पुरुष धन कमाता है। नारी धन नहीं कमाती । किन्तु घर को सुचारु रूप से कैसे चलाए इसके लिए स्त्रियों की चौसठ ( 64 ) कलाएँ होती हैं। उन्हीं कलाओं का इस अध्याय में वर्णन है ।
1. स्त्रियों की चौसठ कलाओं का विस्तार बताइए?
1. से 15. - नृत्य, चित्र, बाजिन्त्र, मन्त्र, यन्त्र, मेघ वृष्टि, शकुन विचार, गज, अश्व, नर-नारी लक्षण, वैद्यक, अञ्जन, वाणिज्य, कवित्व षड्भाषा और वीणादिनाद इन पन्द्रह कलाओं का परिज्ञान विधिपूर्वक पुरुषों के समान स्त्रियों को भी करवाया जाता है। और वे भी पुरुषों की भाँति ही इन कलाओं में कुशल बनती हैं।
16. औचित्य कला - इस कला के द्वारा, उन्हें किसी कार्य के उचित या अनुचित होने का बोध कराया जाता है ।
17. ज्ञानकला- स्त्रियाँ घर की लक्ष्मी और माता के रूप में वे ही एक, अच्छे एक हजार शिक्षकों की गरज बच्चों के लिए पूरा करने वाली होती है । अत: घर की सब प्रकार की सुव्यवस्था रखने, बच्चों का लालन-पालन शास्त्रीय रीति से करने, पति के द्वारा अपनी कोख से मनचाही सन्तान प्राप्त करवाने, पति और घर का हर प्रकार से मनोरञ्जन करते हुए लोकप्रिय बनने और घर या विशेष बच्चे की बीमारी में एक अच्छे वैद्य का काम देने और पति यदि कुमार्गगामी है तो उसे देखकर नम्रतापूर्वक सुसलाह देने आदि के लिए धर्म मूलक रूप से जितना पढ़ लिखकर ज्ञान सम्पादन करने की आवश्यकता होती, इस कला के द्वारा उन्हें बोध व्यावहारिक से कराया जाता है ।
18. विज्ञान कला- दूसरों के सहारे नहीं, वरन् अपने ही ज्ञान और बुद्धि बल से, अपने अनुभव के आधार पर, जिन नयी-नयी बातों का शोध लगाया जाता है, वह विज्ञान कहलाता है। गृहस्थी के जीवन और सुख की वृद्धि के लिए किफायत राशि से भावी माताओं और बहिनों को इस कला के द्वारा, भिन्न- भिन्न पदार्थों या एक ही पदार्थ में, भिन्न-भिन्न पदार्थों के, किस परिमाण के साथ मिला देने से, उन के रङ्ग, रूप, स्वाद और उन के सेवन से शरीर पर होने वाले असर में क्या अन्तर आ जाता है, भली भाँति बताया जाता है। इसमें उन के हाथ और आँखों को उन की बुद्धि के साथ इस तरह व्यवहार के रूप में सधा दिया जाता है । कि फिर उन्हें नापने, तौलने या परखने की जरा भी कभी कोई जरूरत नहीं पड़ती थी। फिर इस में विद्वत्ता प्राप्त विदुषियों की परीक्षा भी, आतिथ्य सत्कार करने, रसोई बनाने बच्चों का लालन-पालन करने तथा उन को रोग मुक्त करने और उन के भावी जीवन की नींव को पक्का बनाने आदि के समय, व्यवहार रूप में की जाती है ।
19. दम्भ कला- पर पुरुषों या पापी जनों के पजे में पड़ कर उनके अपने सतीत्व को भ्रष्ट न होने देने के लिए, अनेक प्रकार के सात्विक छल-कपट करने की विधियाँ इस कला के द्वारा उन्हें बताई जाती हैं ।
20. जल स्तम्भन कला - इस कला के द्वारा अपना तथा अपने कुटुम्ब का मनोरञ्जन करने के लिए, बिना किसी मशीन आदि की सहायता से सुगमता पूर्वक और चाहे जिस जलपात्र या जलाशय से भाँति भाँति के फब्बारों का छोड़ा जाना नारियों को सिखाते हैं ।
21.गीतज्ञान कला- समयानुकूल भाँति-भाँति के गीतों को तरह-तरह के राग-रागिनियों के द्वारा गाना और आशुकवि के समान, मनचाही और एक बार सुनी बात पर गीत बना देना, आदि बातों का विधिवत् ज्ञान इस कला के द्वारा उन्हें कराया जाता है ।
22. ताल तान- इससे उन्हें पैर अथवा हाथों के द्वारा बाजा, ढोलक मृदंग तबला तथा गायक की गति के अनुसार, ताल मारना बताया जाता है ।
23. आराम रोपण- आराम = बगीचा । इस कला के द्वारा, उन्हें तरह-तरह के आकार प्रकारों में पौधों को लगाकर या रोककर फुलवारियों की रचना का कार्य सिखाया जाता है ।
24. आकार गोपन - एक बार पति के लिए सच्चे और चतुर सलाहकार का रूप धारण करना, तो दूसरी बार उस को झंझट में फँसा देखकर अपनी कुशाग्रबुद्धि और हाजिर जवाब के द्वारा उस की मुश्किल को हल करने में उसके लिए सलाहकार का रूप बनाना । फिर वही धर्म कार्य में पिता का व्यवहार अपनाकर पति के साथ करती देखी जाती है तो चौथी बार खिलाते पिलाते समय माता के रूप में सामने आती है, वहीं पाँचवी बार रति के समय एक रति नारी के रूप में पति को मिलती है। तो छठी बार पति के रोगी, अपाहिज कोढ़ी, दीन दुनिया से गया बीता हो जाने पर भी मेहनत मजदूरी के द्वारा उस का पेट पालन करने में पहले ' अशरण शरण दाता' और फिर परम स्वामिभक्त सेवक के रूप में वही उसकी सेवा शुश्रूषा करती देखी जाती है और सातवीं बार अन्य कामी लम्पट पुरुषों के लिए वही काल सर्पिणी का क्रोध भरा रूप धारण कर उसका सर्वस्व नाश करने के लिए दौड़ती दिख पड़ती है । यों अनेक प्रकार से अपना रूप बदल करने की सच्ची शिक्षा, इस कला के द्वारा नारियों को बचपन से ही दी जाती है ।
25-26. धर्म विचार और धर्म नीति कला- इन कलाओं के द्वारा उन्हें बताया जाता है कि स्त्रियों के लिए सच्चा धर्म और धार्मिक नीति वास्तव में किस बात में है । इन्हीं कलाओं की सत् शिक्षा के द्वारा उनमें पति सेवा के भाव कूट-कूट कर भरे जाते हैं । सतीत्व रक्षण का पाठ भी उन्हें पढ़ाया जाता है ।
27. प्रसाद नीति कला- इस कला के द्वारा, उन्हें करुणा पूर्ण और मधुर भाषित बनाने का प्रयत्न किया जाता है ।
28. संस्कृत जल्पन कला - इस कला के द्वारा, उन्हें संस्कृत भाषा का इतना ज्ञान करा दिया जाता है, कि जिससे वे धारा प्रवाह रूप में संस्कृत भाषा के द्वारा अपने हृदयगत भावों को प्रगट कर सके ।
29. स्वर्ण वृद्धि कला - इस कला से, उन्हें गृहस्थी में तरह-तरह के कम खर्च में गृहस्थी को सुखी और सम्पन्न बनाने की उचित शिक्षा दी जाती है ।
30. सुगन्ध ( तेल सुरभि ) करण कला - इस कला के द्वारा, नारियों को उन के ज्ञान और विज्ञान के बल पर तरह-तरह के सुगन्धित अर्क खींचने, तेल बनाने, इत्र, फुलैल आदि तैयार करने की शास्त्रीय शिक्षा दी जाती है।
31.लीला सञ्चारण कला - इस कला से तरह-तरह से क्रीड़ाओं का करना सिखाया जाता है ।
32. काम क्रिया कला - इस कला के द्वारा जहाँ नारियों को पति का मनोरञ्जन करने और उस के साथ प्रेम वृद्धि की विधिवत् शिक्षा दी जाती है । वहाँ उन्हें संयम रखने और संयम से इहलोक तथा परलोक के सुधारने की भी पूर्णरूप से पहचान कराई जाती है ।
33. लिपिछेद या अष्टादश लिपि परिच्छेद- कुल मुख्य-मुख्य लिपियाँ कितनी हैं ? नारियों को उन्हें सीख लेने से, उन की सन्तानों पर इसका क्या असर पड़ता है? इन लिपियों को जान लेने पर, उन के बच्चे कितनी छोटी-सी उम्र में बहुभाषा भाषी बन जाते हैं और आगे चलकर वे किस तरह भाषा विज्ञान के विशेषज्ञ बनते हैं अनेक प्रकार की लिपियों को स्मरण रखने और लिखने में स्मरण शक्ति के साथ आँख और हाथों को किस प्रकार साधने का स्वाभाविक अभ्यास हो जाता है ? आदि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा करवाया जाता है ?
34. तत्काल बुद्धि कला- अपनी इस कला के द्वारा किसी भी कठिनतम विषय को, साहस एवं धैर्य के साथ, पूर्ण रूप से सफल बनाने की शिक्षा दी जाती है ।
35. वस्तु शुद्धि कला - भोज्य और पेय पदार्थों को शुद्ध कैसे किया जाता है? उन्हें शुद्ध करके काम में लाना चाहिए? घरों और वस्त्रों को शुद्ध बनाए रखने की क्या आवश्यकता है? इन सब बातों की शुद्धि से मन, बुद्धि और शरीर पर क्या अच्छा प्रभाव पड़ता है ? प्रत्येक प्रकार की शुद्धि के रखने से रोगों के आक्रमण से मनुष्य कैसे बच जाते हैं ? आदि बातों की शिक्षा, इसके अन्तर्गत नारियों को दी जाती है ।
36. सुवर्ण रत्न शुद्धि कला - इस के द्वारा, नारियों को अपने आभूषणों को जो सोने तथा रत्नों के बने होते और उपयोग पश्चात् जिनकी चमक दमक में कुछ अन्तर आ जाता पुनः पहले के समान चमकदार बना लेने की शिक्षा दी जाती है ।
37. चूर्ण योग कला- समय - समय पर तरह-तरह की उन सुस्वादु चटनियों और चूर्णों का बनना जिन से पाचन शक्ति बढ़े पेट का विकार दूर हो, शरीर की कान्ति और शक्ति में उन्नति हो और शरीर में वात, पित्त और कफ की समानता रहे तथा जिन का सेवन करते रहने से, मौसम के अनुसार भोजन में अरुचि उत्पन्न न हो सके, आदि काम व्यवहारिक रूप से इस कला के द्वारा नारियों को सिखाया जाता है ।
38. हस्त लाघव कला - इस कला में हाथों की चञ्चलता के साथ नचाने और उनसे प्रत्येक प्रकार के काम अधिक से अधिक लाघव के साथ लेने की साधना को काम में लाने का समावेश होता है ।
39. वचन पटुत्व कला - इस कला से अधिकारी को देखकर बातचीत करना और उसके द्वारा कठिन सेकठिन कामों को आसानी के साथ हाँ कहने में निकाल सकने की क्षमता प्राप्त करना, नारियों को सिखाया जाता है ।
40. भोज्य विधि कला - पाक शास्त्र की विधिवत् शिक्षा नारियों को दी जाती है। इतना ही नहीं, देश काल और पात्र की प्रकृति के अनुसार उन में किन-किन विशेष परिवर्तनों की आवश्यकता है। जिन से भोज्य पदार्थों का सेवन करने से वे स्वास्थ्य के लिए सुखकर प्रतीत हो, इस बात का बोध भी उन्हें इसके द्वारा दिया जाता है ।
41. व्याकरण कला - व्याकरण क्या है ? उस की आवश्यकता क्यों होती है? बच्चों को जन्म ही से शुद्ध बोलने, लिखने और पढ़ने की कलाओं की शिक्षा देने में माताओं को व्याकरण का ज्ञान करा देना, कहाँ तक उपयोगी और बच्चों के समय की बचत करने वाला है । शब्दों की व्युत्पत्ति के साथ प्रत्यय, उपसर्ग, सन्धि और समास का ज्ञान करा देने पर, किसी भी अपरिचित शब्द का अर्थ लगाने में कितनी सुगमता होती है । और शब्द भण्डार की किस प्रकार की असीमित वृद्धि होती रहती है। आदि बातों का ज्ञान इस कला के माध्यम से होता है ।
42. शालिखण्डन कला - इस से शालि (धान) को कूट कर उसमें से चावलों को साफ सुथरे और अखण्ड रूप से निकालने की शिक्षा उन्हें दी जाती है ।
43. मुख मण्डन कला - इस कला से चेहरे पर भाँति-भाँति के तिल गोदकर उसे सुशोभित बनाने की विधियाँ बताई जाती है।
44. कथाकथन कला - इस कला से समयानुसार और तरह-तरह की कथाओं को उनके भिन्न-भिन्न तरीकों से कहने की शैली का परिचय पूर्ण रूप से करा दिया जाता है । जिससे वे समुचित शिक्षा और सदुपदेश की प्राप्ति के साथ चारित्र का संगठन भी भलीभाँति होता रहे ।
45. कुसुम गूँथन कला- इस कला से उन्हें तरह-तरह के हारों-गजरों, गुलदस्तों, शीशफूलों आदि- आदि फूलों के गहनों को बनाने की विधिपूर्वक शिक्षा दी जाती है।
46. शृंगारसज कला - इस कला के द्वारा स्त्रियों को समय-समय के अनुसार अपने भाँति-भाँति के श्रृंगारों को सजाने की शिक्षा व्यवहारिक रूप से दी जाती है ।
47. अभिधान कला- यह कला वस्त्रों के पहनने का विधान बताने वाली है । देश, काल और व्यक्ति की अवस्था तथा प्रकृति के अनुसार, वेशभूषा में परिवर्तन करना भी इसी कला से सिखाया जाता है ।
विशेष- बालिकाओं एवं महिलाओं का परिधान ऐसा होता जिससे अङ्गों का ज्यादा प्रदर्शन न हो एवं वस्त्र इतने मोटे हो कि अङ्ग दिखाई न दे।
48 आभरण सज कला - आभरण क्या है? सदाचार के लिए सुहागिन महिलाओं का आभरण पहनना,वैज्ञानिक रूप से कितना आवश्यक है । जहाँ सदाचार की रक्षा और शरीर के सौन्दर्य में बढ़ती उन से होती है, वहाँ निरोगता को बनाए रखने और कृषि प्रधान देशों में समय असमय की निर्धनता को दूर करने में कहाँ तक उनका हाथ रहता है? वे मुख्यत: कितने और कौन-कौन से होते है ? वे शरीर के मुख्य रूप से बारह अङ्गों में ही क्यों पहने जाते हैं? पतिव्रता विधवाओं के लिए उन में से बहुतसों का त्याग क्यों अच्छा कहा जाता है? सुहागिन महिलाएँ उन्हें पहनकर अनेक रोगों से कैसे बच जाती हैं आदि बातों का ज्ञान, शरीर शास्त्र के अनुसार, उन्हें दिया जाता है ।
49. भृत्योपचार कला- घर के नौकरों के साथ जो वास्तव में घर की शोभा बनाए रखने में कारण होते हैं कैसा व्यवहार करना चाहिए ? उन के दुःख दर्दों में उनकी सेवा शुश्रूषा कैसी करनी चाहिए? उनके लिए सहानुभूति दिखाते रहने पर, वे पराये से पराये हो कर भी अपने कैसे बन जाते हैं? आदि बातों की व्यवहार रूप में शिक्षा देना, इस कला का कार्य है ।
50. गृह्याचार कला - इस के द्वारा, घर की कुलनीति को जानकर तदनुसार गृहस्थी के शील और सदाचार को बनाये रखने की बात इस कला से जानते हैं ।
51. सञ्चय करण कला - " सकल वस्तु संग्रह करे, आवे कोई दिन काम ।" इस कथन के अनुसार नारियों को आवश्यक और अनावश्यक सभी वस्तुओं को संग्रह करके रखने की आवश्यकता और उनके उपयोगों का अनुमान करने का अभ्यास इस कला के द्वारा कराया जाता है ।
52. धान्य रन्धन कला - इस कला से सभी प्रकार के धान्यों को सिझाने और पकाने की क्रियाएँ शास्त्रीय रूप से बताई जाती हैं ।
53. केश बन्धन कला - केशों को धोकर और कंघी कर साफ सुथरा क्यों रखना चाहिए ? उन्हें बान्धना क्यों और कैसे चाहिए तथा कब चाहिए वे किस-किस प्रकार से बाँधे जाते हैं किस प्रकार के तेल आदि का उपयोग उन के लिए करना चाहिए, जिनसे वे चिकने काले लम्बे, सुकोमल और चमकीले बने रहें? आदि बातों का विधिवत् ज्ञान इस कला के द्वारा नारियों को कराया जाता है ।
54. वितण्डावाद कला - वाद विवाद कैसे किया जाता है, किससे करना चाहिए इस कला से नारियों को सिखाया जाता है।
55. अङ्क विचार कला - आवश्यक हिसाब-किताब के लिए गणित का ज्ञान कराया जाता है जो आगे चलकर गृहस्थी के लिए उपयोगी पड़े इस कला से उन्हें बताया जाता है।
56. लोक व्यवहार कला - इस के द्वारा संसार नीति की शिक्षा नारियों को दी जाती है, और उन्हें बताया जाता है कि किस के साथ कब-कब, कैसा व्यवहार करना चाहिए, जिससे सद्भावनाओं की वृद्धि के साथ धन और धर्म की रक्षा होती रहे और लोक तथा परलोक भी जिससे बिगड़ने न पावे ।
57. प्रश्न पहेलियाँ कला - इस कला से नारियाँ तरह-तरह के प्रश्नों के रूप में, बड़े ही बुद्धिवर्धक और मनोरञ्जक तथा कई प्रकार के उपयोगी तत्त्वों से भरे हुए प्रश्नों को पूछता और उनके उत्तरों को, अपनी कुशाग्र तथा तात्कालिक बुद्धि बल से बताती या निकालती हैं।
58. अन्ताक्षरी कला - इस के द्वारा नारियों को किसी भी बात का अन्ताक्षर कह कर, उस के सहारे पूरी बात का निकलवाना बतलाया जाता है। या यूँ कहों कि इस से वे भाँति-भाँति की समस्याओं को पूरा करने की युक्तियाँ जान पाती हैं।
59 से 64. इसी प्रकार, क्रिया कल्प, वर्णिका वृद्धि, घटभ्रमण, सार परिश्रम, पर निराकरण और फल वृष्टि की कलाओं का ज्ञान भी विधिवत् करवाया जाता है।
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आचार्य रूपी वैद्य
संघ में आचार्य तो महाज्ञानी वैद्य हैं, संसार से विरक्त हुआ शिष्य रोगी है, पापरहित चर्या ही औषधि है, पाप रहित स्थान ही उसके योग्य क्षेत्र हैं और वैयावृत्त्य करने वाले उसके सहायक हैं । वे आचार्य रूपी वैद्य इस सामग्री से उस रोगी मुनि को कर्म रूपी रोग को नष्ट कर शीघ्र ही निरोग सिद्ध बना देते हैं। (मू.प्र., 2557-2558)