनुबन्ध नहीं होता और परजनों में द्वेष का अनुबन्ध नहीं होता इसलिए निःसङ्गता को प्राप्त होकर मोक्ष के लिए प्रयत्न करता है । एकत्व में परम शान्ति है इसे कभी भी नहीं भूलना चाहिए।


    5. अन्यत्व अनुप्रेक्षा- आत्मा से शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र, शत्रु, माता-पिता, मामा-मामी, मौसा-मौसी, नाना-नानी, काका-काकी आदि भिन्न हैं । ऐसे चिन्तन को अन्यत्वानुप्रेक्षा कहते हैं ।


    जो आत्मस्वरूप से शरीर को यथार्थ में भिन्न जानकर अपनी आत्मा का ही ध्यान करता है,उसी की अन्यत्वानुप्रेक्षा कार्यकारी है।


    6. अशुचि अनुप्रेक्षा- यह शरीर दुर्गन्धमय है, मल-मूत्र का पिटारा है, खून - पीव का खजाना है। हड्डी, माँस आदि का घर है इसकी सङ्गति से अच्छे-अच्छे केसर, चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थ भी दुर्गन्धित हो जाते हैं। इस प्रकार का चिन्तन करना अशुचि अनुप्रेक्षा है ।


    प्राणियों को सबसे ज्यादा राग अपने शरीर से होता है, अशुचि अनुप्रेक्षा से शरीर से वैराग्य उत्पन्न हो जाए तब प्राणी शीघ्र ही मोक्षमार्ग पर चलने लगता है । यह अशुचि अनुप्रेक्षा का फल है ।

     

    7. आस्रव अनुप्रेक्षा - कर्मों का आना आस्रव है । अनादिकाल से बँधा यह जीव प्रतिक्षण नये-नये कर्मों को बाँधता रहता है एवं उन कर्मों के उदय आने पर सुख - दुःख का अनुभव करता है । अधिकांशतः दुःख का अनुभव करता है आस्रव इहलोक एवं परलोक दोनों में अधिकांशतः दुःखदायी है इस प्रकार आस्रव के दोषों का चिन्तन करना आस्रव अनुप्रेक्षा है । जब तक आस्रव है तब तक संसार रहेगा अतः सर्वप्रथम शुभोपयोग के द्वारा अशुभ आस्रव एवं दिगम्बर मुनि होकर शुद्धोपयोग के द्वारा शुभाशुभ दोनों आस्रवों को रोकना चाहिए।


    8. संवर अनुप्रेक्षा - आस्रव का रुक जाना संवर है । यदि आस्रव नहीं रोका गया तो समुद्र में छिद्र सहित नाव के समान इस जीव का पतन अवश्य है ।
    गुप्त, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह जय एवं चारित्र के द्वारा संवर होता है, इसका सदैव आदर करना चाहिए।


    9. निर्जरा अनुप्रेक्षा- जैसे गर्मी के कारण सरोवर का जल सूख जाता है, उसी प्रकार तप के द्वारा कर्मों का आत्मा से पृथक् होना / एक देश झड़ जाना निर्जरा है । वह निर्जरा दो प्रकार की है - सविपाक निर्जरा (समय से होने वाली) और अविपाक निर्जरा ( तप के द्वारा) । सविपाक निर्जरा से भी आत्मा का कुछ कल्याण नहीं होता, आत्मा का कल्याण अविपाक निर्जरा से ही होता है । इस प्रकार निर्जरा के गुण दोषों का चिन्तन करना निर्जरा अनुप्रेक्षा है। निर्जरा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। और निर्जरा तप से होती है । अत: अपने जीवन में शक्ति न छिपाकर तप करना चाहिए।


    10. लोक अनुप्रेक्षा- जहाँ जीवादि षट् द्रव्य पाए जाते हैं वह लोक कहलाता है, यह लोक अनादि व अकृत्रिम है इसके आकार लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई गति - आगति के बारे में चिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है। इस प्रकार लोक स्वरूप विचारने वाले के तत्त्वज्ञान की विशुद्धि होती है । (स.सि., 808)

     

    11. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा - मोक्ष के साधनभूत रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) का प्राप्त होना बोधि कहलाती है। इस बोधि की दुर्लभता के विषय में चिन्तन करना बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा है ।

     

    12. धर्म अनुप्रेक्षा - संसारी प्राणियों को जो दुःख से उठाकर उत्तम सुख में धरता है, उसे धर्म कहते हैं । वह धर्म उत्तम क्षमादि रूप, रत्नत्रय रूप, दयामयी एवं वस्तु के स्वभाव रूप होता है। इस संसार में धर्म को छोड़कर कोई सच्चा मित्र नहीं है। ऐसा चिन्तन करना धर्म अनुप्रेक्षा है ।


    धर्म और अधर्म का अनेक प्रकार माहात्म्य देखकर सदा धर्म का आचरण करना चाहिए और पाप से दूर रहना चाहिए ।

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