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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 35 - गणधर परमेष्ठी एवं ऋद्धियाँ

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    Vidyasagar.Guru

    जो तीर्थङ्करों के द्वारा कथित वाणी को ग्रहण कर द्वादशाङ्ग रूप में एकत्रित करते हैं वह गणधर परमेष्ठी कहलाते हैं । गणधर परमेष्ठी के बिना तीर्थङ्करों की दिव्यध्वनि नहीं खिरती है। सभी गणधर अष्ट ऋद्धियों से सम्पन्न होते हैं। उन्हीं ऋद्धियों का वर्णन इस अध्याय में है ।


    1. गणधर परमेष्ठी की विशेषताएँ बताइए?
    गणधर परमेष्ठी पाँच महाव्रतों के धारक, तीन गुप्तियों से रक्षित, पाँच समितियों से युक्त, आठ मदों से रहित, सात भयों से मुक्त, तप्ततप लब्धि के बल से सर्वकाल उपवास युक्त होकर भी शरीर के तेज से दशों दिशाओं को प्रकाशित करने वाले, सर्वौषधि लब्धि के निमित्त से समस्त औषधियों स्वरूप अनन्त बल युक्त होने से हाथ की कनिष्ठ (छोटी) अङ्गुली द्वारा तीनों लोकों को चलायमान करने में समर्थ, अमृतास्रवी आदि ऋद्धियों के बल से हस्तपुट में गिरे हुए सब आहारों को अमृत स्वरूप से परिणमने में समर्थ महातप गुण से कल्पवृक्ष के समान अक्षीण महानस लब्धि के बल से अपने हाथों में गिरे हुए आहारों की अक्षयता के उत्पादक, अघोर तप ऋद्धि के माहात्म्य से जीवों के मन, वचन एवं काय गत समस्त कष्टों को दूर करने वाले सम्पूर्ण विद्याओं के द्वारा सेवित चरण मूल से संयुक्त, आकाशचारण गुण से सब जीव समूहों की रक्षा करने वाले, अणिमादिक आठ गुणों से सब देवसमूहों को जीतने वाले, तीनों लोकों के जनों में श्रेष्ठ परोपदेश के बिना अक्षर व अनक्षर रूप भाषाओं में कुशल आदि गुणों से सम्पन्न समवसरण में स्थित गणधर परमेष्ठी होते हैं । (ध.पु., 9/127)

    विशेष -

    1. गणधर दीक्षा लेते ही श्रुतकेवली हो जाते हैं ।
    2. यद्यपि वे आहार नहीं लेते थे (प्रसंग बाहुबली जी का ) तथापि शक्ति मात्र से उनके रस ऋद्धि प्रकट हुई उनकी बल ऋद्धि भी विस्तार पा रही थी ( मु.पु., 36/ 154) भावार्थ - शक्ति मात्र से रस ऋद्धि का सद्भाव बतलाया है । इस प्रकार अनेक ऋद्धियों का सद्भाव एक साथ पाया जाता है ।
    3. गणधर उसी भव से मोक्ष जाते हैं। क्योंकि गणधरों के पास सर्वावधि, परमावधि ज्ञान होता है । इस ज्ञान के साथ मोक्ष का नियम है । (गो.जी., 374, ध.पु., 13/323)

     

    2. ऋषभदेवादि के मुख्य गणधर एवं उनके गणधरों की संख्या बताइए ?

    1. ऋषभसेन आदि 84
    2. केसरी सेन आदि 90
    3. चारुदत्त आदि 105
    4. वज्रचमर आदि 103
    5. वज्र आदि 116
    6. चमर आदि 111
    7. बलदत्त आदि 95
    8. वैदर्भ आदि 93
    9. नाग (अनगार) आदि 88
    10. कुन्थु आदि 87
    11. धर्म आदि 77
    12. मन्दिर आदि 66
    13. जय आदि 55
    14. अरिष्ट आदि 50
    15. सेन (अरिष्टसेन) 43
    16. चक्रायुध 36
    17. स्वयम्भू 35
    18. कुम्भ (कुन्थु ) 30
    19. विशाख आदि 28
    20. मल्लि आदि 18
    21. सोमक आदि 17
    22. वरदत्त 11
    23. स्वयम्भू 10
    24. इन्द्रभूति 11
    कुल  1459

     ति.प., 4/970-975)
     

    विशेष- तिलोयपण्णत्ती ग्रन्थ के अनुसार चौबीस तीर्थङ्करों के गणधरों की संख्या 1459 है । अन्य मतानुसार पद्मप्रभ के 110 एवं शीतलनाथ के 81 गणधर मानने से 1452 गणधर भी होते हैं ।


    3. ऋद्धि किसे कहते हैं एवं इसके कितने भेद-प्रभेद हैं ?
    ऋद्धि- तपश्चरण आदि के प्रभाव से कदाचित् किन्हीं योगीजनों को कुछ विशेष शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। उन्हें ऋद्धि कहते हैं । इनके मूल में आठ भेद हैं ।


    1. बुद्धि ऋद्धि, 2. क्रिया ऋद्धि, 3. विक्रिया ऋद्धि, 4. तप ऋद्धि, 5. बल ऋद्धि, 6. औषधिऋद्धि, 7. रस ऋद्धि, 8. अक्षीण ऋद्धि । इनके प्रभेद से ऋद्धियाँ 64 प्रकार की होती हैं । इनमें कुछ ऋद्धियाँ शुभ तथा कुछ अशुभ होती हैं । अशुभ ऋद्धियों की प्रवृत्ति इच्छा के वश से होती हैं । किन्तु शुभ लब्धियों की प्रवृत्ति दोनों ही प्रकारों से (इच्छा से एवं स्वत: से) सम्भव हैं। (ध.पु., 9/95)

    बुद्धि ऋद्धि के 18 भेद-


    1. अवधिज्ञान - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिए हुए अणु से महास्कन्ध तक रूपी पदार्थों का इन्द्रियादिक की सहायता बिना जो प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, वह अवधिज्ञान है । (ति.प., 4/981)


    2. मन:पर्ययज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही दूसरे के मन में स्थित रूपी पदार्थों का जो प्रत्यक्षज्ञान होता है वह मन:पर्यय ज्ञान है ।


    3. केवलज्ञान- जो त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों की अनन्त पर्यायों को एक साथ स्पष्ट रूप से जानता है, वह केवलज्ञान है। (प्र., 47)


    4. बीज बुद्धि - जैसे- उपजाऊ भूमि में एक भी बीज अनेक बीजों का उत्पादक होता है उसी तरह एक
    बीजपद से ही श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से अनेक पदार्थों का ज्ञान करना बीज बुद्धि है। (त.वा., 3/36/3)

     

    5. कोष्ठ बुद्धि - जैसे- कोठार में अनेक प्रकार के धान्य सुरक्षित और पृथक्-पृथक् रखे रहते हैं । उसी तरह बुद्धि रूपी कोठे में समझे हुए पदार्थों का सुविचारित रूप से बने रहना कोष्ठ बुद्धि है। (त.वा., 3/38/3)

     

    6. पदानुसारणी बुद्धि - विशिष्ट ज्ञान की पदानुसारणी बुद्धि कहते हैं । उसके तीन भेद हैं- अनुसारणी,
    प्रतिसारणी और उभयसारणी । ये तीनों बुद्धियाँ यथार्थ नाम वाली हैं। जो बुद्धि, आदि, मध्य एवं अन्त में गुरु के उपदेश से एक बीज पद को ग्रहण करके उपरिम ग्रन्थ को ग्रहण करती है वह अनुसारणी बुद्धि है । तथा गुरु के उपदेश से आदि, मध्य अथवा अन्त में एक बीज पद को ग्रहण करके जो बुद्धि अधस्तन ग्रन्थ को जानते हैं, वह प्रतिसारणी बुद्धि है । (ति.प.,4/989-992)


    7. सम्भिन्न श्रोतृत्व - 12 योजन लम्बे और 9 योजन चौड़े चक्रवर्ती के कटक के भी विभिन्न शब्दों को एक साथ सुनकर उनको पृथक्-पृथक् ग्रहण करना सम्भिन्न श्रोतृत्व है ।


    8-12. दूरास्वादित्व ऋद्धि- रसनेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय का उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अङ्गोपाङ्ग नाम कर्म का उदय होने पर जो रसना - इन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय - क्षेत्र से बाहर संख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित विविध रसों के स्वाद को जानती है, वह दूरास्वादित्व ऋद्धि है।


    इसी प्रकार उस उस इन्द्रिय सम्बन्धी मतिज्ञानावरण श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय इन तीनों के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र से बाहर संख्यात योजनों में स्थित उस उस सम्बन्धी विषय को जान लेना उस उस नाम की ऋद्धि है । यथा - स्पर्शन इन्द्रियावरण के क्षयोपशम से दूर स्पर्शत्व, घ्राणेन्द्रियावरण के क्षयोपशम से दूर घ्राणत्व श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशम से दूर श्रवणत्व और चक्षुरिन्द्रियावरण के क्षयोपशम से दूरदर्शित्व ऋद्धि होती है। (ति.प.,4/998-1006)


    13. दशपूर्वित्व ऋद्धि - दस पूर्व पढ़ने में रोहिणी आदि महाविद्याओं के 500 और अंगुष्ठ प्रसेनादिक (प्रश्नादिक) क्षुद्र (लघु) विद्याओं के सात सौ देवता आकर आज्ञा माँगते हैं । इस समय जो महर्षि जितेन्द्रिय होने के कारण उन विद्याओं की इच्छा नहीं करते, वे विद्याधर श्रमण पर्याय नाम से भुवन में प्रसिद्ध होते हुए अभिन्न दसपूर्वी कहलाते हैं । उन ऋषियों की बुद्धि को दसपूर्वी जानना चाहिए। (fa..,4/1007-1009)


    14. चौदह पूर्वित्व ऋद्धि - जो महर्षि सम्पूर्ण आगम में पारंगत हैं तथा श्रुतकेवली नाम से सुप्रसिद्ध हैं उनके चौदहपूर्वी नामक बुद्धि - ऋद्धि होती है । (ति.प., 4/1010)


    15. अष्टाङ्ग महानिमित्त ऋद्धि- अन्तरिक्ष, भौम, अङ्ग, स्वर, व्यञ्जन, लक्षण, छिन्न और स्वप्न इन आठ निमित्तों के माध्यम से त्रिकाल सम्बन्धी दुःख-सुख आदि का जानना अष्टाङ्ग महानिमित्त ऋद्धि है ।

    • अन्तरिक्ष- आकाश के सूर्य, चन्द्र, तारा आदि की गति से अतीत-अनागत का ज्ञान करना अन्तरिक्ष निमित्त है ।
    • भौम- पृथिवी के घन ( सान्द्रता), सुषिर (पोलापन), स्निग्धता और रूक्षता आदि अवस्थाओं में हानि-लाभ का परिज्ञान या पृथिवी में गड़े हुए धन आदि का ज्ञान करना भौम निमित्त है ।
    • अङ्ग - जिससे मनुष्य और तिर्यञ्चों के निम्न एवं उन्नत अङ्ग - उपाङ्गों के दर्शन एवं स्पर्श से वातादि तीन प्रकृतियों और रुधिरादि सात स्वभावों (धातुओं) को देखकर तीनों कालों में उत्पन्न होने वाले सुख-दु:ख तथा मरण- आदि को जाना जाता है, वह अङ्ग निमित्त नाम से प्रसिद्ध है। (ति.प., 4/1015 - 1016)
    • स्वर - जिसके द्वारा मनुष्यों और तिर्यञ्चों के विचित्र शब्दों को सुनकर तीनों कालों में होने वाले दुःख-सुख को जाना जाता है, वह स्वर निमित्त है । (ति.प., 4/1017)
    • व्यञ्जन - सिर, मुख, कण्ठ आदि पर तिल एवं मस्से आदि को देखकर तीनों काल के सुखादिक को जानना यह व्यञ्जन निमित्त है। (ति.प., 4/1018)
    • लक्षण- हस्ततल (हथेली) और चरणतल (पगतली) आदि में कमल एवं वज्र आदि चिह्नों को देखकर तीनों कालों में होने वाले सुखादिक को जानना, यह लक्षण निमित्त है।
    • छिन्न- वस्त्र-शस्त्र, छत्र, जूता, आसन और शय्या आदि में शस्त्र, चूहा, काँटे आदि से हुए छेद के द्वारा शुभाशुभ का ज्ञान करना छिन्न है । (त. वा., 3/36/3)
    • स्वप्न - वात-पित्तादि दोषों से रहित सोया हुआ व्यक्ति पिछली रात्रि में यदि अपने मुख कमल में प्रविष्ट होते हुए सूर्य-चन्द्र आदि शुभ स्वप्नों को देखे तथा घी एवं तैल आदि की मालिश, गधा एवं ऊँट आदि पर सवार और परदेश-गमनादि अशुभ स्वप्न देखे तो उसके फलस्वरूप तीन काल में होने वाले सुख- दुःखादिक को बतलाना स्वप्न निमित्त है । इसके चिह्न और माला रूप से दो भेद हैं। इनमें से स्वप्न में हाथी एवं सिंहादिक को चिह्न - स्वप्न और पूर्वापर सम्बन्ध रखने वाले स्वप्न को माला स्वप्न कहते हैं। (ति.प.,4/1022-1025)

     

    16. प्रज्ञा - श्रमण - ऋद्धि - श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म का उत्कृष्ट क्षयोपशम होने पर प्रज्ञा - श्रमण ऋद्धि उत्पन्न होती है। प्रज्ञा - श्रमण - ऋद्धि से युक्त महर्षि बिना अध्ययन किए ही चौदह पूर्वों में विषय की सूक्ष्मतापूर्वक सम्पूर्ण श्रुत को जानता है और उसका नियम- पूर्वक निरूपण करता है । उसकी बुद्धि को प्रज्ञा श्रमण ऋद्धि कहते हैं । (ति.प., 4/1023-1026)


    17. प्रत्येक बुद्धि - जिसके द्वारा गुरु के उपदेश के बिना ही कर्मों के उपशम से सम्यग्ज्ञान और तप के विषय में प्रगति होती है, वह प्रत्येक बुद्धि कहलाती है। (ति.प., 4/1031)


    18. वादित्व बुद्धि ऋद्धि- जिस ऋद्धि द्वारा शाक्यादिक (या शक्रादि) विपक्षियों को भी बहुत भारी वाद से निरूत्तर कर दिया जाता है और पर द्रव्यों की गवेषणा (परीक्षा) की जाती है । वह वादित्व बुद्धि ऋद्धि कहलाती है। (ति.प., 4/1032 )

     

    विक्रिया ऋद्धि 11 प्रकार की

    1. अणिमा - शरीर को अणु बराबर कर लेना अणिमा ऋद्धि है। इस ऋद्धि के प्रभाव से महर्षि अणु के बराबर छिद्र में प्रविष्ट होकर वहाँ ही चक्रवर्ती के सम्पूर्ण कटक की रचना करता है ।
    2. महिमा - शरीर को मेरु बराबर (बड़ा) कर लेना महिमा ऋद्धि है।
    3. लघिमा - वायु से भी लघु शरीर करने क्षमता लघिमा ऋद्धि है ।
    4. 4. गरिमा - वज्र से भी अधिक भारी शरीर बना लेना गरिमा ऋद्धि है।
    5. प्राप्ति - भूमि पर बैठे हुए अङ्गुली से मेरु या सूर्य, चन्द्र आदि को स्पर्श कर लेना प्राप्ति ऋद्धि है।
    6. प्राकाम्य - पृथिवी पर भी जल के सदृश उन्मज्जन, निमज्जन करता है तथा जल पर भी पृथिवी के सदृश्य गमन करता है, वह प्राकाम्य ऋद्धि है।
    7. ईशत्व ऋद्धि- जिससे सब मनुष्यों पर प्रभुत्व होता है, वह ईशत्व ऋद्धि है।
    8. वशित्व ऋद्धि- तपो-बल द्वारा जीव समूह वश में होते हैं, वह वशित्व ऋद्धि है।
    9. अप्रतिघात ऋद्धि - जिस ऋद्धि के बल से शैल, शिला और वृक्षादि के मध्य में होकर आकाश के सदृश्य गमन किया जाता है, वह अप्रतिघात ऋद्धि है ।
    10. अन्तर्धान ऋद्धि- अदृश्य रूप बना लेना अन्तर्धान ऋद्धि है।
    11. कामरूपित्व ऋद्धि - एक साथ अनेक रूप बना लेना कामरूपित्व ऋद्धि है । (ति.प., 4/1033 से 1041 एवं त.वा.,3/36/3)


    विशेष - सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में क्रिया ऋद्धि के बिना सात प्रकार की ऋद्धि ली हैं, एवं तत्वार्थवार्तिक, तिलोयपण्णत्ती ग्रन्थ में क्रिया ऋद्धि सहित आठ प्रकार ऋद्धियाँ हैं ।


    क्रिया ऋद्धि


    क्रिया ऋद्धि दो प्रकार की है - आकाशगामित्व एवं चारणत्व । (त.वा., 3/36/3)

    • आकाशगामित्व - पद्मासन या कायोत्सर्गरूप से आकाश में गमन करना आकाशगामित्व ऋद्धि है। (त.वा. 3/36/3)
    • चारणत्व- चारण ऋद्धि आठ प्रकार की होती है । (ध.पु.,9/78)
    1. जलचारण ऋद्धि- जल पर पैर रखता हुआ जाता है किन्तु जलकायिक जीवों की विराधना नहीं होती है वह जलचारणऋद्धि है ।
    2. जङ्घाचारण ऋद्धि- चार अङ्कल प्रमाण पृथिवी को छोड़कर तथा घुटनों को मोड़े बिना जो आकाश में बहुत योजनों पर्यन्त गमन करता है, वह जङ्घाचारण ऋद्धि है।
    3. मकड़ी तन्तु चारण ऋद्धि- जिसके द्वारा मुनि - महर्षि शीघ्रता से किए गए पद - विक्षेप में अत्यन्त लघु होते हुए, मकड़ी तन्तु चारण ऋद्धि है ।
    4. फल चारण ऋद्धि- जिस ऋद्धि से अनेक प्रकार के वन-फलों में रहने वाले जीवों की विराधना न करते हुए उनके ऊपर से चलता है, वह फल चारण ऋद्धि है।
    5. पुष्प चारण ऋद्धि- जिस ऋद्धि के प्रभाव से बहुत प्रकार के फूलों में रहने वाले जीवों की विराधना न करके उनके ऊपर से जाता है, वह पुष्प चारण ऋद्धि है ।
    6. बीज चारण ऋद्धि - जिस ऋद्धि के प्रभाव से बहुत प्रकार के बीजों में रहने वाले जीवों की विराधना न करके उनके ऊपर से जाता है वह बीज चारण ऋद्धि है।
    7. आकाश चारण ऋद्धि- चार अङ्गुल से अधिक प्रमाण में भूमि से ऊपर आकाश में गमन करने वाले ऋषि आकाश चारण ऋद्धि वाले कहे जाते हैं । (ध.पु., 9/80)
    8. श्रेणी चारण ऋद्धि- धूम, अग्नि, पर्वत और वृक्ष के तन्तु समूह के ऊपर चढ़ने की शक्ति से संयुक्त श्रेणी चारण ऋद्धि है । (ध.पु., 9/80)


    विशेष- धवला पुस्तक 9 में चारण ऋद्धि 8 प्रकार की एवं तिलोयपण्णत्ति में चारण ऋद्धि 12 प्रकार की है।


    तप ऋद्धि (7)

     

    1. उग्रोग्र तप ऋद्धि- दीक्षोपवास से प्रारम्भ कर मरण पर्यन्त एक - एक अधिक उपवास को बढ़ाकर तपस्या करना, उग्रोग्रतप ऋद्धि है । (ति.प., 4/1060)
    2. दीप्ततप ऋद्धि- महोपवास करने पर भी जिनका काय, वचन और मनोबल बढ़ता ही जाता है और शरीर की दीप्ति उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होती है । वह दीप्त तप ऋद्धि है। (त.वा., 3/36/3)
    3. तप्त तप ऋद्धि - गरम तवे पर गिरे हुए जल की तरह जिनके अल्प आहार का मलादिरूप से परिणमन नहीं होता वह वहीं सूख जाता है, वह तप्त तप ऋद्धि है । (त. वा., 3/36/3)
    4. महातप ऋद्धि- सिंहनिष्क्रीडित आदि महान् तपों को तपने वाले महातपऋद्धि वाले हैं।(त.वा.,3/36/3)
    5. घोरतप ऋद्धि- ज्वर, सन्निपात आदि महा भयंकर रोगों के होने पर भी अनशन, कायक्लेश आदि से विमुख नहीं होते और भयानक श्मशान, पहाड़ की गुफा आदि में रहने के अभ्यासी हैं, वे घोर तप ऋद्धि वाले हैं। (त.वा.,3/36/3)
    6. घोर पराक्रम ऋद्धि- जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनिजन अनुपम एवं वृद्धिङ्गत तप सहित, तीनों लोकों को संहार करने की शक्ति युक्त, कण्टक, शिला, अग्नि, पर्वत, धुआँ तथा उल्का आदि के बरसाने में समर्थ एवं सहसा सम्पूर्ण समुद्र के जलसमूह को सुखाने की शक्ति से भी संयुक्त होते हैं, वह घोर पराक्रम तप ऋद्धि है। (ति.प.,4/1067–1068)
    7. अघोर ब्रह्मचारित्व ऋद्धि- जिनके तप के प्रभाव से राष्ट्रीय उपद्रव, रोग, दुर्भिक्ष, वैर, कलह, वध, बन्धन आदि नष्ट हो जाते हैं । वह अघोर ब्रह्मचारित्व ऋद्धि है । ( ध .पु., 9 /94) अथवा जो अस्खलित अखण्ड ब्रह्मचर्य धारण करते हैं तथा जिन्हें चारित्र मोहनीय का उत्कृष्ट क्षयोपशम होने पर दुःस्वप्न तक नहीं आते वह अघोर ब्रह्मचारित्व ऋद्धि है । (त.वा., 3/36/3)

     

    बल ऋद्धि (3)

     

    1. मनोबल ऋद्धि - श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के प्रकृष्ट क्षयोपशम से अन्तर्मुहूर्त काल में सम्पूर्ण श्रुत का चिन्तन कर लेता है एवं उसे जान लेता है, वह मनोबल ऋद्धि है । (त.वा., 3/36/3)
    2. वचन बल ऋद्धि - मन और रसना श्रुतज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय के प्रकृष्ट क्षयोपशम से मुनि श्रम रहित एवं कण्ठ से बोले बिना ही अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर सम्पूर्ण श्रुत को जान लेते हैं एवं उसका उच्चारण कर लेते हैं, वह वचन बल ऋद्धि है । (त.वा.,. 3/36/3)
    3. काय बल ऋद्धि - वीर्यान्तराय के उत्कृष्ट क्षयोपशम से जो मासिक, चातुर्मासिक, वार्षिक आदि प्रतिमा योगों के धारण करने पर भी थकावट और क्लेश का अनुभव नहीं करते वह काय बल ऋद्धि है। (त. वा., 3/36/3) अथवा जो तीनों लोकों को हाथ की अङ्गुली से ऊपर उठाकर अन्यत्र रखने में जो समर्थ है वह कायबल ऋद्धि है । (ध.पु., 9/99)

     

    औषधि ऋद्धि ( 8 )

     

    1. आमशौषधि- जिनके हाथ पैर आदि के स्पर्श से तथा समीप आने मात्र से रोगी निरोगी हो जाता है। वह आमशषधि ऋद्धि है।
    2. क्ष्वेलौषधि - जिनका थूक, लार, कफादि शीघ्र ही जीवों के रोगों को नष्ट कर देता है, वह क्ष्वेलौषधि ऋद्धि है।
    3. जल्लौषधि ऋद्धि - जिनके पसीने से रोग नष्ट हो जाते हैं वह जल्लौषधि ऋद्धि है ।
    4. मलौषधि ऋद्धि - जिनका जिह्वा, ओठ, दाँत, नासिका और कान आदि का मल भी जीवों के रोगों को दूर करने वाला होता है वह मलौषधि ऋद्धि है ।
    5. विडौषधि ऋद्धि - जिनका मूत्र एवं विष्ठा भी जीवों के बहुत भयानक रोगों को नष्ट करने वाला होता है, वह विडौषधि ऋद्धि है ।
    6. सर्वौषधि ऋद्धि - जिनके अङ्ग, उपाङ्ग, नख, दन्त, केश का स्पर्श या उसका स्पर्श करने वाली वायु, जल आदि सभी पदार्थ का औषधि रूप हो जाना सर्वोषधि ऋद्धि है।
    7. वचन निर्विष ऋद्धि- उग्रविष मिश्रित भी आहार जिनके मुख से जाकर निर्विष हो जाता है । अथवा मुख से निकले हुए वचनों को सुनने मात्र से महाविष व्याप्त भी निर्विष हो जाता है, वह वचन निर्विष ऋद्धि है।
    8. दृष्टिनिर्विष- जिनके देखने मात्र से ही तीव्र विष दूर हो जाता है वह दृष्टिनिर्विष ऋद्धि है। (ति.प.,4/1078-1087) (त.वा., 3/36/3)


    रस ऋद्धि (6)

     

    1. आशीविष ऋद्धि - जिस ऋद्धि के प्रभाव से दुष्कर तप युक्त मुनि के द्वारा 'मर जाओ' आदि शाप से व्यक्ति तुरन्त मर जाता है, वह आशीविष ऋद्धि है ।
    2. दृष्टिविष ऋद्धि - जिनकी क्रोधूपूर्ण दृष्टि से मनुष्य भस्मसात् हो जाता है, वह दृष्टिविष ऋद्धि है।
    3. क्षीरास्रवी ऋद्धि- जिनके हाथ में पड़ते ही नीरस भी अन्न सुस्वादु हो जाता है अथवा जिनकों वचन क्षीर के समान सबको मीठे लगते हैं वह क्षीरास्रवी ऋद्धि है ।
    4. मधुस्रवी- जिनके हाथ के आते ही रूखे आहारादिक क्षणभर में मधुर रस से युक्त हो जाते हैं, वह मधुस्रवी ऋद्धि है । अथवा जिस ऋद्धि से मुनि के वचनों के श्रवणमात्र से मनुष्य तिर्यञ्चों के दुःखादिक नष्ट हो जाते हैं, वह मधुस्रवी ऋद्धि है ।
    5. सर्पिस्रवी - जिनके हाथ से आते ही रूखा अन्न घी की तरह पुष्टिकारक और स्निग्ध हो जाता है अथवा जिनके वचन से घी की तरह तृप्त करने वाले हैं वह सर्पिस्रवी ऋद्धि है।
    6. अमृतस्रवी ऋद्धि - जिनके हाथ में आते ही भोजन अमृत की तरह हो जाता है या जिनके वचन अमृत की तरह सन्तृप्ति देने वाले हैं वह अमृतस्रवी ऋद्धि है। (त.वा.,3/36/3)


    क्षेत्र ऋद्धि ( 2 )

     

    1. अक्षीण महानस ऋद्धि- प्रकृष्ट लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से मुनि के आहारोपरान्त बची हुई भोज्य सामग्री में से एक भी वस्तु को यदि उस दिन चक्रवर्ती का सम्पूर्ण कटक को भी भोजन कराने पर लेशमात्र क्षीण नहीं होती वह अक्षीण महान ऋद्धि है। (ति.प.,4/1100-1101)
    2. अक्षीण महालय ऋद्धि - इस ऋद्धि वाले मुनि जहाँ बैठते हैं उस स्थान में अवगाहन शक्ति हो जाती है कि वहाँ कितने भी देव, मनुष्य और तिर्यञ्च निर्बाध रूप से बैठते जाते हैं, यह अक्षीण महालय ऋद्धि है। (त.वा.,3/36/3)


    ऋद्धिधारी मुनियों के उदाहरण-

    1. मथुरा नगरी में जब महामारी फैली थी, तब वहाँ सप्तऋषि आए और महामारी दूर हुई ।
    2. काय बल ऋद्धि धारी बालि मुनिराज ने अपने पैर के अंगूठे से कैलास पर्वत को दबाया था तब उस पर्वत को पलटने वाला दशानन रो पड़ा। इससे उसका नाम रावण पड़ गया।
    3. महासती चन्दना ने उड़द के छिलकों का आहार दिया तब वह महाश्रमण महावीर के प्रभाव से अमृत रूप हो गया ।
    4. वन में आहारचर्या करने वाले मुनि रामचन्द्र जी को राजा रानी ने आहारदान दिया, तब पञ्चाश्चर्य हुए और अक्षीण आहार हो गया ।
    5. ध्यान में मुनिराज मग्न थे तब राजा सिंहचन्द्र की रानी ने सर्प को काटा तब राजा सिंहचन्द्र ने रानी को मुनि चरणों के पास रखा, ऋद्धिधारी मुनि के शरीर को स्पर्श करती हुई वायु रानी को लगी और उसका विष दूर हो गया ।

    ***


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