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  • अध्याय 38 - पुरुषों की बहत्तर कला

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    Vidyasagar.Guru

    लोक व्यवहार हो या परमार्थ सभी में ज्ञान का मूल्य है लोक व्यवहार में मनुष्य अपनी आजीविका के लिए क्या करें ? उसके लिए पुरुषों की बहत्तर ( 72 ) कलाएँ होती हैं। हम सब देखते है कि हर एक आदमी में कोई न कोई कला होती है उन्हीं कलाओं का यहाँ वर्णन किया है ।


    1. भोगभूमि जीवों के पास कितनी कितनी कलाएँ होती हैं?
    भोगभूमियाँ पुरुष (72) कला सहित एवं स्त्रियाँ चौसठ ( 64 ) गुणों ( कलाओं) से समन्वित होती हैं। (व.श्रा., 263)


    विशेष- भोगभूमि जीवों को ये कलाएँ स्वभाव से प्राप्त होती हैं तथा कर्मभूमि में पुरुषों एवं महिलाओं को कुछ कलाएँ पूर्व के क्षयोपशम से प्राप्त होती हैं । एवं कुछ को पुरुषार्थ से प्राप्त किया जाता है। उन्हीं कलाओं का यहाँ वर्णन किया जा रहा है ।


    1. लिखने की कला - इस कला के द्वारा मनुष्य अपने मन के विचारों को बिना एक अक्षर भी मुँह से बोले, दूसरों पर भलीभाँति प्रकट कर सकता है । इसी कला के द्वारा, मनुष्य भूतकाल की बातों को वर्तमान में और वर्तमान की अवस्था को भविष्यत् काल में एक धरोहर की भाँति जब चाहे देख सकता है आदि।


    विशेष- तीर्थङ्करों की वाणी को गौतम गणधर ने गूँथा और परम्परा से आचार्यों ने लेखन कार्य किया जो आज मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका उस जिनवाणी को पढ़कर अपना कल्याण कर रहे हैं ।


    2. गिनने की या गणित की कला - इस कला से वस्तुओं की सँख्या और उनके परिमाण या नाप-तौल का उचित ज्ञान कराया जाता है ।


    विशेष- आज मोबाइल एवं कम्प्यूटर ने विद्यार्थियों का गणित बहुत कमजोर कर दिया है। ईस्वी सन् 2000 तक स्कूलों में एक परीक्षा होती थी मनगणित अर्थात् बिना कापी, पेन्सिल, पेन के मन में ही गणित हल करना । जिसमें पहले विद्यार्थियों का गणित विषय पक्का रहता था ।


    3. रूप परार्वतन की कला - इस कला का पूरा-पूरा ज्ञान प्राप्त कर के लेप्य, शिला, सुवर्ण, मणि, वस्त्र और चित्र आदि के रूप का निर्माण कर सकते हैं ।


    विशेष - कम्प्यूटर के इस युग में कपड़े, पत्थर, लकड़ी, धातु आदि में अनेक रूप दिए जाते जिससे वह वस्तु अधिक आकर्षित लगती है।


    4. नृत्यकला - इस कला में सुर, ताल आदि की गति के अनुसार भाँति-भाँति के नाचने के प्रकार सिखाये जाते हैं।


    विशेष- नृत्य कला मात्र महिलाओं की ही नहीं पुरुषों की भी होती है और प्रसंग पुरुषों का है । यही कारण है कि जन्म कल्याणक के समय सौधर्म इन्द्र ताण्डवनृत्य करता है । शची नहीं ।


    5. गीतकला - इस के द्वारा लोग जान जाते थे, कि किस समय में कौन-सा स्वर अलापना (बोलना या गाना) चाहिए?


    उस स्वर के समय अलापने से प्रकृति और जड़ जगह पर उस का क्या असर पड़ता है । इसी कला के द्वारा छ: प्रकार के राग और छत्तीस (36) प्रकार की रागिनियों का आविष्कार जगत् में हुआ था । आज जो अनेक काम लोग विपुल धन और बड़े-बड़े यन्त्रों से लेते रहते हैं। वे काम उस जमाने में लोग गीत कला के द्वारा राग-रागिनियों को आलाप कर लिया करते थे । उदाहरणार्थ मल्हार राग के द्वारा असमय में और कहीं भी, वर्षा का प्राकृतिक साज सजा लिया जाता था दीपकराग से, अन्धकार पूर्ण भूभाग का जगमगाते हुए प्रकाश से परिपूर्ण बना लिया जाता था। एक राग ऐसा भी अलापा जाता था, जिसके द्वारा पेट में का पत्थर(यह पथरी रोग में हो जाया करता है) तक पानी के रूप में बदल कर बाहर निकाल दिया जाता था। आदि । कहने का आशय यह है कि इस कला के द्वारा लोगों ने भली-भाँति यह जान लिया था, कि प्रकृति के साथ मन का मेल कैसे मिलाया जाता है । यह कला जगत् के सभी प्राणियों को प्यारी है ।


    विशेष- माँ का दूध नहीं पीने वाला गोदी का बच्चा गीत सुनकर दूध पीने लगता है । जिस बच्चे को निद्रा नहीं आ रही है वह बच्चा भी गीत सुनकर शयन करने लगता है ।


    6. ताल कला- इस कला के द्वारा मनुष्य संगीत के सात स्वरों अर्थात् षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम,धैवत और निषाद के अनुसार अपने हाथ या पैरों की गति को ढोलक या मृदंग या तबला आदि पर या केवल ताली अथवा चुटकी बजाकर और जमीन पर पैर की डाँट लगाकर साधते हैं ।


    विशेष- संगीत सुनते समय गाय भी ज्यादा दूध देती है ।


    7. बाजिन्त्र कला - इस से मनुष्य संगीत के सातों स्वर-भेद, ताल, डाँट आदि की गति को देखकर बाजे बजाना सीखते हैं। इसी कला के द्वारा जीव मनोरंजन और मनमोहकता में इतना अधिक मगन हो जाता है कि जिससे अपने आपे तक का कोई भान नहीं रह पाता । विषैले सर्प जैसे भयानक जन्तुओं और हिरण जैसे चञ्चल से चञ्चल अर्थात् पशुओं तक को आसानी के साथ, इसी कला के द्वारा वश में करते हैं । इस में गीत कला का मेल कर इन दोनों की शक्ति से संसार के और भी अनेक कठिन काम निकाले जाते हैं ।


    8. बाँसुरी बजाने की कला - इस से लोग बाँसुरी और भेरी आदि को अनेक प्रकार से बजाना सीखते हैं । इस कला के द्वारा भी जगत् के अनेक अनोखे और अनहोने कार्य होते हैं ।


    9. नर लक्षण कला - इस कला से यह जाना जा सकता है, कि कौन पुरुष किस प्रकृति वाला है, कौन पुरुष किस पद और काम के लिए उपयोगी और अनुकूल है तथा कौन किस पद के लिए निरूपयोगी और निर्बल है, आदि बातें केवल पुरुष के शरीर और उस की रहन-सहन तथा बोलचाल खानपान आदि को देखकर ही जानी जाती है ।

    10. नारी लक्षण कला- इस कला के द्वारा नारियों की जातियाँ पहचानी जाती हैं। अर्थात् वे पद्मिनी, हस्तिनी, चित्रनी, शंखनी इन चार में से किस जाति की हैं ? फिर किस जाति वाली स्त्री का किस गुणवाले पुरुष के साथ सम्बन्ध होना चाहिए, जिससे आगे चलकर उनकी गृहस्थी की गाड़ी सुखपूर्वक जीवन की सड़क पर चलती रहे। इतना ही नहीं नारियों की शारीरिक प्रकृति, उन की रहन-सहन आदि को दर से देखकर कि किस की कोख से वीर या दानी या धर्मात्मा या तत्त्वदर्शी बालक का प्रसव हो सकता है । और कौन किस-किस प्रकार के व्यवसायी बालकों की जननी बनेगी आदि ।


    11. गज लक्षण कला - इस कला के द्वारा मनुष्यों को तरह-तरह के आकार प्रकार और लक्षण वाले तथा गजमुक्ता धारण करने वाले हाथियों की पहचान करते हैं । तथा अमुक रङ्ग, रूप, आकार, प्रकार का हाथी किसी के घर में आ बन्धने से, वह दरिद्री से धनी या धनी से दरिद्री बन जायेगा ।


    12. अश्व लक्षण कला - इस कला में प्रवीण बनकर संसार भर के घोड़ों की परीक्षा करना जान सकते हैं । घोड़ा असली नस्ल का है या वह संकर नस्ल का है। श्याम वर्ण या चारों पैर सफेद जिस के हो, ऐसे घोड़ों का शुभाशुभ होना भी इस कला से जाना जाता है ।


    13. दण्ड लक्षण कला - इस कला के द्वारा यह जाना जाता है कि किस वर्ण के लोगों के पास किस परिमाण की ऊँची तथा मोटी लकड़ी का रखना आवश्यक है । उस के अमुक परिमाण का होना, अमुक वर्ण या जाति के लिए अमुक कारण से आवश्यक होता है । किस के दण्ड में ऊँचाई के पैमा के खास चिह्न बने रहते हैं, दण्ड धारण करने का मुख्य उद्देश्य और उपयोग क्या है ? राजाओं तथा सन्तरियों के हाथों में कितना ऊँचा और किस मोटाई का दण्ड होना चाहिए ?


    14. रत्न परीक्षा कला - इस कला के द्वारा जहाँ रत्नों की कम या अधिक मूल्य का निर्धारण करना लोग सीखते हैं तथा कौन सा रत्न किस समय के लिए किस पुरुष को पहनना उपयोगी है, किस जाति के रत्न, किस भूमि में पाए जाते हैं और वे वहाँ से किस प्रकार से अधिकाधिक रत्न किस समय प्राप्त हो सकते हैं और कौन-कौन से रत्न की भस्म किस रोग के लिए उचित है आदि का ज्ञान इस कला से प्राप्त होता है।


    15. धातुर्वाद कला - इस कला से धातुओं का खरा खोटा (दूषित) होने की पहचान करना होता है। उन का घनत्व आदि निकालने कि क्रियाओं का ज्ञान होता है । किस जमीन में किस मौसम में कौन-सी धातुएँ बहुतायत में मिलती हैं । तथा उनके रङ्ग, चमक लचीलापन आदि बातों के भिन्न-भिन्न होने से कौन-कौन सी धातुएँ बनती हैं, किस धातु के तार किस लम्बाई तक खींचा जा सकता है, किस-किस धातुओं के मिश्रण से विद्युत् की धारा निकलने लगती है। बर्तन, सिक्के, औजार, आभूषण, छड़े, पाँते, पेटियाँ, कीलें आदि चीजों के लिए कौन-सी पृथक्-पृथक् धातुएँ आवश्यक, उपयोगी, टिकाऊ और अनुकूल हैं । और कौन- सी धातुएँ शरीर की किन-किन बीमारियों के लिए उपयोगी हैं तथा खदानों में से धातुओं को खोदकर निकालते रहने पर भूकम्प का भय और ज्वालामुखी के अचानक विस्फोटन से संख्यातीत प्राणियों का संहार होते-होते कैसे बचा जाता है ? आदि सभी बातों का ज्ञान मनुष्य इसी कला के द्वारा जान पाता है । और अन्त में तापदायक आदि यन्त्रों के लिए पारा ही क्यों अनुकूल और उपयोगी है । यह बात भी धातुर्वाद विद् भली भाँति जानता है ।


    16. मन्त्रवाद- किस मन्त्र से विधानादि के समय किस देवता का आह्वान किया जाता है । कोई भी मन्त्र कैसे सिद्ध किया जाता है । मन्त्रों के जप जाप से अनिष्ट भी इष्ट और शत्रु भी मित्र कैसे बनाए जा सकते हैं । मन्त्रों की दिव्य शक्ति शरीर के सम्पूर्ण अरिष्टों को कैसे समूल नाश करती है । किस मन्त्र का जप- जाप कितना, कब, कहाँ और किस विधि विधान के साथ करने से मनोवाञ्छित फल की प्राप्ति हो सकती है। सब से बड़ा और भव रोग का नाश करने वाला कौन - सा मन्त्र है । किस मन्त्र के प्रसाद से मनुष्य, मोक्षमार्ग का अनुगामी बन सकता है। मारण, मोहन, वशीकरण, स्तम्भन, आदि छ: भले और बुरे प्रयोगों को किन-किन मन्त्रों की सहायता से सिद्ध कर सकते हैं। आदि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा लोगों को सिखाया जाता है।


    17. कवित्व शक्ति कला- इस कला की सहायता से लोग, कवि बनना जान जाते हैं । फिर वे राग (लय) की भाषा द्वारा कठिन से कठिन और बड़ी से बड़ी तथा गम्भीर बात को सरल से सरल और छोटे से छोटे रूप में यों कह सकते थे कि जिस से साधारण से साधारण पुरुष भी उस बात को याद रख सकें। इसी कला ने छन्द शाखा को व्यवस्थित रूप दिया। वर्ण और मात्राओं के प्रस्तार भेद से छन्दों के हजारों भेद-प्रभेद ढूढ़ निकाले गए। इस कला ने गीत, वाद्य, नाच, चित्रकारी आदि अनेक और भी ललित कलाओं को जन्म दिया। कवि के काम में लोगों ने 'गागर में सागर' के दर्शन किये । काव्य के वीर, करुण, शृङ्गार, हास्य, रौद्र, वीभत्स, अद्भुत, शान्त और भयानक इन नौ रसों की उत्पत्ति हुई । कवि ने अपनी कल्पना शक्ति के साथ लिखने तथा पढ़ने की कला को मिलाकर एक प्रकार का घोल तैयार किया। फिर इस घोल में समय-समय पर काव्य के रस विशेष का पुट दे कर तरह-तरह के काव्य ग्रन्थों के रूप में, कुछ निराले ही जायकेदार पदार्थ, संसार के सामने रखें। कवि के बारे में कहा जाता है 'जहाँ न पहुँचें रवि वहाँ पहुँचे कवि । '


    विशेष - कवि बहुत बड़ी या लम्बी बात को संक्षिप्त से कैसे कहते हैं ।
    उदाहरण-

    1. रामायण क्या है ?

    राम और रावण दो जन्ना, उनने उनकी नार हरन्ना ।

    इससे उनने उनको मारन्ना, इतनी सी काथन्ना।

    और तुलसी लिख गए पोथन्ना ।

    2. तत्त्व का सार क्या है-

    जीव जुदा, पुद्गल जुदा, यही तत्त्व का सार है। बाकी सब विस्तार है ।

     

    18. तर्कशास्त्र - यह कला ज्ञान सम्पादन कर मनुष्य, जगत् के प्रत्येक कार्य से उसके कारण को, और किसी भी कारण से उस के कार्य को, आसानी के साथ और क्रमपूर्वक, निकाल सकने का कौशल प्राप्त कर सकता है। इस कला में जो नर पहुँचा हुआ होता वह बड़ा ही प्रखर बुद्धि हाजिर जवाब, प्रकृति के प्रत्येक छोटे से छोटे और बड़े से बड़े पदार्थों या उन की बनी हुई वस्तुओं को बड़ी ही बारीकि से देखने वाला घोर से घोर आपदा आ पड़ने पर भी कभी न घबरा उठने वाला प्रशान्त और सदा मगन मन और हर एक काम को पूरा करने वाला होता है ।


    19. नीतिशास्त्र कला - इस कला के द्वारा सद्-असद् या खरे-खोटे के विवेक का परिचय, मनुष्य को मिल जाता है, इस से वह यह भी जान जाता है कि नीतिवान् पुरुष के शरीर का नाश हो जाने पर भी, वह किस प्रकार अपने यश रूपी शरीर से संसार में सदा जीवित रहता है और अनीतिमान् के सब प्रकार से सबल, सधन, सज्ञान और सतर्क होने पर भी, संसार से शीघ्र ही उसका अध:पतन हो जाता है फिर जो पुरुष नीति शास्त्र की कला में पारंगत बनना चाहता था, उसे राजनीति, धर्मनीति, कूटनीति, साधारण नीति और व्यवहारनीति आदि सम्पूर्ण नीतियों का कुछ न कुछ ज्ञान अवश्य ही प्राप्त कर लेना आवश्यक होता है। लोगों ने धर्मनीति, रणनीति, वाणिज्यनीति आदि में भी कुशलता नीतिशास्त्र की कला से प्राप्त की है।

     

    20. तत्त्वविचार धर्मशास्त्र कला - इस के द्वारा, लोगों ने निम्नाङ्कित अनेक बातों की, पूरी-पूरी जानकारी प्राप्त करते हैं। जैसे- धर्म और अधर्म क्या है ? पुण्य और पाप में क्या अन्तर है? जीव कहाँ से आया है? मोक्ष साधन के लिए मनुष्य को क्या-क्या करना चाहिए? स्वरूप का बोध किन उपायों के द्वारा हो सकता है? अचित्त और सचित्त वस्तुओं में क्या भेद है ? क्यों एक मनुष्य स्वर्ग और दूसरा नरक को पाता है? सुख और दुःख जीवन और मरण ये क्यों होते हैं? यहाँ प्रतिदिन देखने में आता है, कि यहाँ की जितनी भी दिखने वाली वस्तुएँ हैं। सभी को काल ने ग्रस रखा है। यह जानकर भी मनुष्य मौत से क्यों डरता है । यही नहीं, मृत्यु का भय यहाँ की सभी वस्तुओं के पीछे एक-सा है। इस जगत् में क्या सार और क्या असार वस्तु है । सब कुछ देख भालकर और सोच समझ कर भी जीव जगत् की क्षणिक और वह भी काल्पनिक किन्तु मोहक सुख सामग्री के पीछे इच्छा उसकी न रहते हुए भी, किसकी जबरदस्त प्रेरणा से रात-दिन अविश्रान्त रूप से पड़ा हुआ है। आदि अनेक सारभूत बातों की शोध मनुष्यों ने तत्त्व विचार के द्वारा लगा पाई थी ।


    21. ज्योतिष शास्त्र कला - यह पृथ्वी स्थिर है या चलायमान ? ग्रह क्या हैं? सूर्य क्या है यह कहाँ स्थित हैं । ग्रहण कब पड़ते हैं समुद्र में पानी का उतार चढ़ाव कब और क्यों होता है ज्योतिष का फल मिलता है या नहीं इन सब की जानकारी इस कला के द्वारा प्राप्त होती हैं ?


    22. वैद्यक शास्त्र कला - हड्डियों के जोड़ शरीर में कितने हैं वे क्यों टूट जाते हैं, और फिर कैसे ठीक कर दिए जाते हैं?


    बाल से भी बारीक और खोखली जो रक्तवाहिनी नाड़ियाँ शरीर के अन्दर हैं, उन के द्वारा शरीर में रक्त का सञ्चार दिन भर और सब काल कैसे होता है ? सप्त धातुओं की उत्पत्ति कैसे होती है? मनुष्य, शरीर की प्रकृति के अनुसार किस प्रकार के आहार, विहार और व्यवहार का पालन कर निरोगी, सुखी तथा पुष्ट बनता है वैद्यक विधि से बनाये हुये रसों का सेवन कर मनुष्य अक्षुण्ण सुखी निरोगी तथा भूख प्यास और निद्रा को जीतने वाला कैसे बन सकता है? आदि बातों का ज्ञान वैद्यक शास्त्र कला से प्राप्त होता है ।

     

    23. भाषाकला- संस्कृत शोरसैनी, मागधी प्राकृत, पैशाची और अपभ्रंश आदि भाषाओं के ज्ञान का प्रचार और प्रसार इस कला के द्वारा किया जाता है ।


    24. योगाभ्यास कला - संसारी मोहक विषयों को मन से हटाकर परमात्म भाव की ओर लगाए रखने का एक साधन है। यही एक कला ऐसी है जिससे शरीर के समस्त दोष दूर किए जा सकते हैं । यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । इन आठ अङ्गों की शिक्षा दी जाती है । इनमें शारीरिक दृष्टि से प्राणायाम, आसन और योग सब से महत्व के अङ्ग हैं | योगासन, शौच आदि से निवृत हो खाली पेट करना चाहिए । जहाँ प्रकाश एवं शुद्ध वायु हो । शाम को भी ऐसे स्थानों पर करना चाहिए।


    25. रसायन कला - इस कला के द्वारा अनेक बहुमूल्य धातुएँ, जड़ी बूटियों के संयोग से तैयार की जाती थीं। दो विभिन्न प्रकार की या पृथक् गुण और प्रकृति वाली वस्तुओं को मिलाकर उनके मेल से, एक तीसरे ही रूप रङ्ग, गुण और प्रकृति वाली वस्तु को उत्पन्न करना, धातुओं को शोधकर उनसे शास्त्रीय विधि के अनुसार रस, भस्म आदि तैयार करना इसी कला से सीखते हैं ।


    26. अञ्जन कला- इस कला के द्वारा तरह-तरह के अञ्जन तैयार किये जाते हैं । वे अञ्जन जहाँ नेत्रों के साधारण तथा प्रकृत रोगों का नाश करते हैं । वहाँ उनके द्वारा दिव्य दृष्टि भी प्राप्त हो जाती है । इन अञ्जनों को आँखों में आँजने से जमीन में गड़े खजाने दिख सकते है । आँजनेवाले को दूर की वस्तुएँ पास तथा छोटी वस्तुएँ विस्तृत रूप में दिखती हैं । और कभी अदृश्य भी हो सकती हैं ।


    विशेष- अञ्जन चोर अपनी आँखों में ऐसा अञ्जन लगाता था जिससे वह तो सभी को देखता था किन्तु उसे कोई भी नहीं देख सकता था।


    27. स्वप्नशास्त्र कला - इस कला से स्वप्न कब आते हैं, क्यों आते हैं, क्या होते हैं अनेक प्रकार के होते हैं मध्य रात्रि के पहले और बाद वाले स्वप्नों में से किन का असर अधिक होता है ? और क्यों ? स्वप्नों के भले या बुरे होने की क्या पहचान है? कभी-कभी स्वप्न में वे बातें देखी और सुनी जाती है, जिनका सम्बन्ध इस जन्म से जरा भी कुछ नहीं होता, इस का क्या कारण है ? किसी पुरुष को स्वप्न आते हैं और किसी को बिलकुल नहीं, यह क्यों ? पुरुषों और स्त्रियों के स्वप्नों में अधिकांश जो भेद सुना जाता हैं, इसका मूल कारण क्या हैं? किसी ने शत प्रतिशत सच और किसी के शत प्रतिशत झूठ होते है यह भेदाभेद क्यों होता है ? आदि अनेकों प्रकार की बातें इस कला से जानते हैं ?


    28. इन्द्रजाल ( जादू) कला - हाथ की सफाई के अनेक काम सीखना तथा दिखाना किसी वस्तु के टुकड़े-टुकड़े कर बाद में उसे पहले के रूप में दिखाना । किसी पुरुष को निर्जीव बना कर के, सब को देखते-देखते उसे फिर से सजीव बना देना। किसी वस्तु के टुकड़े-टुकड़े कर के उसे मुँह द्वारा खा जाना । और फिर उसे उस के पूर्व रूप ही में नाक या कान से निकालकर दिखाना । किसी को बिल्ली के रूप में बदल देना। पुरुष को स्त्री के रूप में बदल देना । आदि इस कला के द्वारा जानते हैं ।

     

    29. कृषि कर्म कला - किस जमीन की प्रकृति कैसी होती है, किस जमीन में कौन-सी फसल अधिक से पैदा हो सकती है, कौन-सी वस्तु या अनाज या पेड़-पौधे किस समय में लगाए जाने चाहिए उन्हें कौन-सा खाद देने से वे खूब ही फलते फूलते हैं। खेती के लिए किन-किन औजारों की आवश्यकता है ? किस फसल में किस प्रकार का कीड़ा कब और क्यों लग जाता है ? उसे न लगने देने के क्या उपाय हैं? और लग जाने पर उसे दूर करने और खेती की रक्षा करने के क्या उपाय हैं। कृषकों की शरीर प्रकृति और खान-पान कैसा होना चाहिए ? समाज के सच्चे अन्नदाता राजा होते हैं या कृषक? खेती के पशुओं के खाने-पीने, चराने का प्रबन्ध कैसे किया जाना चाहिए। पशुओं की वंश वृद्धि कैसे हो ? उन्हें निरोग कैसे रखे आदि का ज्ञान इस कला से होता है।

    30. वस्त्र विधि कला- वस्त्र किन-किन पदार्थों से बनाये जाते हैं? उनकी कहाँ, कब और कैसे उत्तम से उत्तम रूप में की जाती है जिस कपास के तन्तु जितने ही अधिक लम्बे निकलते हैं, वे कैसे होते हैं? उत्तम या अधम कोटि के कपास ऊन, टसर (मटमैले पीले रंग का मोटा रेशम), रेशम या पश्म की क्या पहचान है? कपास को औटकर उस से बिनौले और कपास कैसे अलग-अलग निकाले जाते हैं कपास से सूत कैसे बनाते हैं? ताना और बाना क्या होते हैं? क्या, इन दोनों के लिए एक ही सा सूत काम में लाना चाहिए। सूत में माँड़ी कैसे दी जाती है और उस के देने की क्या आवश्यकता है? जुलाहा किसे कहते हैं ? किस प्रकार के कपड़े के लिए कितना लम्बा ताना और कितना चौड़ा बाना भरना चाहिए? कपड़ों में रङ्ग व डिजाइन कैसे दी जाती है? ऊन देने वाली भेड़े और पश्म देने वाली भेंड़ों के लालन पालन के लिए कौन-सा मौसम अच्छा होता है । हाथकरघा से बने वस्त्रों में पशुओं की चर्बी (मटन टेलो) की माँड़ी न दी जाने के कारण प्रतिवर्ष कितने लाख मूक और भोले-भाले पशुओं की हत्या होने से अनायास ही में रक्षा हो सकती हैं। आदि बातों का पूरा-पूरा ज्ञान लोग इस कला के द्वारा जानते हैं । 31. स्वर विद्या कला - नाक से जो हवा निकलती है उसका नाम स्वर है । इसमे दायीं नाक के स्वर को सूर्य स्वर एवं बाँयीं नाक के स्वर को चन्द्र स्वर कहते हैं । दिन में चन्द्रस्वर चलना श्रेष्ठ है रात्रि में सूर्य स्वर चलना श्रेष्ठ है। भोजन के समय, जल ग्रहण करते समय, वाहन चलाते समय कौन-सा स्वर चलना चाहिए इसका वर्णन इस विद्या से जानते हैं ।


    32. व्यापार कला- (वि + आ + पार) इस व्युत्पत्ति के अनुसार, विशेष रूप से और चारों ओर से लेन- देन का काम करना यही इस कला का मुख्य काम था । व्यापार, वाणिज्य और व्यवसाय क्या है ? कौन व्यवसायी है, वणिक और व्यापारी में क्या भेद होता है? व्यापार में ईमानदारी की कितनी अधिक आवश्यकता है? सम्पत्ति को बढ़ाने के प्रधान साधन कौन-कौन से हैं? क्यों एक ही व्यवसाय या व्यापार के द्वारा एक निर्धन व्यक्ति सधन बन जाता है और दूसरे का दिवाला खिसक जाता है ? विश्वास की, किस सीमा तक व्यापार आदि में जरूरत है? व्यापारी का गम्भीर और बहुभाषा भाषी होना कितना उपयोगी और आवश्यक है । व्यापार में वार्षिक या छ: मासिक में व्यापार में कितना लाभ या हानि हुई है । यह हिसाब रखना बहुत आवश्यक है । नहीं करते तो आपका दीवाला निकलना सम्भव है । यह भी ज्ञान इस कला से प्राप्त होता है ।


    33. राजसेवा- इस कला के द्वारा लोगों को राजसेवा का बोध कराया जाता है। राजसेवा के लिए राजा और प्रजा के क्या कर्त्तव्य हैं। प्रजा भी राजसेवा के लिए अपना धन, तन सब कुछ समर्पण कर देता है । जैसे - भामाशाह ने राष्ट्र की रक्षा के लिए सब कुछ समर्पित कर दिया । आदि इस कला से जानते हैं ।

     

    विशेष- आज तो राजा है नहीं अतः देश व राज्य के प्रति वफादारी अर्थात् ईमानदारी से उनके नियमों का
    पालन करना ।


    34. शकुन विचार कला - इस कला के द्वारा तरह-तरह के शकुन और अपशकुनों को जानने की शक्ति मनुष्य में भलीभाँति आ जाती है। प्रत्येक कार्य को प्रारम्भ करते समय लोग शकुन को सोचने लगते हैं । आज भी लोग विशेष कर पुरानी शिक्षा और सभ्यता के लोग शकुन विचार कर किसी काम को प्रारम्भ करते है। पशु-पक्षियों की बोली से, उनके चलते समय दाहिने या बाँयें आ पड़ने से, बछड़ा जो गाय का दूध पी रहा है, यात्रा के समय भरे कलश दिखने आदि के फल इस कला के द्वारा सीखते हैं ।

     

    35. वायु स्तम्भन कला- वायु को चलते-चलते कैसे रोक देना चाहिए ? उस की दिशा मनचाही दिशा में किस प्रकार घुमा देना चाहिए। उसे रोककर और उस में के वाष्प को समुचित रूप से ठण्डक पहुँचाकर इच्छानुसार और जहाँ चाहे वहाँ किसी भी समय वर्षा कैसे करवा लेनी चाहिए ? रुकी हुई वायु के बल और भार का अनुमान कैसे लगाया जाता है । उस का कितना जबरदस्त बल होता है । उससे कौन-कौन से काम लिए जा सकते हैं? वायु को रोक कर या उसे दबा कर, उस के द्वारा प्रकाश पर कौन-कौन से अनोखे प्रभाव डाले जा सकते हैं? आदि आवश्यक और उपयोगी अनेक बातें इस कला के द्वारा लोग सीखते हैं ।


    36. अग्नि स्तम्भन कला - धधकती हुई अग्नि को बिना किसी पड़ौस की वस्तु को जरा भी हानि पहुँचाए। वहीं की वहीं कैसे रोक देनी चाहिए ? चारों ओर से धाँय- धाँय करती हुई अग्नि में प्रवेश कर और इच्छानुसार उतने समय तक उसमें रुककर, बाल-बाल सुरक्षित उसमें से कैसे निकलआना चाहिए? और आग के दहकते हुए अङ्गारों को हाथ में या मुँह में रखना, और उस से हाथ पर या मुँह में जरा भी उस का असर नहीं पड़ता । आदि अनेक हितकारी और प्राण रक्षक बातों का ज्ञान इस कला से लोग जानते हैं।


    37. मेघवृष्टि कला- मेघ कितने प्रकार के होते हैं? उन के बनने का समय क्या है? कितनी ऊँचाई पर बनते हैं क्या हैं मूसलधार वर्षा करने वाले बादल जैसे रङ्ग रूप के होते हैं ? इन्द्रधनुष क्या है ? वर्षा ही के समय क्यों दिखाई देता है अलग-अलग प्रकार का क्यों होता है कब, किस ओर दिख पड़ता है । मध्याह्न में वह क्यों नहीं दिखता ? बिजली क्या है ? क्यों प्रकट होती है? क्या उसकी चमक होती है । उसकी चाल किस प्रकार की होती है? मेघ गर्जन क्या है ? यह गर्जन कितनी दूर से सुनाई पड़ सकती है ? प्रकाश और आवाज की गति में क्या अन्तर है साधारण पानी की अपेक्षा वर्षा के पानी में कौन-कौन से विशेष गुण हैं? आदि अनेक बातों को इस कला से ज्ञान प्राप्त होता है ।


    38. विलेपन कला- ये देश, काल और पात्र की प्रकृति को पहचान कर शरीर को ताजा निरोग सुगन्धित और यथोचित गर्म और ठण्डा रखने के लिए कैसे बनाए जाते हैं। किन-किन पदार्थों से बनते है उन पदार्थों की अक्सर तासीर ( प्रभाव ) कैसी होनी चाहिए? इनका उपयोग कब-कब करना चाहिए ? विलेपन करने की शास्त्रीय विधि क्या है? विलेपन से शरीर के चर्मादि रोग कैसे नष्ट कर दिये जाते हैं ? आदि बातों का शास्त्रीय ज्ञान इस कला से लोग प्राप्त करते हैं ।

     

    39. मर्दन या घर्षण कला - धर्माऽर्थकाममोक्षाणां शरीरं मूल साधनम् के नियमानुसार यदि शरीर ही ठीक नहीं, तो सारा मानव जीवन ही किरकिरा है।शरीर का घर्षण करने से त्वचा के सब छिद्र कैसे खुल जाते हैं। उन रोम कूपों के खुल जाने से शरीर के भीतर के असंख्य दूषित पदार्थ पसीने के रूप में किस आसानी के साथ बाहर निकल पड़ते हैं। उन्हीं छिद्रों में से बाहर की शुद्ध हवा विपुलता से भीतर प्रवेश होती रहने के कारण शरीर प्राकृतिक रूप से कैसे निरोग एवं तेजस्वी बनता हैं वहाँ वह ब्रह्मचारी स्थिर और शुद्ध चित्त तथा दीर्घ जीवी भी कैसे बन सकता है? मर्दन करने की शास्त्रीय विधियाँ क्या हैं ? तेलादि का मर्दन माह में अधिक से अधिक कितनी बार करना चाहिए ? हाथ की रगड़ से शरीर में विद्युत् का प्रवाह कैसे होने लगता है? तेलादि का मर्दन अपने हाथ से करने में, दूसरों की अपेक्षा क्या विशेषता है? विधिपूर्वक और नियम के साथ मर्दन करते रहने से, शरीर के आनन्द, उत्साह, तन्दुरुस्ती, शान्ति और कान्ति अदभुत फल नजर आता है । यों मर्दन कला का विधिवत् ज्ञान पाकर लोग अपने शरीर को स्वस्थरख सकते हैं । और उसके द्वारा अपने इहलोक तथा परलोक को सुधार सकते हैं ।


    40. ऊर्ध्वगमन कला- वाष्प कैसे उत्पन्न की जाती है? उसकी शक्ति का प्रभाव क्या किसी खास तरफ ही पड़ सकता है या दाहिने, बायें, ऊपर, नीचे अपनी इच्छानुसार उससे काम ले सकते हैं? आदि वाष्प सम्बन्धी बातों और उस की शक्तियों का अनुभव और अनुमान द्वारा पूरा-पूरा ज्ञान प्राप्त कर उडनखटोले और अनेक प्रकार के अनेक वायुयानों की रचना करना तथा उनके द्वारा, थलयानों की भाँति बड़ी ही द्रुतगति से, आकाश में सुगमता के साथ भ्रमण करते फिरना, ये सारे काम और इन की साङ्गोपाङ्ग शिक्षा का प्रबन्ध इसी कला के अन्तर्गत है ।


    41. सुवर्ण सिद्धिकला - इस कला के द्वारा खदान से सोना निकालने के अतिरिक्त अन्य किन-किन पदार्थों के साथ किन-किन जड़ी बूटियों का रस कि कितनी मात्रा में मिलाकर कितनी गर्मी के द्वारा उस घोल को फूँकने से सोना बनाने की शास्त्रीय रीति का ज्ञान इस कला के माध्यम से होता है ।


    42. रूप सिद्धि कला- अपने रूप को कैसे निखारना चाहिए इसके लिए शरीर के भीतर किन पदार्थों को भेजना होता है, और बाहर किन-किन विलेपनों को लगाना चाहिए बालों को एकदम सदा सर्वदा काले बनाए रखने के लिए किन-किन विलेपों (खिजाबों) का प्रयोग करना चाहिए? शरीर में झुर्रियाँ न पड़े इसके लिए कौन-से साधन करने चाहिए ? शरीर की आकृति (डीलडौल) को सुसंगठित बना कर उसे सदा के लिए वैसा ही गठीला एवं चुस्त बनाए रखने के लिए प्रतिदिन किस प्रकार के व्यायाम तथा वे किस मात्रा में करते रहना चाहिए ? व्यायाम का समय और स्थान कैसा होना चाहिए? व्यायाम रूपी नैसर्गिक औषधि का ब्रह्मचर्य के साथ संसारी अन्य बनावटी औषधियों की अपेक्षा, शरीर के सौन्दर्य पर कैसा अद्भुत और स्थायी प्रभाव होता है ? आदि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा लोगों को सिखाया जाता है ।


    43. घाट बन्धन कला- घाट, पुल, नदी नालों के बाँध, आदि कैसे बनाए जाते हैं? कहाँ बाँधना इनका आवश्यक और टिकाऊ तथा कम खर्चीला होता है। सड़के, नालियाँ, मोरियाँ कहाँ और कैसे बनाना चाहिए? तरह-तरह के आकार प्रकार के और भिन्न-भिन्न पदार्थों के मकानों को कैसे बाँधा जाता है। इसके लिए स्थान और मौसम कैसा चुनना चाहिए ? मकानों का आकार एवं मुख किस ओर को रखना चाहिए चूना आदि कैसे पकाना चाहिए। चूने में और दूसरे कौन-कौन से पदार्थ किस-किस मात्रा से मिलाने से ईंट तथा पत्थर आदि को जोड़ने का, मजबूत से मजबूत और टिकाऊ मसाला बन सकेगा । गहरे और बहते हुए नदों आदि के तहों में से, बाँधों को बाँधते हुए कैसे ऊपर उठाया जाता है ? नहरें कैसे काटी जानी चाहिए ? किसी कारण विशेष से, किसी बड़े भारी मकान की नींव हिल जाने के कारण उसकी सब ओर की दीवालें अलग-अलग हो गई है या झुक गई है। अब मकान को बिना गिराए इन दीवारों को फिर से सीधी कैसे कर देनी चाहिए, किस भूमि को थोड़ा ही खोदने पर पानी विपुलता से और स्थायी रूप से मिलता रहेगा और किस धरती को बहुत गहरा खोदने पर भी पानी नहीं निकलेगा? ऊपर कहें हुए स्थान आदि के नक्शे कैसे तैयार किये जाते हैं ? आदि बातों का विशेष ज्ञान इस कला के द्वारा, लोग जानते हैं ।


    विशेष- वास्तुशास्त्र अभियान्त्रिकी तथा भवन निर्माण के विविध पद्धतियाँ इस कला के अन्तर्गत आती हैं।


    44. पत्र छेदन कला- किसी भी वृक्ष के कितने ही ऊँचे नीचे या बीच के भाग वाले, किसी भी निर्धारित पत्ते को उस के निर्धारित स्थान पर, किसी भी निशाने द्वारा, किसी निर्धारित समय के केवल एक ही बार में, बेधने का काम इस कला के द्वारा प्राप्त होता है ।


    45. मर्म छेदनकला - इस कला के द्वारा शरीर के किसी विशेष और निश्चित भाग को, किसी आयुध द्वारा छेदन, करने का काम सिखाया जाता है । यों मर्म भेदन क्रिया का यह काम, किसी पूर्व निर्धारित समय के, एक बार के, निशाने के द्वारा किया और करवाया जाता है ।


    46. लोकाचार कला - इस लोकाचार व्यवहार से अपना तथा संसार का उपकार कैसे होता है ? लोकाचार भ्रष्ट होने पर, मनुष्य का सारा ज्ञान व्यर्थ कैसे हो जाता है। लोक आचार को धर्म की जड़ कहते हैं, सो कैसे ? आचार और पापात्मा आदि प्रकार के जो प्राणी संसार में पाए जाते हैं, इनमें से प्रत्येक के साथ किस प्रकार का यथोचित आचार व्यवहार किए जाए, जिस से परस्पर में सद् भावनाओं की वृद्धि और असद्भावनाओं का ह्रास होता रह कर हम अपने जीवन को उन्नत बनाते रहे ? आचारवान् पुरुष के मुख्य कारण कौन से हैं? तथा समाज की नीति क्या है? लोकाचार के बस हो, कभी - कभी मनुष्यों को कैसे-कैसे भयंकर कष्ट और दुःख सहने पड़ते हैं? आदि बातों की शिक्षा देना, इस कला का काम है ।

     

    47. लोकरञ्जन कला - इस कला के द्वारा पुरुषों को भाँति-भाँति के लोक रञ्जन करने की व्यवहारिक शिक्षा दी जाती थी उदाहरण के लिए कोई आदमी लोक रञ्जनार्थ इस प्रकार कई तरह से हँसता या रोता है, कि दर्शकों को तो वह हँसता या रोता हुआ नजर आता है, किन्तु सचमुच में वह न तो हँसता ही है और न रोता ही है। पर हाँ, उसकी इन भाँति-भाँति की क्रियाओं को देख भाल कर दर्शकों को अवश्य एक समय के लिये हँसी और दूसरे समय रोना आ जाता है । और उन की इस हँसी की मात्रा उस समय और भी अधिक बढ़ जाती है । जब उन्हें उस लोक रञ्जन करने वाले के कामों का पता लग जाता है। इसी तरह और-और भी इसी कला से समझना चाहिए।


    48. फलाकर्षण कला - इस कला के द्वारा फलों का आकर्षण ऊपर, दाहिने, बाँये न होते हुए पृथ्वी ही की ओर क्यों होता है ? आकर्षण शक्ति क्या है ? वस्तु के भारवान् और दूर होने पर और समीप होने पर या हल्की और दूर होने पर अथवा नहीं तो हल्की और समीप रहने पर आकर्षण शक्ति का उस पर क्या प्रभाव पड़ता है? प्रत्येक पदार्थ, पृथ्वी से ऊपर की ओर चाहें फेंके जाए, तब भी उन्हें अन्त में पृथ्वी ही पर गिरना पड़ता है आदि आकर्षण शक्ति सम्बन्धी बातों का पूरा-पूरा ज्ञान इस कला के द्वारा लोग जानते हैं ।


    49. अफल अफलन- वे चीजें, जो सचमुच में फलवान् होकर के फलती नहीं थी ।, मुख्यत: दो भागों में विभाजित की गई थीं। एक तो स्थावर जैसे वृक्ष, बेल आदि और दूसरी जङ्गम वस्तुएँ जो चलती फिरती हैं । जैसे- मनुष्य या कोई जीवधारी । कोई वृक्ष या बेल फलती नहीं है तो क्या कारण है। कौन- सा खाद उसे पहुँचाया जाए जिससे वह फिर फलवान् बनाया जाए ? या उसमें कोई कीड़ा आदि लग गया है या इनका बीज ही दूषित और कमजोर है। अब आगे कौन से सरलातिसरल कम खर्चीले उपायों के द्वारा उसे शीघ्र ही फलों से लदा रहने वाला बनाया जा सकता है । इस कला से लोग जानते हैं ।

     

    50. धार बन्धन कला - छुरा, भाला, बल्लम, तलवार आदि हथियारों की पैनी धारको मन्त्र, तन्त्र या आत्मबल किसी के भी द्वारा सार्थक बना, उन पर दौड़ते-दौड़ते चले जाना, या इन हथियारों के द्वारा किसी पर वार तो करना, पर उन्हें तनिक भी चोट न पहुँचाना या बहते हुए पानी की धारा को वहीं के वहीं रोक देना, अथवा उसे खण्ड-खण्ड दिखा कर, वहीं की वहीं नियत समय के लिए रोक रखना, या किसी बहते पानी की धारा को दो, इधर-उधर के भागों में खण्डित कर बीच मे मार्ग निकाल देना और उस के आर-पार स्वयं जाना या किसी को भेजना और फिर उसे अपने पहले ही के रूप में ले आना आदि बातों की प्रारम्भ से अन्त तक की शिक्षा, इस कला के द्वारा लोग जानते हैं ।

     

    51. चित्रकला - लेखक और कवि जिन बातों को ग्रन्थ भर की जगह में, लिखकर कहते हैं । और उन बातों को भी बिना पढ़े लिखे लोग, या केवल अक्षर ज्ञान वाले लोग नहीं पढ़ और समझ सकते । किन्तु उन्हीं लम्बी-चौड़ी सभी को एक सी समझने में कठिन बातों को, एक अच्छा चित्रकार बड़ी ही विशेषता के साथ एक या आधे पृष्ठ पर, केवल पेन्सिल की नोक और अपने हाथों की सहायता से, कुछ रङ्ग और ब्रुश की सहायता से, किसी न किसी रूप से जगत् के सामने खड़ा कर देता है । चित्रकार कोई चाहता तो दुनिया की सम्पूर्ण स्थलीय और जलीय वस्तुओं को कोरे कागज के टुकड़े पर ला बैठाता है पर हाँ होती उन में एकदम निर्जीवता ।


    52. ग्राम वसावण कला - ग्राम कैसे और कहाँ बसाए जाते हैं? पहाड़ों के ऊपर मरुभूमि के और दलदलों के पास गाँव क्यों नहीं बसाए जाते ? छोटी पहाडियों और घाटों की तलाइयाँ और मैदानों की भूमियाँ ये ही बस्तियों के लिए क्यों चुनी जाती हैं ? पर ऊँचे पहाड़ों की तलहटियों में बस्तियों नहीं बसायी जाती, यह क्यों? कौन बस्तियाँ छोटी और कौन बड़ी बन जाती है ? अधिकांश खेती के गाँव छोटे तथा कल कारखानों और जहाँ चारों ओर के रास्ते आकर मिलते हैं वे गाँव छोटे होने पर भी बहुत बड़े क्यों बन जाते हैं गाँव और उसके मोहल्लों के नाम आदि किस के ऊपर से रखे जाते हैं? राजधानियाँ कहाँ होना चाहिए? किले कहाँ और क्यों बनते हैं ? कौन सी बस्तियाँ अच्छी होकर भी बुरी और छोटी बन जाती है? नदियों के किनारे की भूमि गाँवों के लिए कैसी होती है ? बस्तियों की हवा शुद्ध बनी रहे इसके लिए क्या करना चाहिए? एक गाँव से दूसरे और दूसरे से तीसरे आदि को जाने का भी समुचित प्रबन्ध होना ही चाहिए। आदि-आदि बातों का अच्छा परिचय इस कला के द्वारा जानते हैं ।


    53. कटक उतारणकला - छावनियाँ कहाँ डाली जानी चाहिए? कैसी रचना उनकी करना चाहिए? उनकी सुरक्षा कैसे करनी चाहिए शत्रुओं की सेना को देखते रहकर उन छापों से बाल-बाल बचते रहें और उनके पास होते हुए भी उनकी नजरों से छिपे रहें इन बातों का विचार इस कला के माध्यम से लोग सीखते हैं ।


    54. शकट युद्ध कला - रथी का युद्ध रथी के साथ कैसे, कहाँ और कब तक होना चाहिए? रथी को स्वयं की तथा सेना की रक्षा के लिए युद्ध कला में कहाँ तक निपुण होना चाहिए ? रथ को अस्त्र-शस्त्रों से कहाँ तक सुसज्जित रखना चाहिए? सारथी के कैसा, प्रवीण, निडर, साहसी और स्वामिभक्त होने की पूरी-पूरी आवश्यकता है। आदि बातों की शिक्षा लोग इस कला के माध्यम से जानते हैं । 55. गरुड़ युद्धकला- अर्थात् एक प्रकार की सेना की व्यूह रचना करना । इसमें सेना की रचना आगे से छोटी, पतली और पीछे से क्रमशः मोटी क्यों रखनी चाहिए ? ऐसी रचना सेना की करने से शत्रुओं पर छापा मारने में क्या तात्कालिक असर पड़ता है ? आदि बातों का ज्ञान इस कला के माध्यम से जानते हैं ।


    56. दृष्टियुद्ध कला- आँखों से आँखे मात्र मिलाकर पर पक्ष के लोगों को कैसे हीन और निकम्मे बनाना, और उन पर दृष्टि ही के द्वारा ऐसा असर अपना बैठाना, कि जिससे वे अपने को पराजित मान कर वहाँ से फिर चलतें ही बनें । आदि बातों का ज्ञान इस कला से प्राप्त होता है । बड़ी से बड़ी देर तक आँखों को बिना निमेष और उन्मेष किए खोले रखना और उनमें पानी की परछाँई तक को नजर न आने देना आदि बातें बड़ी सावधानी के साथ इस कला के विशारदों को साध्य में रखनी पड़ती थीं। इस कला में जो कुशल लोग होते, फिर चाहें वे कितने ही छोटे या कृश ही क्यों न होते, उन के सामने से बड़े-बड़े हिंसक और क्रूर कर्मा जंगली जीव तक हार मानकर भाग जाते हैं ।


    57. वाग्युद्ध कला - युक्तिवाद, तर्कवाद, बुद्धिवाद, दृष्टियुद्ध और अपने निज ज्ञान की सहायता से पर पक्ष के विषय का खण्डन करना और स्वपक्ष के विषय का मण्डन करना, वाणी में वकीली के दाँव पेंच खेलकर और हाजिर जवाबी दिखाकर पर पक्ष को हर प्रकार से पराजित करना और भाँति-भाँति के सामान्य तथा गूढ़ विषयों पर शास्त्रार्थ करना आदि इस कला से ज्ञान प्राप्त करते हैं ।


    58. मुष्टियुद्ध कला- हाथों को बाँधकर मुष्टि बनाना, और उनके द्वारा भाँति-भाँति से विधिपूर्वक घूसामारी खेलकर पर पक्ष को पराजित करना यही इस कला का प्रयोजन है । इस कला में योग्यता प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले लोगों में हाथों की सबलता का होना, दृष्टि की ओर चित्त को स्थिर रूप से एक ओर साधने का अभ्यास और दिल की कट्टरता के गुणों की परम आवश्यकता थी ।

     

    59. बाहुयुद्ध कला - इस में मुष्टि की जगह बाहुओं से युद्ध करने की शिक्षा दी जाती है । इस कला के लिए वे ही लोग अकसर चुने जाते, जो संयमशील, सबल और हाथों को नचाने में पूरे-पूरे चुस्त होते यही नहीं उन की दृष्टि का सबल होना और उन के शरीर की नस-नस में लाघव के गुण का होना भी इस कला के लिए परम आवश्यक था। क्योंकि उन्हें दूर से दूर और पास से पास वाले तथा सबल से सबल सभी प्रकार के शत्रुओं के आघातों से पूर्णत: बचकर उन के ऊपर अपने द्वारा आघात करना होता है।

     

    60. दण्ड युद्धकला- इस कला में दण्डों के द्वारा युद्ध करना सिखाया जाता है। दण्डे कैसे और कितने लम्बे रखने चाहिए उन के कौन-कौन सी रीतियों से चलाए जाने पर वे शत्रुओं के पास नहीं फटकनें देते ? सीना और शरीर के कसावट और भुजाओं की लाघव तथा मजबूती इस कला के लिए बड़ी प्यारी और मूल्यवान वस्तुएँ समझी जाती हैं ।


    61. शास्त्र कला - इस कला के द्वारा, अपने पठित शास्त्र ज्ञान को खण्डन मण्डन के रूप में, बोल कर या लिखकर प्रकट करने युक्तियाँ सिखाई जाती हैं । इस कला के इच्छुकों को अपने शास्त्रीय पठित ज्ञान को पुस्तकावलोकन के द्वारा, सदा तरोताजा रखने की बड़ी ही आवश्यकता है। अधिक क्या, इन के जीवन का अधिकांश भाग पढ़ने-लिखने ही में बीतता है ।


    62. सर्प मर्दन कला- सर्प कहाँ रहते हैं ? अधिकांश कहाँ पाए जाते हैं । ऋतुओं के कारण उनके स्थानों में क्या परिवर्तन हो जाता है? साँप के काटे हुए की संजीवनी औषधियाँ क्या हैं कहाँ मिलती हैं? वे कौन-सी जड़ी बूटियाँ हैं। जिनके सूँघने या सुँघा देने मात्र से भयङ्कर से भयङ्कर जहरीले साँपों का विष दूर किया जा सकता है। कौन से नाग मणिधर होते हैं साँपों को कील कर कैसे रखना चाहिए वे मन्त्र कब और कहाँ कैसे सिद्ध किए जाते हैं? साँपों के अनेक प्रकार होते हैं? मन्त्र बल से, साँपों को दूर-दूर से, एक इच्छित स्थान पर बुलाकर, उन के द्वारा डसे हुए का विष कैसे दूर किया जाता है | आदि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा लोगों को दिया जाता है । इस कला में वे ही लोग लिए जाते हैं जो निर्भीक, तेजस्वी, साहसी, मन्त्र विधि के ज्ञाता होते है और जिन की दृष्टि सधी हुई रहती है ।


    63. भूतादि मर्दन कला - भूतादि क्या हैं ? ये कितने प्रकार के मुख्य होते हैं? इन में निर्बल और सबल जातियों के कौन से भूत होते हैं इनको वश में करने की क्या रीतियाँ हैं कौन-से मन्त्र और तन्त्रों के आगे इन की शक्तियाँ बिलकुल काम नहीं करती? उन्हें कैसे, कहाँ, कब और कितने समय तक सिद्ध करना पड़ता है । भूतादि को वश में कर उनसे कौन-कौन से दुर्लभ काम को सुगमता पूर्वक करवा लिए जाते हैं । भूतादि की बाधाओं का असर किस प्रकृति के व्यक्तियों पर विशेष रूप से होता है? आदि बातों का ज्ञान जो निडर, साहसी, कष्ट सहिष्णु होते हुए उन पुरुषों को इस कला के द्वारा दिया जाता है।

     

    64. मन्त्र विधि कला - प्रत्येक प्रकार के मन्त्र के जप - जाप की कौन-सी विधि हैं कोई मन्त्र कब, कहाँ, कैसे और कितने जप, जाप के पश्चात् सिद्ध होता है? मन्त्रों के बल से जब वे सिद्ध हो जाते हैं? सम्पूर्ण ऐहिक इच्छाओं की पूर्ति, सरलता के साथ हो सकती है? उन से दैहिक, दैविक और भौतिक बाधाएँ कैसे निर्मूल कर दी जाती हैं? किस मन्त्र से कौन-सा काम निकलता है ? आदि बातों की शिक्षा, संयमशील, कष्ट सहिष्णु, ब्रह्मचारी और निष्कपट तथा आस्तिक पुरुषों को, इस कला के द्वारा शिक्षा दी जाती है ।


    65. यन्त्र विधि कला - मुख से मन्त्रों का उच्चारण करते हुए, किसी धातु के पत्रों या भोजपत्र या साधारण कागज या दीवाल आदि पर नियमित खाने बनाना और उनमें उचित अङ्कों को भरना, यन्त्रों को लिखना है। मुख्य ये यन्त्र कब लिखे जाते हैं? मनोरथों के भेद से ये कितने प्रकार के होते हैं? इन से ऐहिक इच्छाओं की पूर्ति और त्रितापों (जन्म, जरा, मृत्यु के दु:ख) का शमन कैसे और किस कदर हो सकता है? ये कहाँ बाँधे या किन-किन जगहों में लिखकर रखे जाते हैं ? आदि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा लोगों को होता है ।


    66. तन्त्र विधि कला- तरह-तरह के टोने करना, उतारे करना, और विधान के साथ उन्हें बस्तियों के चौराहे पर रखना, जूठी पत्तलों की भोजन के पश्चात् कील खोलना, धान की मूठी आदि उतार कर, किसी के सिर के नीचे रखना आदि-आदि कामों की विधियाँ इस कला के द्वारा लोगों को बताई जाती हैं। लोगों का विश्वास था कि इस कला के द्वारा, अनेक प्रकार की दैहिक, दैविक और भौतिक बाधाएँ आसानी के साथ नष्ट की जा सकती हैं ।


    67. रूप पाक विधि कला - अपने रूप को निखारने और सदा सलोने आजीवन बने रहने के लिए, ऋतुकाल, देश की प्रकृति और अपनी प्रकृति का मेल मिलाकर कौन-से पाकों का सेवन करते रहना चाहिए? ये पाक कैसे और कौन-कौन पदार्थों के कितने परिमाण से बनते हैं? आदि बातों का ज्ञान, इस कला से लोग प्राप्त करते हैं ।


    68. स्वर्ण पाक विधि कला - इस कला के द्वारा पुरुष नाना विधि के साथ तरह-तरह के सुवर्ण के पाको का बनाना सीखते हैं। इसमें प्रथम विधिपूर्वक सोने को शोधना, फिर उसके नियमित परिमाण के साथ, अन्य-अन्य आवश्यक पदार्थों तथा जड़ी बूटियों को मिलाकर पाक तैयार और तब उचित विधि के अनुसार देश, काल और पात्र की अवस्था का अनुभव और अनुमान कर, उस का सेवन करना, आदि बातें बताई जाती हैं ।


    69. बन्धन कला- किसी पर मन्त्र और दृष्टि की सबलता आदि से ऐसा असर डालना, जिस से वह औरों की निगाहों में तो बँधा हुआ मालूम न पड़ सकें, किन्तु वह स्वयं की नजरों में बन्धन में जान पड़े। इस कला से लोग सीखते हैं ।


    70. मारण कला- केवल मन्त्रों की सिद्धि और दृष्टिबल से, बिना किसी भी प्रकार का किसी पुरुष विशेष से युद्ध किए, यहाँ तक कि बिना उसे देखें भाले, केवल उसका नाम और स्थान मात्र मालूम कर, और बिना किसी भी प्रकार के हथियारों का उस पर प्रयोग किए, उस के सिर को धड़ से अलग कर देना, या अन्य किसी भी प्रकार से उसे मार गिराना, इस कला का काम है।


    71. स्तम्भन कला - किसी व्यक्ति विशेष से अपने पराये किसी बैर का बदला लेने के लिए उसे किसी नियत काल तक के लिए स्तम्भित कर रखना इस कला से लोग जानते हैं । इस कला का उद्देश्य मन्त्र विधि ही के आधार पर है।


    72. संजीवन कला - जो असमय ही में, किसी कारण विशेष से मृत्यु को प्राप्त होता दिखता, मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र आदि विधियों के बल या किसी प्रकार की संजीवनी जड़ी को उस के मरणासन्न शरीर से स्पर्श कर, उसे संजीवन कर देना इस कला से लोग जानते हैं।

    ***

     

    बल और वीर्य

    सरस आहार और औषधि आदि से जो सामर्थ्य उत्पन्न होता है उसको बल कहते हैं तथा वीर्यान्तर कर्म के क्षयोपशम से जो सामर्थ्य उत्पन्न होता है उसको वीर्य कहते हैं। (मू.प्र., 2123)


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