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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 37 - सच्चे देव का स्वरूप

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    Vidyasagar.Guru

    देव शब्द के दो अर्थ होते हैं प्रथम वीतरागी देव अरिहंत एवं सिद्ध के लिए। दूसरा होता है देवगति के देव के लिए | अतः इस अध्याय में वीतरागी देव का वर्णन है ।


    1. सच्चे देव किसे कहते हैं?
    वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी को सच्चे देव कहते हैं। (र. श्रा., 5)
    वीतरागी - जिस महान् आत्मा में अठारह दोष नहीं पाए जाते हैं, उन्हें वीतरागी कहते हैं । अथवा "वीतो नष्टो रागो येषां ते वीतरागः " जिनका राग नष्ट हो गया है, उन्हें वीतरागी कहते हैं।
    विशेष- जिनका राग नष्ट हो जाता है, उनके द्वेष, राग, मोह, स्नेह, घृणा, ये अच्छा है, ये बुरा है आदि परिणाम तो होते ही नहीं।


    सर्वज्ञ- जो लोक के समस्त पदार्थों और उनकी त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायों को युगपत् जानते हैं, ऐसे परमात्मा को सर्वज्ञ कहते हैं।


    हितोपदेशी- जो रत्नत्रयमय रूप मोक्षमार्ग के नेता हैं तथा भव्य जीवों को मोक्षमार्ग पर लगाने के लिए हित का उपदेश देते हैं उन परमात्मा को हितोपदेशी कहते हैं।


    विशेष- जिसने पञ्चेन्द्रियों और मन को जीत लिया और कषायों को नष्ट कर दिया है, वही सर्वज्ञ हो सकता है। जो सर्वज्ञ होता है । वही सर्वप्राणियों को हित का उपदेश दे सकता है। जो सर्वज्ञ नहीं है । वह वस्तु का सत्य स्वरूप भी नहीं समझ सकता । वस्तु के सही स्वरूप को समझे बिना सर्व जीवों के हित का उपदेश भी नहीं दिया जा सकता है। इसलिए जिनेन्द्र ही सच्चे देव हैं । ऐसे सच्चे देव का श्रद्धान करने से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है ।


    2. भगवान् बाहुबली, राम, हनुमान, भरत, देशभूषण, कुलभूषण तीन पाण्डव आदि की तीर्थङ्करों के समान दिव्य देशना नहीं खिरी अथवा मूक केवली (जो बोलते नहीं हैं ) तो कभी किसी को हित का उपदेश देते ही नहीं तो क्या वे सच्चे देव नहीं हैं क्योंकि सच्चे देव तो हितोपदेशी होते हैं?

    जो भगवान् उपदेश नहीं देते अथवा जिनकी समवसरण में दिव्यदेशना नहीं खिरती है किन्तु जिन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश करके वीतरागता को प्राप्त कर लिया है, इन्द्रिय रूपी हाथियों को संयमरूपी अङ्कुश से वश में कर लिया है। मनरूपी बन्दर की चंचलता को ध्यान रूपी तलवार दिखाकर स्थिर कर लिया है तथा कषायरूपी ईन्धन को शुक्लध्यान रूपी अग्नि में डालकर मूलत: नष्ट कर दिया है । वे भी सच्चे देव ही होते हैं ।


    प्रश्न में एक सच्चे देव का लक्षण कहा गया है वह तीर्थङ्कर की अपेक्षा कहा है प्रत्येक तीर्थङ्कर कम से कम वर्ष पृथक्त्व (पृथक्त्व का अर्थ तीन से अधिक एवं नौ से कम) तक तो धर्म का उपदेश देते ही हैं ।(ध.पु., 12) इसलिए उन्हें मुख्य रूप से सच्चे देव कहा है। दूसरे अरिहंत अर्थात् जिनके चार घातिया कर्मों का नाश हो गया है । वे अपनी दिव्यदेशना से सबके हित का उपदेश नहीं देते फिर भी अपनी वीतराग मुद्रा से तो सबको हित का उपदेश देते ही हैं । अत: बाहुबली राम आदि अरिहंत भी हितोपदेशी हैं।


    3. जिनकी पहचान पत्नी से होती है, वे सच्चे देव क्यों नहीं हैं ?
    जिनकी पहचान पत्नी से होती है वे सच्चे देव नहीं हो सकते। क्योंकि संसारी जीव भी पत्नी रखता है और भगवान् भी यदि पत्नी रखे तो संसारी जीव एवं भगवान् में क्या अन्तर रहा ।

     

    विशेष - 1. संसारी जीव की हमेशा पत्नी नहीं होती है। विवाह से पूर्व नहीं होती है एवं वह चौबीसों घंटों अपनी पत्नी के साथ नहीं रहता यदि भगवान् चौबीसों घंटें अपनी पत्नी के साथ रहे तो वे भगवान् कैसे अतः जिनकी पहचान धर्मपत्नी से होती है वे सच्चे भगवान् नहीं ।


    दूसरी बात संसार में पत्नी कौन रखता है ?
    जिसके मन में वासना होती है अतः मन में वासना है तो वे भगवान् नहीं हैं, यदि भगवान् हैं तो उनके मन में वासना नहीं हो सकती है । लोक व्यवहार में जो हमेशा अपनी पत्नी के पीछे लगा रहता है । उसकी लोग हँसी उड़ाते हैं । अच्छा नहीं मानते हैं। अत : भगवान पत्नी से रहित ही होते हैं ।


    4.क्या वस्त्र धारण करने वाले सच्चे देव हो सकते हैं?
    नहीं। वस्त्र वाले भी कभी सच्चे देव नहीं हो सकते हैं। क्योंकि जिसके अन्दर वासना होती वही वस्त्र पहनता है कवि भूधर दास जी ने कहा है-


    अन्दर विषयवासना वरते, बाहर लोकलाज भयभारी ।
    तातैं परम दिगम्बर मुद्रा धरि नहिं सकै दीन संसारी ।।


    अथवा सर्दी-गर्मी की वेदना होती है अथवा जो अपने आपको सुन्दर दिखाना चाहता है, वही तो वस्त्र पहनता है । यदि भगवान् में भी वासना है, उन्हें भी सर्दी-गर्मी लगती है, वे भी सर्दी-गर्मी से बचने के लिए वस्त्र पहनते हैं तो संसारी जीवों में और ऐसे भगवान् में क्या अन्तर रहा? अतः वस्त्र धारण करने वाले भी सच्चे देव नहीं हो सकते हैं ।


    5. क्या आभूषण पहनने वाले सच्चे देव हो सकते ?
    नहीं । क्योंकि आभूषण पहनने के मुख्यतः दो कारण एक तो शरीर को सुन्दर बनाने के लिए दूसरा अपनी धन सम्पदा बताने के लिए। जो कुरूप होता है वह अपनी कुरूपता छिपाने के लिए आभूषण पहनता है तो क्या भगवान् भी शरीर की कुरूपता को अपनी अर्थात् आत्मा की कुरूपता मानते हैं इसलिए आभूषण पहनते हैं? यदि ऐसा करते है तो वह भगवान् ही कैसे ? जो शरीर और आत्मा के भेद को नहीं जानते हैं। शरीर और आत्मा को एक मानने वाला बहिरात्मा कहलाता है। दूसरा कारण अपनी धन सम्पदा बताने के लिए यह तो कषाय हुई अत: जहाँ मान कषाय है । वहाँ वीतरागता कैसे हुई । अतः सच्चे देव आभूषण नहीं पहनते हैं। इसलिए आभूषण पहनने वाले सच्चे देव नहीं हैं।

     

    6. क्या शस्त्र धारण करने वाले सच्चे देव हो सकते हैं?
    नहीं । क्योंकि शस्त्र रखने के मुख्यत: दो कारण हैं। प्रथम डर लगता है, दूसरा किसी को डराने के लिए । जो डरता है वे संसारी जीव हैं, वैसे भगवान् भी डरने लगे तब दोनों में क्या अन्तर रहा। अतः डरने वाला सच्चा भगवान् नहीं है यदि डराने के लिए शस्त्र रखते हैं? तो आप लोक व्यवहार में जो डाकू वगैरह हैं। वे भी दूसरों को डराने के लिए शस्त्र रखते हैं। फिर दोनों में क्या अन्तर रहा। अतः सच्चा भगवान् दूसरों को डराता भी नहीं है । अत: शस्त्र धारण करने वाले सच्चे देव हो ही नहीं सकते ।

     

    7. जिन्हें भूख-प्यास लगती क्या वे सच्चे देव हो सकते हैं?
    नहीं। क्योंकि भूख-प्यास की प्रवृत्ति वेदनीय कर्म के उदय से होती है वेदनीय कर्म का फल मोहनीय कर्म के साहचर्य से मिलता है । मोहनीय कर्म का अभाव होने से सच्चे देव को भूख-प्यास लगती ही नहीं है। लोक व्यवहार में भूखा-प्यासा व्यक्ति दुःख के कारण यहाँ-वहाँ भोजन की चिन्ता में घूमता फिरता रहता है। वैसे भगवान् भी भूखे-प्यासे रहकर आकुल-व्याकुल होते रहे तो संसारी प्राणी और भगवान् में क्या अन्तर रहा । अत: भूख-प्यास जिन्हें लगती है वे सच्चे देव नहीं हो सकते हैं ।

     

    8. क्या जो शाप देते हैं वे सच्चे देव हो सकते हैं?
    नहीं । शाप देने वाले कभी सच्चे देव नहीं हो सकते, क्योंकि शाप देने का परिणाम तीव्र क्रोध आने पर ही होता है। क्रोध करने वाले को लोकव्यवहार में अच्छा नहीं माना जाता है। उसे क्रोधी, पापी, चाण्डाल आदि कहा जाता है ।


    लोक व्यवहार में देखा जाता है बड़े-बड़े अपराधियों को राजा भी माफ कर देता है अनेक बार डाकुओं, आतंकवादियों ने समर्पण कर दिया तो सरकार भी उन्हें माफ कर देती है । और भक्त से कुछ भूल हो जाए तो भगवान् क्षमा न करें तो वह भगवान् कैसे ? अतः सच्चे भगवान् कभी किसी को शाप नहीं देते हैं और जो शाप देते हैं । वे सच्चे देव / भगवान् नहीं हो सकते हैं ।


    9. क्या जो इच्छित पदार्थ देते हैं वे सच्चे देव हो सकते हैं?
    नहीं। जो इच्छित पदार्थ देते हैं वे भी सच्चे देव नहीं हो सकते हैं क्योंकि इच्छित पदार्थ देने वाले में राग अवश्य होगा। वह इच्छित पदार्थ भी अपने प्रति भक्ति रखने वाले को ही दिया जाता है । भक्त भी अपने भगवान् से इच्छित पदार्थ प्राप्त कर प्रसन्न होता हुआ विशेष भक्ति करता है। लोक व्यवहार में भी राजा, नेता, अधिकारी, पिता आदि अपना पक्ष लेने वाले, सेवा करने वालें को इच्छित पदार्थ दे ही देते हैं । उनके कार्य को जल्दी कर देते हैं, उनकी गलतियों को भी माफ कर देते हैं । जैसा लोक व्यवहार में होता है वैसा ही यदि भगवान् भी करते हैं तब भगवान् और लोक व्यवहार के जीवों में क्या अन्तर रहा? अर्थात् कुछ भी नहीं । अत: शाप देने वाले भी सच्चे देव / भगवान् नहीं हो सकते हैं ।

     

    10. क्या सच्चे देव को भी वस्त्राभूषण पहना दें तो वे सच्चे देव नहीं रहते हैं?
    नहीं। साक्षात् तीर्थङ्कर / सामान्य केवली को वस्त्राभूषण पहनाने की बात तो बहुत दूर समवसरण / गन्धकुटी में विराजमान उनका कोई स्पर्श तक नहीं कर सकता । गणधर भी तीर्थङ्कर का स्पर्श नहीं कर सकते तो फिर सामान्य मनुष्य, देव की बात ही क्या है, क्योंकि उनका परम औदारिक शरीर होता है जो आँखों के द्वारा दिखते हुए भी स्पर्श नहीं किया जा सकता है। फिर तीर्थङ्कर सिंहासन पर विराजमान कहे जाते हैं, सिंहासन का स्पर्श भी नहीं कर सकते। जब तीर्थङ्कर विहार करते तब उनके चरण रखने के स्थान पर दो सौ पच्चीस (225) कमलों की रचना होने पर भी वे उनसे चार अङ्गुल अधर ही विहार करते हैं, उनको वस्त्राभूषण कौन पहना सकता है। अत: सच्चे देव वस्त्राभूषण से रहित होते हैं ।

     

    11. क्या सच्चे देव का बिम्ब (मूर्ति) वस्त्राभूषण से सहित हो सकता है ?
    नहीं । जिन प्रतिबिम्ब साक्षात् भगवान् के समान ही होता हैं। दोनों में कोई अन्तर नहीं है । पाषाण या धातु की प्रतिमा में उनके गुणों का आरोपण किया जाता है ।


    विशेष- आपकी फोटो ( छायाचित्र) को कोई व्यक्ति आपके सामने फाड़े तो आपको कैसा लगता ?
    अच्छा नहीं लगता । क्यों ? उस फोटों में मेरी स्थापना है । यही स्थापना निक्षेप का महत्व है अतः सच्चे देव का बिम्ब भी वस्त्राभूषण से रहित होता है ।


    12. फण सहित तीर्थङ्कर का बिम्ब तथा लता चढ़ी भगवान् बाहुबली का बिम्ब में वीतरागता है या नहीं?
    पूर्णत: वीतरागता है । जब मुनि पार्श्वनाथ पर उपसर्ग हुआ उस अवस्था का स्मरण कराती है। पार्श्वनाथ की प्रतिमा को देखकर उन्होंने इतने कठोर उपसर्गों को कितनी समता से सहन किया था । हम में भी उनके समान उपसर्गों को सहन करने की क्षमता आवे । तथा जब मुनि बाहुबली ने एक वर्ष तक खड़े होकर तपस्या की जिसमें उनके शरीर पर लताएँ चढ़ गई, पक्षियों ने घोंसले भी बना लिए । अतः हम भी भगवान् बाहुबली के समान तपस्या करे यह बिम्ब हमें प्रेरणा देता है ।


    13. क्या स्त्री भी सच्चा देव हो सकती है ?
    नहीं । स्त्री कभी भी वस्त्रों से रहित नहीं रह सकती है । अतः वीतरागता बन ही नहीं सकती । तथा कर्मभूमि की महिलाओं में अन्तिम तीन संहनन होते हैं। प्रथम तीन संहनन नहीं होते है और प्रथम संहनन के बिना कर्मों का नाश नहीं हो सकता और घातिया कर्मों के नाश किए बिना वीतरागता प्रकट नहीं हो सकती । और पूर्ण वीतरागता प्रगट हुए बिना कोई सच्चा देव नहीं हो सकता ।

     

    14. सरागी देवों की पूजा करें, उन पर श्रद्धा रखे तो क्या हानि है ?
    संसार में आदर्श उसी व्यक्ति को बनाया जाता है जिसके समान हमें बनना हो । जैसे किसी को जिलाधीश (कलेक्टर) बनना है तो वह कलेक्टर के साथ रहे, उसके प्रति विश्वास रखे, उसकी संगति करे, कलेक्टर बनने योग्य पढ़ाई करे तो वह भविष्य में कलेक्टर बन सकता है । किन्तु वह डॉक्टर के पास रहे अभियन्ता(इंजीनियर) के पास रहे, वकील के पास रहे, उस सम्बन्धी पुस्तकें पढ़े तो वह तीन काल में भी कलेक्टर नहीं बन सकता है। डॉक्टर को आदर्श बनाने वाला डॉक्टर, इंजीनियर को आदर्श बनाने वाला इंजीनियर और वकील को आदर्श बनाने वाला वकील बनेगा। इसी प्रकार यदि अपने को वीतरागी बनना हो तो वीतरागियों को ही अपना आदर्श बनाना पड़ेगा। यदि अपने को सरागी (कपड़े वाले, आभूषण वाले, स्त्री पुरुष, शस्त्र वाले) को आदर्श बनाया तो हम भी वैसे ही बनेंगे । आप स्वयं सोचे कि आपको क्या बनना है? क्या आभूषण वाले बनना है? क्या पत्नी वाले बनना है? क्या शस्त्र वाले बनना है ? क्या भविष्य में भी भूखआदि वेदनाओं से पीड़ित ही रहना है? यदि हाँ तो किसी भी देव की आराधना करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह सब अपने पास अनादिकाल से ही हैं । यदि हमें अपने जीवन को वर्तमान तथा भविष्य के जीवन से कुछ विशेष बनाना है तो अपना आदर्श भी उन्नत होना चाहिए। सरागी देवों की पूजा करने से अपना लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता है । अत: वीतरागी सच्चे देव का ही श्रद्धान करना चाहिए ।


    15. क्या सरागी देवों को पूजने की अपेक्षा तो कुछ आकांक्षा पूर्ण करने वाले मानकर सच्चे वीतरागी देव का पूजन करना चाहिए?
    नहीं। यह तो ऐसा हो गया कि किसी ने चन्दन की लकड़ी को सामान्य लकड़ी समझकर चूल्हे में जला दिया । अमूल्य वस्तु को हमने व्यर्थ ही समाप्त कर दिया। हमने तो पारसमणि को पत्थर समझकर काक (कौआ) उड़ाने हेतु फेंक दिया। अमृत का मूल्य न समझकर उसे पैर धोने में समाप्त कर दिया अर्थात् सच्चे देव जैसे संसार सागर से पार उतारने वाले खेवटिया को पाकर भी हमने उनका गौरव न समझकर तुच्छ सांसारिक सुखों की याचना कर अपना संसार बढ़ा लिया।


    16. आकांक्षा सहित वीतरागी देव को पूजने से कुछ तो लाभ होगा?
    हाँ। एक लाभ अवश्य होगा वह यह कि जिनेन्द्र भगवान् का वह आराधक सम्यग्दर्शन के आयतन में बैठा है, उनके चरणों में है । जिस दिन वह यह समझ जाएगा कि यह हमारे आराध्यदेव किसी का भला बुरा नहीं करते । ये किसी को पुत्र-पौत्र, धन-सम्पदा नहीं देते । अहो ! ये तो परम वीतरागी है, ये तो सम्पूर्ण पदार्थों को देखते - जानते हैं, कर्ता-भोक्ता नहीं हैं, ये संसार के सभी विकल्पों को सुख-दुःख, रोक-शोक, जन्म-जरा-मृत्यु आदि सर्व दोषों से रहित परमात्मा हैं। इनमें किसी भी प्रकार के राग-द्वेष नहीं हैं। उसी दिन से वह उन्हें वीतरागी देव जानकर उनसे आकांक्षा करना छोड़ देगा ।

    धनञ्जय कवि ने विषापहार स्तोत्र में लिखा है-


    अजानतस्त्वां नमतः फलंयत्,

    तज्जानतोऽन्यं न तु देवतेति।
    हरिन्मणिं काचधिया दधानस्,

    तं तस्य बुद्धय बहतो न रिक्तः॥


    जिस प्रकार नीलमणि को काँच समझकर भी यदि कोई धारणा करता है तो वह धनाढ्य है,क्योंकि जिस दिन उसको नीलमणि की महिमा समझ में आ जाएगी, उसके पास धन ही धन हो जायेगा । उसी प्रकार हे भगवन् ! जो आपका स्वरूप नहीं जानकर भी आपको पूजता है तो भी उसकी अपेक्षा श्रेष्ठ ही है। जो सरागी देवों को सच्चा देव समझकर पूजता है, क्योंकि जिस दिन उसको सच्चे देव का स्वरूप समझ में आ जावेगा वह सच्चा उपासक, सच्चे देव का आराधक बन ही जाएगा ।


    इसका अर्थ यह नहीं कि हम वीतरागी देव को भी काँच के समान सरागी समझकर, कुछ लेने देने वाला मानकर पूजें ।


    17. क्या सच्चे देव के (बिम्ब के ) दर्शन न मिलने पर सरागी देव के (बिम्ब के ) दर्शन कर सकते ?

    नहीं । सच्चे देव के दर्शन नहीं मिलने पर भगवान् के दर्शन किए बिना रह जाना अच्छा है किन्तु सरागी देवों की पूजा करना अच्छा नहीं है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने अर्हत् भक्ति में कहा है-


    जन्मोन्मार्ज्यं भजतु भवतः पादपद्मं न लभ्यम्,

    तच्चेत स्वैरं चरतु न च दुर्देवतां सेवतां सः।

    अश्नात्यन्नं यदिह सुलभं दुर्लभं चेन्मुधास्ते,
    क्षुद्व्यावृत्यै कवलयति कः कालकूटं बुभुक्षुः ॥ 14 ॥


    हे भगवान! यदि किसी जीव को अपने संसार भ्रमण से छूटना है, जन्म का मार्जन, निवारण करना है तो वह आपके चरण कमलों की सेवा करें। यदि आपके चरण कमल प्राप्त न हो सकें तो अपनी इच्छानुसार आचरण करे परन्तु सरागी देवों की उपासना न करें। भूखा मनुष्य जहाँ जो सुलभ है उस अन्न को खाता है यदि अन्न दुर्लभ है तो व्यर्थ ही भूख को दूर करने के लिए कालकूट विष को कौन भूखा खाता है ? कोई नहीं।


    18. क्या जिनबिम्ब के नहीं मिलने पर जिनेन्द्र देव का छायाचित्र ( फोटो ) के सामने भगवान् की पूजा आरती आदि कर सकते हैं?
    नहीं । भगवान् का छायाचित्र (फोटो) पूज्य नहीं होती है जैसे कि तीर्थङ्कर की प्रतिमा पञ्चकल्याणक में प्राण प्रतिष्ठा से पूज्य होती है । वैसे फोटो की प्रतिष्ठा नहीं होती है। जैसे आप जहाँ तीर्थङ्कर की प्रतिमा होती अर्थात् मन्दिर में भोजन नहीं करते शयन नहीं करते आदि किन्तु जो फोटो आपके घर में लगी है, आप उसके सामने भोजन भी करते, शयन भी करते है, इससे सिद्ध है जैसी विनय जिनप्रतिबिम्ब की करते है वैसी विनय जिनफोटो की नहीं करते हैं । अतः फोटो पूज्य नहीं है ।


    19. भगवान् किसी का अनुग्रह निग्रह नहीं करते हैं तो हमारी रक्षा कैसे करेंगे ? संसार में उन्हें ही शरण क्यों माना गया है?
    आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने वासुपूज्य भगवान की स्तुति करते हुए कहते हैं-


    न पूज्यार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्तवैरे ।

    तथापि ते पुण्यगुणस्मृति र्नः, पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥


    हे भगवन्! आपको पूजा करने वाले से कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि आप वीतरागी हैं और न ही आपको अपनी निन्दा से ही कोई मतलब है । क्योंकि आप द्वेष परिणाम से रहित हैं फिर भी आपके पवित्र गुणों का स्मरण ही हमारे चित्त को पाप रूपी अञ्जन से बचा लेता है ।


    विशेष- भगवान् की पूजा करने वाले, भगवान् की शरण में जाने वाले को इतने पुण्य का संचय होता है कि वह सांसारिक दुःखों से सहज ही बच जाता है। इससे उन्हें शरण कहा है।


    20. भगवान् की भक्ति से अभी तो मोक्ष मिलना है नहीं और लौकिक वस्तुएँ माँगना अच्छा नहीं है तो फिर भक्ति करने से लाभ ही क्या है ?
    ऐसा ही एक प्रश्न जब एक युवा ने आचार्य श्री शान्तिसागर जी से किया तब आचार्यश्री ने कहा - सामने यह पेड़ किसका है? युवा ने कहा आम का । तब आचार्यश्री ने पुन: कहा अभी इसमें आम कहाँ हैं? तब युवा ने कहा वह तो गर्मी के मौसम में आएगें तब आचार्य श्री ने कहा भले आज मोक्ष नहीं किन्तु जब भी मोक्ष होगा तो दिगम्बर मुनि को ही होगा। इससे मैं मुनि बना हूँ । उसीप्रकार भगवान् की भक्ति से अभी मोक्ष नहीं है, यह ठीक है किन्तु जब कभी मोक्ष होगा तो भगवान् की भक्ति से होगा किन्तु बिना दिगम्बर मुनि के नहीं होगा । जहाँ तक भक्ति के फल में लौकिक वस्तुएँ माँगने की बात है, माँगना तो कहीं पर भी अच्छा नहीं माना गया है ।


    प्रश्नोत्तर रत्नमालिका में कहा है- " किं गुरुताया मूलं यदेतप्रार्थनं नाम " ॥ 9 ॥ बड़प्पन का मूल कारण है याचना नहीं करना। " एवं किं लाघवं याञ्चा" ॥ 10 ॥ और लघुता क्या है याचना करना ।

    किसी ने कहा है-

    माँगन मरण समान है, मत माँगों रे भीख ।
    माँगन से मरना भला यह सद्गुरु की सीख ॥


    हमें यह नहीं विचारना चाहिए कि यदि हम भगवान् के सामने कुछ नहीं माँगेंगे तो हमें कुछ भी फल नहीं मिलेगा। वादिराज मुनि ने भगवान् से यह प्रार्थना नहीं की थी कि हे भगवन् ! मैं आपकी भक्ति कर रहा हूँ उसके फल में मेरा यह कुष्ठ रोग दूर हो जाए। मुनि मानतुङ्ग ने भगवान् से यह नहीं कहा कि भगवान् में आपकी भक्ति कर रहा हूँ। इसके फलस्वरूप मेरी बेड़ी कट जाए मैं जेल के बाहर आ जाऊँ । सेठ सुदर्शन ने शूली से सिंहासन की माँग नहीं की थी, फिर भी वादिराज मुनि का कुष्ठ दूर हो गया, मुनि मानतुङ्ग जेल से बाहर आ गए एवं बेड़ी स्वयमेव टूट गई, सुदर्शन सेठ की शूली का सिंहासन बन गया । भगवान् ने वादिराज का कुष्ठ दूर नहीं किया बल्कि उनने जो भक्ति की उससे मुनि के कर्मों का क्षय हुआ और कुष्ठ रोग दूर हो गया। इसी प्रकार मानतुङ्गाचार्य एवं सेठ सुदर्शन का हुआ ।


    21. कुछ व्यक्तियों को अपने मित्रों के साथ सरागी देवों के यहाँ जाना पड़ता है। वहाँ क्या वे सरागी देव में ही सच्चे देव की कल्पना करके नमस्कार कर सकते हैं?
    नहीं। आप सरागी देवों के सामने हाथ जोड़ते, नमस्कार करते देखकर आपके परिजन, मित्र अथवा अन्य लोग भी सरागी देवों के आराधक बन सकते हैं, क्योंकि वे आपको धर्मात्मा एवं विवेकशील समझते हैं । उन्हें क्या पता आपने इनमें सच्चे देव की कल्पना करके नमस्कार किया है । उनको तो यही पता है कि आपने सरागी देवों के हाथ जोड़े नमस्कार किया । मुनियों को भी सरागी देवों के सामने सामायिक, प्रतिक्रमण, आदि क्रियाएँ करने का निषेध है ।


    मित्रों के साथ घूमने जाना, भोजन करना आदि अलग है । किन्तु मित्रों के साथ सरागी देवों को नमस्कार करना कदापि उचित नहीं है ।


    विशेष- आपके मित्र आपके साथ अपने भगवान् को नमस्कार करते तो मित्र ने सच्चे देव को नमस्कार कर लिया तो उसे कोई हानि नहीं होगी। किन्तु आप अपने मित्र के साथ सरागी देव को नमस्कार किया तो आपको मिथ्यात्व का ही दोष लगेगा।

    ***

    श्रीकृष्ण को तीर्थङ्कर प्रकृति के बन्ध का कारण-

    वारवईए विज्जाविच्चं किच्चा असंजदेणावि ।
    तित्थयरणामपुण्णं समज्जियं वासुदेवेण ॥ (व.श्रा, 349 )

    अर्थ- द्वारावती में व्रत, संयम से रहित असंयत भी वासुदेव श्रीकृष्ण ने वैयावृत्त्य करके तीर्थङ्कर नामक पुण्य प्रकृति का उपार्जन किया ।

    द्वारावत्यां मुनीन्द्राय ददौ विष्णुः सदौषधम् ।
    तत्पुण्यतीर्थकृन्नाम सद्गोत्रेण बबन्धः सः ॥ (ध. श्रा., 106 )

    अर्थ- द्वारावती नगरी में किसी मुनिराज के लिए विष्णु (श्रीकृष्ण) ने उत्तम औषधिदान दिया था, उस दान के पुण्य से उन्होंने तीर्थङ्कर नाम कर्म का बन्ध किया ।


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