दिगम्बर मुनि के अट्ठाईस मूलगुणों में एक एषणा समिति है। मुनि एषणा समिति से आहार ग्रहण करते हैं । अतः इस अध्याय में एषणा समिति के 46दोष एवं 32 अन्तरायों का वर्णन है ।
1. एषणा समिति किसे कहते हैं ?
46 दोष एवं 32 अन्तराय टालकर सदाचारी उच्चकुलीन श्रावक के यहाँ विधिपूर्वक निर्दोष आहार ग्रहण करना, एषणा समिति है।
2. एषणा समिति के 46 दोषों के नाम बताइए?
16उद्गम दोष ,16उत्पादन दोष, 10 एषणा दोष, 4 दोष (संयोजना दोष, अप्रमाण दोष, अङ्गार दोष, तथा धूम दोष । )
3. उद्गम दोष किसे कहते हैं ?
दाता में होने वाले जिन अभिप्रायों से आहार आदि उद्गच्छति उत्पन्न होता जाता है वह उद्गम दोष है । ( मू. टी., 421) ।
4.16 उद्गम दोषों के नाम बताइए ?
1. औद्देशिक, 2. अध्यधि, 3. पूर्ति, 4. मिश्र, 5. स्थापित, 6. बलि, 7. प्रावर्तित, 8. प्रादुष्कार, 9. क्रीत, 10. प्रामृष्य, 11. परिवर्तक ( परावर्त), 12. अभिघट, 13. उद्भिन्न, 14. मालारोहण, 15. अच्छेद्य, 16. अनिसृष्ट । (मू., 422-423 )
विशेष- मूलाचार प्रदीप ग्रन्थ में प्रावर्तित का परावर्तित। प्रादुष्कार का प्राविष्करण । प्रामृष्य का प्रामिच्छ । अनिसृष्टका अनीशार्थ नाम दिया है। (360-362 )
5. औद्देशिक दोष किसे कहते हैं ?
नाग, यक्ष आदि को देवता कहते हैं। जैन दर्शन से बहिर्भूत अनुष्ठान करने वाले अन्य भेषधारी लिङ्गि हैं, वे पाखण्डी कहलाते हैं। दीनजनों को दुःखी अन्धे लगड़े आदि को कृपण कहते हैं । इनको उद्देश्य करके बनाया गया भोजन औद्देशिक है। (मू.टी., 425 )
6. उद्देश्य कितने प्रकार के हैं ?
उद्देश्य चार प्रकार के हैं-
- हर किसी को उद्देश्य करके बनाया गया अन्न उद्देश्य है ।
- जो भी पाखण्डी लोग आयेंगे उन सभी को मैं भोजन कराऊँगा ऐसा उद्देश्य करके बनाया गया भोजन समुद्देश्य कहलाता है।
- श्रमण (आजीवक, तापसी, रक्तपट बौद्ध साधु, परिव्राजक या छात्र) को निमित्त करके बनाया गया आदेश है।
- निर्ग्रन्थ- (दिगम्बर मुनि) को निमित्त कर बनाया गया समादेश है । (मू. टी., 426)
विशेष - औदेशिक दोष यद्यपि यह सूक्ष्म दोष है तो भी परिहार करना चाहिए। (मू.टी., 425)
7. अध्यधि दोष किसे कहते हैं ?
मुनियों के दान के लिए अपने पकते हुए भोजन में जल या चावल का और मिला देना यह अध्यधि दोष है । अथवा भोजन पकने तक साधु को रोक लेना यह भी अध्यधि दोष है । (मू., 427)
विशेष- आहार के लिए आते हुए संयमियों को देखकर पकते हुए अपने चावलों में किसी दूसरे के चावल और मिला देना अध्यधि दोष है। (मू.प्र., 365)
8. पूति दोष किसे कहते हैं ?
जो अन्न पानादिक अप्रासुक वस्तु से मिला हो उसको पूति दोष कहते हैं । यह पाप उत्पन्न करने वाला है। (मू.प्र., 366)
9. पूति दोष कितने प्रकार के हैं ?
1. चूल्हा, 2. ओखली, 3. कलछी, 4. बर्तन, 5. गन्ध। (मू., 428)
1. रन्धनी ( चूल्हा ), 2. उद्खल (ओखली), 3. दर्वी ( करछली), 4. भोजन, 5. गन्ध । ( मू.प्र., 367)
इस चूल्हे आदि पर सबसे पहले भात आदि बना कर पहिले मुनियों को दूँगा पश्चात् अन्य किसी को दूँगा, इस प्रकार प्रासुक भी भात आदि द्रव्य पूतिकर्म अप्रासुक रूप भाव से बनाया हुआ होने से पूर्ति कहलाता है ।
इसी प्रकार नयी ओखली में कूटा हुआ, नयी करछली से, नये बर्तनों से एवं गन्ध में से जब तक मुनिराज को नहीं दूँगा, तब तक अपने या अन्य के प्रयोग में नहीं लूँगा, ये सब पूतिकर्म है। यदि मुनि ऐसे भोजन को ग्रहण करता है तो पूति दोष लगता है। क्योंकि इन पाँचों प्रकारों में प्रथम आरम्भ किया जाता है। (मू.टी., 428)
विशेष- वर्तमान समय में ओवन, मिक्सी, आटा चक्की आदि के प्रयोग से तैयार की वस्तु पहिले मुनियों को दूँगा, यह भी पूति दोष है ।
10. मिश्र दोष किसे कहते हैं?
पाखण्डियों और गृहस्थों के साथ मुनियों को जो सिद्ध हुआ अन्न दिया जाता है उसे मिश्र दोष जानो क्योंकि उनके साथ आहार देने से उनका स्पर्श आदि हो जाने से आहार अशुद्ध हो जावेगा तथा संयमी मुनियों को उनके साथ देने से उनका अनादर भी होगा । ( मू.टी., 429 )
11. स्थापित दोष किसे कहते हैं ?
जिस बर्तन में भोजन बनाया गया हो, उसमें से लेकर यदि किसी दूसरे बर्तन में रख दिया गया हो, चाहे वह अपने घर में रखा हो, और चाहे दूसरे के घर में रख दिया हो। ऐसे अन्न के लेने में 'स्थापित' नाम का दोष होता है। (मू.प्र., 375 )
12. बलि दोष किसे कहते हैं?
यक्ष-नाग आदि के निमित्त बनाया गया नैवेद्य बलि कहा जाता है । उसमें से कुछ शेष बचे हुए को भी बलि कहते हैं । यहाँ सर्वत्र कारण में कार्य का उपचार किया गया है। ऐसा शेष बचा नैवेद्य यदि मुनि को आहार में दे देवे तो बलिदोष है। (मू.टी., 431) संयमियों के आने के लिए पूजा, जलक्षेपणादि के द्वारा जो बलिकर्म किया जाता है । वह भी बलि नाम का दोष कहा जाता है । (मू.प्र., 377 ) इसमें सावद्य दोष देखें जाने के कारण यह दोष है। (मू.टी., 431)
13. प्रावर्तित ( प्राभृत ) दोष किसे कहते हैं ?
समय, दिन, मास, ऋतु और वर्ष आदि के नियम से साधुओं के लिए दिया जाने वाला अन्न प्राभृत कहा गया है । (आ.सा., ,8/28)
14. प्राभृत दोष कितने प्रकार के हैं ?
प्राभृत दोष दो प्रकार के हैं
बादर प्राभृत और सूक्ष्म प्राभृत ।
काल की हानि और वृद्धि के भेद से स्थूल प्राभृत एवं सूक्ष्म प्राभृत के दो - दो भेद हैं । अब आगे इन्हीं सब भेदों का स्वरूप बताते हैं-
जो दान आज देना हो, उसे कल व परसों देना अथवा जो दान कल या परसों देना हो उसको किसी मुनि के आने पर आज ही देना 'दिवस परावृत्य' नाम का स्थूल प्राभृत दोष है । इसी प्रकार जो दान शुक्ल पक्ष में देना हो उसे कृष्ण पक्ष में देना अथवा जो कृष्ण पक्ष में देना हो, उसको शुक्ल पक्ष में देना ' पक्ष परावृत्य' नाम का स्थूल प्राभृत दोष है । इसी प्रकार से जो दान चैत्र माह में देना हो उसे वैशाख माह में देना अथवा वैशाख माह में देना हो उसे चैत्र माह में देना 'मास परावृत्य' नाम का स्थूल प्राभृत दोष है । जो दान अगले वर्ष में देना हो, उसे इसी वर्ष में देना तथा इसी वर्ष में देना हो उसे अगले (आगे) वर्ष में देना वर्ष प्राभृत नाम का स्थूल दोष है । जो दान शाम को देना चाहिए उसको किसी संयमी के आ जाने पर सबेरे ही देना अथवा सबेरे देना चाहिए उसको शाम को देना 'सूक्ष्म प्राभृत' नाम का दोष है । (मू.प्र., 380-381)
विशेष- इस प्रकार काल की मर्यादा के बदलने में हिंसा अधिक होती है और परिणामों में संक्लेशता बढ़ती है। इसलिए मोक्ष की इच्छा करने वाले मुनियों को अनेक प्रकार का यह 'प्राभृत' नाम का दोष सर्वथा छोड़ देना चाहिए ।
15. प्रादुष्कार दोष किसे कहते हैं ?
आहार और बर्तनों को एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में ले जाना, अथवा बर्तनों को भस्म से माँजना अथवा दीपक जलाकर मण्डप को प्रकाशित करना या घर में प्रकाश करना ' प्राविष्कार' नाम का दोष है । यह दोष पाप और आरम्भ को बढ़ाने वाला है। इसलिए इसका त्याग कर देना चाहिए। (मू.प्र.,384-385)
16. प्रादुष्कार को दोष क्यों माना है ?
इन सभी कार्यों में ईर्यापथ दोष देखा जाता है अत: यह दोष माना गया है । ( मू. टी., 434 )
17. क्रीत दोष किसे कहते हैं ?
अपने वा दूसरों के गाय, भैंस आदि चेतन पदार्थ अथवा रुपया, पैसा आदि अचेतन पदार्थों को देकर, आहार लेना और फिर उसे मुनियों को देना 'क्रीत दोष' है । अथवा अपनी विद्या व मन्त्र देकर आहार लेना और फिर उसे मुनियों को देना 'क्रीत दोष' है।
18. क्रीत दोष क्यों माना हैं ?
इस कार्य में करुणा भाव आदि दोष देखे जाते हैं ( मू.टी., 435 )
19. प्रामृष्य दोष किसे कहते हैं?
जब मुनि आहार के लिए आते हैं उस समय दाता श्रावक अन्य किसी के घर जाकर भक्ति से उससे भात आदि माँगता है और कहता है कि मैं आपको इससे अधिक भोजन दूँगा या इतना ही भोजन वापस दे दूँगा। ऐसा कहकर पुन: वहाँ से लाकर यदि श्रावक मुनि को आहार देता है तो वह ऋण सहित प्रामृष्य दोष कहलाता है। (मू.टी., 436 )
20. प्रामृष्य दोष क्यों माना है?
इसमें दाता को क्लेश और परिश्रम आदि करना पड़ता है। अत: यह दोष है । (मू.टी., 436)
21. परावर्त दोष किसे कहते हैं ?
संयतों के लिए ब्रीहिजाति के धान के भात को देकर उससे शालि जाति के धान के भात आदि को ग्रहण करना अथवा रोटी आदि को देकर शालिभात आदि लाता है यह परावर्त दोष है । (मू.टी., 437 )
विशेष- इसी प्रकार गेहूँ के बदले ज्वार, अरहर की दाल के बदले मूँग की दाल, भैंस के दूध के बदले गाय का दूध लाकर देना भी परावर्त दोष है ।
22. अभिघट दोष किसे कहते हैं?
जो आहार अनेक ग्रामों, मार्गों और दूसरे घरों से लाया गया है, वह अभिघट दोष है। (आ.सा., 8/32)
23. अभिघट दोष कितने प्रकार के हैं ?
अभिघट दोष दो प्रकार का हैं - देशाभिघट और सर्वाभिघट ।
- देशाभिघट - एक देश से आए हुए भात आदि ।
- सर्वाभिघट - सब तरफ से आए हुए भात आदि ।
24. देशाभिघट कितने प्रकार का हैं?
देशाभिघट दो प्रकार का है - आचिन्न और अनाचिन्न ।
- आचिन्न - सरल पंक्ति से तीन या सात घर से आयी हुई वस्तु ग्रहण करने योग्य है, इसमें दोष नहीं है ।
- अनाचिन्न- उन घरों के अतिरिक्त या सरल पंक्ति से विपरीत जो आयी हुई वस्तु हैं वह अनाचिन्न है । यह वस्तु ग्रहण करने योग्य नहीं है, इसमें दोष है । (मू.टी., 439)
25. सर्वाभिघट दोष कितने प्रकार का हैं ?
सर्वाभिघट दोष चार प्रकार का है- स्वग्राम, परग्राम, स्वदेश, परदेश |
- स्वग्राम- स्वग्राम से लाया गया भात आदि । अर्थात् एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले में लाया गया ।
- परग्राम - पर ग्राम से लाया गया भात आदि ।
- स्वदेश - जिस देश में मुनि ठहरे हुए हैं उस देश से लाया गया भात आदि । (मू.टी., 440)
- परदेश- जिस देश में मुनि ठहरे नहीं हैं उस देश से लाया गया भात आदि। ( मू.टी., 440 )
26. अभिघट को दोष क्यों कहा है ?
इसमें ईर्यापथ दोष प्रचुर मात्रा में देखा जाता है। ( मू.टी., 440 )
27. उभिन्न दोष किसे कहते हैं ?
ढके हुए या मुद्रा (जैसे - तेल का पीपा ऊपर से बन्द रहता है) से बन्द औषधि घी, शक्कर आदि हैं, उन्हें खोलकर देना उद्भिन्न दोष है । ( मू., 441 )
28. उभिन्न दोष क्यों कहा ?
ढकी हुई सामग्री में भी चींटी आदि चढ़ सकती है इससे दोष कहा है । (मू.टी.,441)
29. मालारोहण दोष किसे कहते हैं ?
नसैनी से घर से दूसरे भाग (ऊपरी भाग ) पर चढ़कर वहाँ पर रखा हुआ पुआ, मण्डक (मैदे की एक प्रकार की रोटी), लड्डू, शक्कर आदि लाकर जो उस समय देता है सो वह मालारोहण दोष है । (मू.टी.,442)
30. मालारोहण को दोष क्यों कहा ?
इसमें दाता के गिरने का भय देखा जाता है ।
31. आछेद्य दोष किसे कहते हैं ?
संयत को भिक्षा के लिए आते देखकर और राजा या चोर आदि से डरकर जो उन्हें आहार देता है वह आछेद्य दोष है । यदि आप आते हुए संयतों को आहार नहीं दोगे तो मैं तुम्हारा द्रव्य अपहरण कर लूँगा या तुम्हें ग्राम से बाहर निकाल दूँगा । इस प्रकार राजा या चोर आदि के द्वारा कुटुम्ब को डराकर आहार देने में लगाया जाता है, उस समय उन दातारों के द्वारा दिया गया दान आछेद्य दोष वाला होता है । (मू.टी., 443)
32. आछेय को दोष क्यों कहा ?
यह दोष उस कुटुम्बियों को भय का करने वाला है। (मू.टी., 443)
33. अनीशार्थ दोष किसे कहते हैं?
घर के स्वामी या परिवार के अन्य लोगों की अनुमति के बिना जो आहार दिया जाता है वह अनीशार्थ दोष से दूषित है । (आ.सा., 8/34)
34. अनीशार्थ दोष क्यों कहा हैं ?
इसमें एक दान देता है और दूसरा निषेध करता है। इस प्रकार के दान में दोष लगता है । (मू.प्र., 400 )
35. उद्गम दोष किसके आश्रित हैं ?
ये दाता और पात्र दोनों के आश्रित हैं और क्लेश तथा पाप उत्पन्न करने वाले हैं। इसलिए सज्जनों को इन सब दोषों का त्याग कर देना चाहिए ।
36. उत्पादन दोष कितने होते हैं ? नाम सहित बताइए ।
उत्पादन दोष सोलह होते हैं- 1. धात्री, 2. दूत, 3. निमित्त, 4. आजीवन दोष, 5. वनीपक वचन, 6. चिकित्सा, 7. क्रोध, 8. मान, 9. माया, 10. लोभ, 11. पूर्व संस्तुति, 12. पश्चात् संस्तुति, 13. विद्या, 14. मन्त्र, 15. चूर्ण दोष, 16. मूलकर्म । ( मू.प्र., 402 – 404 )
37. धात्री दोष किसे कहते हैं ?
जो मुनि गृहस्थों को युक्ति पूर्वक धाय के समान बच्चे को स्नान कराने, वस्त्राभूषण पहनाने, क्रीड़ा कराने, दूध पिलाने और सुलाने आदि की विधि का उपदेश देकर निंद्य रीति से अन्न उत्पन्न ग्रहण करते हैं उनके निन्दनीय धात्री का नाम दोष उत्पन्न होता है। (मू.प्र., 405 - 406)
38. धात्री कितने प्रकार की होती हैं ?
धात्री पाँच प्रकार की होती हैं-
- मार्जन धात्री - जो बालक को स्नान कराती है ।
- मण्डन धात्री- जो तिलक आदि लगाकर भूषित करती है ।
- क्रीडन धात्री - जो बालक को क्रीड़ा कराती है, रमाती है ।
- क्षीर धात्री- जो बच्चों को दूध पिलाती है ।
- अम्ब धात्री - जन्म देने वाली अथवा जो सुलाती है। (मू.टी., 447 )
39. धात्री दोष को दोष क्यों कहा ?
इसमें स्वाध्याय का विनाश तथा मार्ग (मोक्षमार्ग) का दूषण देखा जाता है । (मू.टी., 447 )
40. दूत दोष किसे कहते हैं ?
स्वग्राम से परग्राम में वा स्वदेश से परदेश में जल-स्थल या आकाश से जाते समय किसी के सम्बन्धी के सन्देश को ले जाकर कहे वह श्रावक परग्राम का हो या परदेश में मुनि के वचन सुनकर उन पर सन्तुष्ट होकर उन्हें दान आदि देता है और मुनि यदि वह आहार लेते हैं तो उनके दूत कर्म दोष लगता है । (मू.टी., 448)
41. दूत दोष को दोष क्यों कहा ?
इससे शासन (जिनशासन) दूषित होता है (मू.टी., 448)
42. निमित्त दोष किसे कहते हैं ?
आठ प्रकार के निमित्तों का उपदेश देकर जो साधु भिक्षा ग्रहण करता है उसके निमित्त नाम का दोष लगता है। (मू.प्र., 410 )
43. आठ प्रकार के निमित्त कौन-कौन से हैं ?
1. व्यञ्जन,2.अङ्ग,3 . स्वर, 4. छिन्न, 5. भौम, 6. अन्तरीक्ष, 7. लक्षण 8. स्वप्न । (मू.प्र.,409)
43. व्यञ्जन आदि निमित्त किसे कहते हैं ?
- व्यञ्जन निमित्त - किसी पुरुष के व्यञ्जन, मसा, तिल आदि को देखकर जो शुभ या अशुभ जाना जाता है । वह व्यञ्जन निमित्त है ।
- अङ्ग निमित्त - किसी पुरुष के सिर, ग्रीवा आदि अवयव देखकर जो शुभ या अशुभ जाना जाता है। वह अङ्ग निमित्त है ।
- स्वर निमित्त - किसी पुरुष या अन्य प्राणी के शब्द विशेष को सुनकर जो शुभ अशुभ जाना जाता है, वह स्वर निमित्त है ।
- छिन्न निमित्त - किसी प्रहार या छेद को देखकर किसी पुरुष या अन्य का जो शुभ - अशुभ जाना जाता है छिन्न निमित्त है ।
- भौम निमित्त - किसी भूमि विभाग को देखकर किसी पुरुष या अन्य को जो शुभ-अशुभ जाना जाता है, वह भौम निमित्त है।
- अन्तरीक्ष निमित्त - आकाश में होने वाले ग्रह युद्ध, ग्रहों का अस्तमन, ग्रहों का निर्घात आदि देखकर जो प्रजा का शुभ या अशुभ जाना जाता है वह अन्तरीक्ष निमित्त है ।
- लक्षण निमित्त - जिस लक्षण को देखकर पुरुष या अन्य का शुभ या अशुभ जाना जाता है वह लक्षण निमित्त है। विशेष- नंद्यावर्त, पद्म चक्र आदि लक्षण कहलाते हैं।
- स्वप्न निमित्त - जिस स्वप्न को देखकर पुरुष या अन्य किसी को शुभ या अशुभ जाना जाता है, वह स्वप्न निमित्त है । (मू.टी., 449)
43. निमित्त दोष को दोष क्यों कहा?
इसमें रस का आस्वादन, दीनता आदि दोष देखें जाते हैं । (मू.टी., 449)
44. आजीवन दोष किसे कहते हैं?
जो मुनि अपनी जाति, कुल, तप और शिल्पकर्म या हाथ की कलाओं का उपदेश देकर या जाति कुल बतला कर अपनी आजीविका करता है । उसको आजीवन नाम का दोष लगता है। (मू.प्र.,411)
45. आजीवन को दोष क्यों कहा ?
इसमें अपने वीर्य (शक्ति) का छिपाना, दीनता आदि करना ऐसे दोष आते हैं। (मू.टी.,450)
46. वनीपक दोष किसे कहते हैं ?
यदि कोई गृहस्थ किसी मुनि से यह पूछे कि पाखण्डियों को कृपण या कोढ़ी आदि को अथवा भिक्षुक ब्राह्मणों को दान देने में पुण्य होता है या नहीं। इस उत्तर में वह मुनि उस दाता के अनुकूल यह कह दे कि हाँ, पुण्य होता है । इस प्रकार अशुभ वचन कह कर उसी दाता के द्वारा दिए हुए दान को ग्रहण करता है उसके वनीपक नाम का दोष लगता है। (मू.प्र., 412-413)
47. इसे दोष क्यों कहा ?
इसमें दीनता आदि दोष देखे जाते हैं । (मू.टी., 451)
48. चिकित्सा दोष किसे कहते हैं ?
चिकित्सा शास्त्रों में आठ प्रकार की चिकित्सा बतलाई है, उनके द्वारा मनुष्यों का उपकार कर जो मुनि उन्हीं के द्वारा दिए हुए अन्न को ग्रहण करता है। उसके चिकित्सा नाम का दोष लगता है ।
49. चिकित्सा कितने प्रकार की होती हैं ?
चिकित्सा आठ प्रकार की होती हैं - 1. कौमार चिकित्सा, 2. तनु चिकित्सा, 3. रसायन चिकित्सा, 4. विष चिकित्सा, 5. भूत चिकित्सा, 6. क्षारतन्त्र चिकित्सा, 7. शालाकिक चिकित्सा, 8. शल्य चिकित्सा ।
50. कौमार आदि चिकित्सा किसे कहते हैं?
- कौमार चिकित्सा - बाल वैद्य शास्त्र अर्थात् मासिक, वार्षिक, पीड़ा देने वाले ग्रहों का निराकरण करने के उपाय बताने वाला शास्त्र कौमार शास्त्र है ।
- तनु चिकित्सा - ज्वरादि दोषों का नाश करने का उपाय बताने वाले शास्त्र अथवा कण्ठ, पेट आदि का शोधन करने वाला शास्त्र ।
- रसायन चिकित्सा - शरीर के सिकुड़न और वृद्धत्व आदि को दूर करने वाली वस्तु रसायन है ।
- विष चिकित्सा - स्थावर विष और जङ्गम विष तथा कृत्रिम और अकृत्रिम विष की बाधा को दूर करने का उपाय बतलाने वाला शास्त्र ।
- भूत चिकित्सा- भूत-पिशाच को निकालने का शास्त्र ।
- क्षारतन्त्र चिकित्सा - दुष्ट व्रण को शोधन करने वाला द्रव्य ।
- शालाकिक चिकित्सा- शलाका से नेत्र के ऊपर आए हुए पटल को हटाकर मोतियाबिन्द आदि नेत्ररोग दूर करने वाला शास्त्र ।
- शल्य चिकित्सा - तोमरादि शरीर शल्य एवं हड्डी आदि भूमि शल्य को निकालने वाला शास्त्र । ( मू.टी., 452 )
51. चिकित्सा दोष को दोष क्यों कहा ?
इसमें सावद्य आदि दोष देखे जाते हैं ।
52. क्रोध, मान, माया, लोभ दोष किसे कहते हैं ?
क्रोध दिखाकर जो भिक्षा उत्पन्न की जाती है, वह क्रोध दोष है । मान दिखाकर भिक्षा उत्पन्न की जाती है, वह मान दोष है । मायाचारी या कुटिल परिणामों को धारण कर जो आहार उत्पन्न कर ग्रहण किया जाता है वह माया दोष है । लोभ दिखाकर भिक्षा उत्पन्न कर ग्रहण करता है उस लोभी मुनि के पाप उत्पन्न करने वाला लोभ दोष लगता है ।
53. क्रोध, मान, माया, लोभ को दोष क्यों कहा?
इनके करने से जिनशासन की अप्रभावना होती है ।
54. पूर्व संस्तुति दोष किसे कहते हैं?
जो मुनि दाता के सामने "तुम दानपति हो अथवा यशस्वी हो " इस तरह प्रशंसा करना और उसके दान देना भूल जाने पर उसे याद दिलाना पूर्व संस्तुति नाम का दोष है। (मू.टी.,455)
55. पूर्व संस्तुति को दोष क्यों कहा ?
यह नग्नाचार्य स्तुतिपाठक भाटों का कार्य है - इस तरह स्तुति, प्रशंसा करना मुनियों का कार्य नहीं है अतः दोष है । (मू.टी., 455)
56. पश्चात् संस्तुति दोष किसे कहते हैं?
जो मुनि दान देकर पुनः कीर्ति को कहते हैं "तुम दानपति विख्यात हो, तुम्हारा यश प्रसिद्ध है ।" यह पश्चात् संस्तुति दोष है । (मू., 456)
57. पश्चात् संस्तुति को दोष क्यों कहा हैं ?
इसमें कृपणता आदि दोष देखे जाते हैं । (मू.टी.,456)
58. विद्या दोष किसे कहते हैं?
जो मुनि दाता को यह आशा दिलाता है कि "मैं तुझे सिद्ध करने के लिए एक अच्छी विद्या दूँगा " इस प्रकार आशा दिलाकर जो भिक्षा उत्पन्न करता है उसके विद्या नामक दोष लगता है । (मू.प्र.,2/425)
59. विद्या दोष को दोष क्यों कहा ?
इसमें आहार आदि की आकांक्षा देखी जाती है। (मू.टी.,457)
60. मन्त्र दोष किसे कहते हैं?
जो पढ़ते ही सिद्ध हो वह मन्त्र है । उस मन्त्र के लिए आशा देने से और उसके माहात्म्य से आहार उत्पन्न कराना सो मन्त्र दोष है । ( मू., 458)
62. चूर्ण दोष किसे कहते हैं ?
नेत्रों के लिए अञ्जन चूर्ण और शरीर को भूषित करने वाले भूषण चूर्ण ये चूर्ण हैं । इन चूर्णों से आहार उत्पन्न कराना सो यह चूर्ण दोष है । (मू., 460)
63. चूर्ण दोष को दोष क्यों कहा ?
इसमें दीनता देखी जाती है। कुछ देकर कुछ प्राप्त करना यह तो एक प्रकार का व्यापार है । साधु व्यापारी नहीं है । अत: साधु को ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए। इससे जिनशासन की अप्रभावना होती है ।
64. मूलकर्म दोष किसे कहते हैं ?
जो मनुष्य अपने वश में नहीं है उनको मायाचारी के वचन कहकर अथवा और किसी तरह से दान देने के लिए वश में कर लेना या मनुष्य कितने ही योजन दूर रहते हैं, और दान नहीं देते, दान से अलग रहते हैं, उनको अपने दान के लिए लगा देना, पाप उत्पन्न करने वाला 'मूलकर्म' नाम का दोष कहलाता है। (मू.प्र., 428-429)
65. मूलकर्म को दोष क्यों कहा हैं?
यह स्पष्टतया लज्जा आदि का कारण है । (मू.टी, 461 )
66. उत्पादन दोष किसके आश्रित रहते हैं ?
ये पात्र के आश्रित रहते हैं। (मू.प्र., 2/43)
67. अशन दोष कौन-कौन से हैं?
अशन दोष दस होते हैं - 1. शङ्कित, 2. प्रक्षित, 3. निक्षिप्त, 4. पिहित, 5 संव्यवहरण, 6. दायक, 7. उन्मिश्र, 8. अपरिणत,9. लिप्त, 10. परित्यजन (छोटित)। (मू.,462)
68. शङ्कित दोष किसे कहते हैं ?
यह चार प्रकार का आहार अध :कर्म से उत्पन्न हुआ हैं अथवा नहीं इस प्रकार की शङ्का रखता हुआ भी उस आहार को ग्रहण करता है उसे शङ्कित नाम का दोष लगता है। (मू.प्र.,2/433)
69. प्रक्षित दोष किसे कहते हैं ?
जो साधु चिकने बर्तन से या चिकने हाथ से अथवा चिकनी चम्मच से दिए हुए आहार को ग्रहण कर लेता है उसके प्रक्षित (मृषित) नाम का दोष लगता है। चिकनी चम्मच आदि से सम्मूर्छन जीवों की सम्भावना रहती है इसीलिए यह दोष है । (मू.प्र., 2/434)
70. निक्षिप्त दोष किसे कहते हैं ?
जो देने योग्य पदार्थ सचित्त पृथ्वी, सचित्त जल, सचित्त अग्नि, सचित्त हरित, सचित्त बीज अथवा त्रस जीवों पर रखे हों ऐसे पदार्थों को जो लोग दान कर देते हैं। उनके 'सचित्त दोष' को उत्पन्न करने वाला निन्द्य' निक्षिप्त' नाम का दोष लगता है ।( मू.प्र.,2/435-436)
71. पिहित दोष किसे कहते हैं ?
जो सचित्त वस्तु से ढका हुआ है अथवा जो अचित्त भारी वस्तु से ढका हुआ है। उसे हटाकर आहार देना वह पिहित दोष है । (मू., 466)
72. संव्यवहरण दोष किसे कहते हैं ?
यदि देने के लिए बर्तन आदि खींचकर बिना देखे दे देवे तो संव्यवहरण दोष होता है। (मू., 467)
विशेष- दान देने के लिए जो वस्त्र, बर्तन आदि को जल्दी बेचकर आहार तैयार करता है उसके व्यवहार नाम का दोष लगता है । (मू .प्र., 2/438)
73. दायक दोष किसे कहते हैं ?
धाय, मद्यपायी, रोगी, मृतक के सूतक सहित, नपुंसक, पिशाचग्रस्त, नग्न, मलमूत्र करके आए हुए, मूर्छित वमन करके आए हुए, रुधिर सहित, वेश्या, श्रमणिका, तेल मालिश करने वाली, अति बाला, वृद्धा, खाती हुई, गर्भिणी (पाँच माह के बाद) अन्धी, किसी की आड़ में खड़ी हुई, बैठी हुई, ऊँचे स्थान पर खड़ी या नीचे स्थान पर खड़ी हुई आहार देवे तो दायक दोष है। फूँकना, जलाना, लकड़ियाँ अग्नि में डालना, ढकना, बुझाना, लकड़ी आदि । हटना या पीटना आदि अग्नि का कार्य करके, लीपना, धोना करके, दूध पीते बालक को छोड़कर के आदि कार्य करके आकर यदि आहार देते हैं तो दायक दोष हैं। (मू., 468-471)
74. उन्मिश्र दोष किसे कहते हैं ?
पृथ्वी,जल, हरितकाय, बीज और त्रस इन पाँचों से मिश्र हुआ आहार उन्मिश्र है । (मू.,472)
विशेष- मिट्टी, अप्रासुक जल तथा पत्ते, फूल, फल आदि हरितकाय, जौ, गेहूँ आदि बीज और सजीव त्रस, इन पाँच से मिश्रित हुआ आहार उन्मिश्र दोष रूप होता है । इसका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि यह महादोष है। (मू.टी., 472)
75. अपरिणत दोष किसे कहते हैं ?
तिल, चावल, चना, चावलों की भूसी के धोने का पानी, गरम पानी जो ठण्डा हो गया हो, हरड़ बहेड़ा के चूर्ण से अपने रस, वर्ण आदि को बदल न सका हो । ये सब प्रकार के जल संयमियों को कभी ग्रहण नहीं करने चाहिए। जिस जल का वर्ण या रस किसी चूर्ण आदि से बदल गया हो ऐसा जल आँख से अच्छी तरह देखकर परीक्षा कर संयमियों को ग्रहण करना चाहिए। (मू.प्र.,2/448-450)
76. लिप्त दोष किसे कहते हैं ?
गेरु, हरिताल, सेलखड़ी, मन:शिला ( मैंणशिल) गीलाआटा, कोंपल आदि सहित जल इनसे लिप्त हुए हाथ या बर्तन से देना सो लिप्त दोष है। (मू., 474)
77. परित्यजन दोष किसे कहते हैं?
जो दाता घी, दूध, छाछ या जल का आहार देता हो और वह अपने हाथों से अधिक रूप से टपकता हो ऐसे असंयम उत्पन्न करने वाले आहार को जो मुनि ग्रहण करता है उसके 'परित्यजन' नाम का दोष लगता है। (मू.प्र.,2/455-456)
विशेष- ये दश अशन नाम के दोष कहलाते हैं तथा हिंसा आरम्भ और पाप के कारण कहलाते हैं । इसलिए मुनियों को यत्नपूर्वक इनका सर्वथा सदा के लिए त्याग कर देना चाहिए। (मू.प्र,2/457)
78. संयोजना दोष किसे कहते हैं ?
जो मुनि ठण्डे भोजन को गरम जल में मिलाकर खाते हैं अथवा गरम भोजन को ठण्डे जल में मिलाकर खाता है उसके 'संयोजना' नाम का दोष लगता है (मू.प्र., 2/458)
79. अप्रमाण दोष किसे कहते हैं?
जो मुनि प्रमाण से अधिक आहार ग्रहण करता है उसके 'अप्रमाण' नाम का दोष लगता है । अनेक रोग उत्पन्न होते हैं और ध्यान का नाश हो जाता है। (मू.प्र.,2/462)
80. धूम दोष किसे कहते हैं ?
जो अधम मुनि सरस आहार के न मिलने से, अपने वचनों से दाता की निन्दा करता हुआ आहार ग्रहण करता है उसके निन्दनीय 'धूम' नाम का दोष प्रकट होता है। (मू.प्र., 2/463)
81. अङ्गार दोष किसे कहते हैं ?
जो मन्द बुद्धि मुनि लम्पटता से मूर्छित होकर आहार को ग्रहण करता है उसके पापों का सागर ऐसा 'अङ्गार' नाम का दोष प्रकट होता है। (मू.प्र., 2/463)
विशेष: ये छयालीस (46) दोषों से अलग एक अध:कर्म नाम का महादोष हैं ।
82. अधः कर्म दोष किसे कहते हैं ?
छः प्रकार के जीवों को स्वयं अपने हाथ से मारने अथवा उनकी विराधना करने या वचन के द्वारा दूसरों से मरवाने या विराधना कराने से अथवा अनुमोदना करने से जो अन्न उत्पन्न होता है ऐसे निन्दनीय और नीच कर्म से उत्पन्न होने वाले अन्न को 'अध:कर्म' कहते हैं यह अध:कर्म नाम का महादोष असंयमी लोगों से उत्पन्न होता है, इसलिए इस 'अध:कर्म' नाम के दोष को अपने पूर्ण प्रयत्नों से सदा के लिए त्याग कर देना चाहिए। (मू.प्र.,2/356-358)
विशेष- मुनि यदि स्वयं अपने लिए आहार बनवाता है तो वह अध:कर्म है ।
83. अन्तराय किसे कहते हैं एवं ये कितने होते हैं ?
दाता (श्रावक)साधु को आहार आदि दान देना चाहता है एवं साधु लेना भी चाहता है। किन्तु जो बीच में आ जाए जिससे श्रावक दान नहीं दे पाता एवं साधु आहार आदि नहीं ले पाता उसका नाम अन्तराय है।
ये बत्तीस होते हैं-
1. काक, 2.अमेध्य, 3. छर्दि, 4. रोध, 5. रुधिर, 6 . अश्रुपात, 7 जान्वध: परामर्श, 8. जानूपरिव्यतिक्रम, 9. नाभ्यधोनिर्गमन, 10 प्रत्याख्यानसेवनात्, 11. जन्तुवध, 12. काकादिपिण्डहरण, 13. पाणित: पिण्डपतन, 14.पाणौ जन्तुवध, 15. माँसादि दर्शन, 16. उपसर्ग, 17. जीव सम्पात, 18. भाजन सम्पात, 19. उच्चार, 20 प्रस्रवण, 21. अभोज्य गृह प्रवेश 22 पतन, 23. उपवेशन, 24. सदंश, 25. भूमिसंस्पर्श, 26. निष्ठीवन, 27. उदरकृमि निर्गमन, 28. अदत्त ग्रहण, 29. प्रहार, 30. ग्रामदाह, 31. पादेन किञ्चित ग्रहण, 32. करेण किञ्चित ग्रहण । ( मू., 494 – 498)
84. काकादि अन्तराय किन्हें कहते हैं ?
- काक-साधु के चलते समय या खड़े रहते समय ऊपर जो कौआ आदि पक्षी वीट करें तो वह काक नामक अन्तराय है।विशेष- काक उपलक्षण और सभी जीव ग्रहण करना है ।
- अमेध्य - अशुचि वस्तु से चरण लिप्त हो जाना अमेध्य अन्तराय है।
- छर्दि - स्वयं को वमन हो जाना छर्दि अन्तराय है ।
- रोध - कोई भोजन का निषेध कर दे । आहार के जाते समय रोक दे तो वह रोध अन्तराय है । विशेष- किसी नगर में रेलवे फाटक रेल आने के कारण बन्द रहते हैं, तो वहाँ रुकना पड़ता है । यह व्यवस्था है । इसमें रुकने का अन्तराय नहीं होगा ।
- रुधिर- अपने या दूसरे के शरीर से खून निकलता देख रुधिर अन्तराय है। विशेष- च शब्द से पीप आदि भी है
- अश्रुपात - दुःख से आँसू निकलते देखना अश्रुपात अन्तराय है । विशेष- बहुत दिनों से प्रतीक्षारत साधु के पड़गाहन से भी अश्रुपात हो जाता है । किन्तु यह दुःख से नहीं सुख के कारण होता है ।
- जान्वधः परामर्श - घुटनों के नीचे भाग का यदि हाथ से स्पर्श हो जाए ।
- जानूपरिव्यतिक्रम - घुटनों से ऊपर के अवयवों का स्पर्श हो जावें ।
- नाभ्यधोनिर्गमन - नाभि से नीचा मस्तक कर निकलना वह नाभ्यधोनिर्गमन - अन्तराय है ।
- प्रत्याख्यानसेवनात्- त्यागी हुई वस्तु के सेवन होने पर प्रत्याख्यानसेवनात् अन्तराय है ।
- जन्तुवध- आपके द्वारा या अन्य के द्वारा सामने जीव का वध होता है तो वह जन्तुवध अन्तराय है ।
- काकादिपिण्डहरण - कौआ आदि ग्रास (पिण्ड) का हरण कर ले। यदि श्रावक भी ग्रास साधु की अञ्जुलि में रखकर उठा ले, तब भी काकादिपिण्डहरण अन्तराय है ।
- पाणित: पिण्डपतन - पाणिपात्र अञ्जुलि से पिण्ड का गिर जाना पाणित: पिण्डपतन अन्तराय है ।
- प्राणौ जन्तुवध - पाणिपात्र में किसी जन्तु का मर जाना पाणौ जन्तुवध अन्तराय हैं ।
- माँसादि दर्शन - माँसादि के दर्शन से एवं मृत पञ्चेन्द्रिय जीव शरीर के देखने से माँसादि दर्शन अन्तराय होता है ।
- उपसर्ग - देवादि के द्वारा उपसर्ग होने पर ।
- पादान्तरे जीव - दोनों पैरों के बीच से पञ्चेन्द्रिय जीव निकल जावे ।
- भाजन सम्पात- आहार देने वाले के हाथ से भाजन (बर्तन) गिर जाए तो भाजन सम्पात अन्तराय है।
- उच्चार- अपने उदर से मल निकल जाए तो उच्चार अन्तराय होता है ।
- प्रस्रवण- अपने शरीर से मूत्रादि का निकलना प्रस्रवण अन्तराय हैं ।
- अभोज्य गृह प्रवेश - चाण्डादि अभोज्य के घर में प्रवेश हो जाना अभोज्य गृह प्रवेश अन्तराय है ।
- पतन - मूर्च्छादि से आप गिर जाना पतन अन्तराय है ।
- उपवेशन - खड़े-खड़े बैठ जाना उपवेशन अन्तराय है ।
- 24. सदंश- कुत्तादि के काटने से सदंश अन्तराय होता है । विशेष- पञ्चेन्द्रिय के काटने का ही अन्तराय है । चींटी, खटमल, मच्छर आदि के काटने से नहीं ।
- भूमि संस्पर्श - सिद्धभक्ति के बाद हाथ का भूमि से संस्पर्श होना भूमि संस्पर्श अन्तराय है ।
- निष्ठीवन - कफ, थूक का निकलना निष्ठीवन अन्तराय है ।
- उदरकृमि निर्गमन - अपने पेट से कृमि का निकलना । उदरकृमि निर्गमन अन्तराय है।
- अदत्त ग्रहण - बिना दिया किञ्चित् ग्रहण करना, अदत्त ग्रहण अन्तराय है ।
- प्रहार - अपने व अन्य के तलवार आदि से प्रहार हो तो वह प्रहार अन्तराय है ।
- ग्रामदाह - ग्राम जले तो ग्रामदाह अन्तराय है ।
- पादेन किञ्चित ग्रहण - पैर द्वारा भूमि से कुछ उठा लेना, पादेन किञ्चित ग्रहण अन्तराय हैं ।
- करेण किञ्चित् ग्रहण - हाथ द्वारा भूमि से कुछ उठा लेना, करेण किञ्चित् ग्रहण अन्तराय है ।
ये काकादि बत्तीस अन्तराय तथा चाण्डालादि का स्पर्श, कलह, इष्ट का मरण तथा साधर्मी का संन्यासपूर्वक मरण, प्रधान के मरण पर, राजादिक का भय होने पर, लोक निन्दा होने पर आहार का त्याग किया जाता है । (मू.टी., 494-499)
85. चौदह मलदोष कौन से हैं जिनके अन्तराय होते हैं?
1. नख, 2. रोम, 3. प्राणरहित जीव, 4. हड्डी, 5. कुण्ड, 6. कण, 7. पीप, 8. रुधिर, 9. चर्म, 10. माँस, 11. बीज, 12. फल, 13. कन्द, 14. मूल। (मू.प्र, 2/489- 491)
86. नखादि किसे कहते हैं ?
- नख- मनुष्य एवं तिर्यञ्चों के हाथ पैर की अङ्गुली के अग्र भाग में उत्पन्न ।
- रोम-रोम अर्थात् मनुष्य - तिर्यञ्चों के बाल । विशेष- आहार के समय पिच्छी दूर रखते हैं क्योंकि पिच्छी के पंख भी मोर के बाल हैं। आहार सामग्री हाथ में लेकर आहार देने वालों को पिच्छी का स्पर्श करने से वह आहार सामग्री अशुद्ध मानी जाती है।
- प्राणरहित जीव- आहार के साथ विकलेन्द्रिय या पञ्चेन्द्रिय जीव का कलेवर के आ जाने से अन्तराय ।
- हड्डी- आहार के साथ हड्डी आ जाने से अन्तराय ।
- कुण्ड ( कुडि ) - शालि आदि अभ्यन्तर भाग का सूक्ष्म अवयव ।
- कण- जौ - गेहूँ आदि के बाहर का अवयव छिलका।
- पीप- पक्व रक्त का नाम पीप ।
- रुधिर - यह शरीर की द्वितीय धातु है ।
- चर्म - शरीर की प्रथम धातु है ।
- माँस- रुधिर का आधार माँस यह तृतीय धातु है ।
- बीज- उगने योग्य अवयव अर्थात् गेहूँ, चने आदि ।
- फल- जामुन, आम आदि ।
- कन्द- जमीन में उत्पन्न होने वाले अंकुर की उत्पत्ति के कारणभूत अथवा सूरण वगैरह ।
- मूल - पिप्पल आदि जड़ ।
87. मुनियों की आहार वृत्ति कितने प्रकार की होती हैं ? नाम सहित बताइए ?
मुनिराज की आहार वृत्ति पाँच प्रकार की होती है-
1. गोचरी, 2. अक्षमृक्षण, 3. उदराग्नि, 4. भ्रमराहार / भाम्ररी वृत्ति, 5. श्वभ्रपूरण ।(मू .प्र.,2/516-517)
88. गोचरी वृत्ति किसे कहते हैं ?
लीला सहित सालङ्कार युवतियों के द्वारा लाए हुए घास को खाते समय घास को ही खाती है, घास को ही देखती है, घास डालने वाली युवती के अङ्गगत सौन्दर्य को नहीं देखती है । अथवा नाना देशस्थ यथायोग्य उपलब्ध होने वाले चारे के पूले को ही गाय खाती है, उसकी सजावट आदि को नहीं देखती है उसी प्रकार भी परोसने वाली के मृदु, ललित रूप, वेश - विलास आदि को देखने की उत्सुकता नहीं रखता है और आहार शुष्क है वा गीला है या चाँदी आदि के बर्तन में रखा है या कैसी उसकी योजना की गयी है, आदि की ओर उसकी दृष्टि नहीं रहती है, वह तो जैसा - रूखा सूखा, सरस - नीरस शुद्ध आहार मिलता है, उसको ही खाता है अतः मुनि भोजन को गाय के समान चार ( आचार/ व्यवहार) होने से गोचरी या गवेषणा कहते हैं। यही गोचरी वृत्ति है। (त. वा., 9/6/16)
89. अक्षमृक्षण वृत्ति किसे कहते हैं ?
जिस प्रकार कोई वैश्य ( व्यापारी), रत्नों से भरी हुई ( बैलगाड़ी आदि ) को पहियों की धुरी (चक्र) में, थोड़ी सी चिकनाई लगाकर देशान्तर (दूसरे नगर) में ले जाता है, उसी प्रकार मुनिराज भी गुण रत्नों से भरी हुई इस शरीर रूपी गाड़ी को चिकनाई के समान, थोड़ा सा आहार देकर इस आत्मा को मोक्ष नगर तक पहुँचा देते हैं। इसको 'अक्षमृक्षण' वृत्ति कहते हैं। (मू.प्र., 2/522-523)
90. उदराग्नि प्रशमन वृत्ति किसे कहते हैं ?
जिस प्रकार कोई वैश्य, रत्नादिक से भरे हुए भण्डागार (गोदाम) में अग्नि के लग जाने पर तथा उसकी ज्वाला बढ़ जाने पर शीघ्र वा अशुद्ध पानी से उसे बुझा देता है, उसी प्रकार मुनिराज भी सम्यग्दर्शन आदि रत्नों की रक्षा करने के लिए अपने पेट में बढ़ी हुई क्षुधा रूपी अग्नि को सरस वा नीरस आहार लेकर शीघ्र ही बुझा देते हैं । इसको 'उदराग्नि प्रशमन' वृत्ति कहते हैं । (मू.प्र., 2/524-525)
91. ' श्वभ्रपूरण' वृत्ति किसे कहते हैं ?
जिस प्रकार कोई गृहस्थ अपने घर के मध्य के गड्ढे को किसी भी कूड़े कर्कट से भर देता है, उसके लिए अच्छी मिट्टी की इच्छा नहीं करता, उसी प्रकार मुनिराज भी अपने पेट के गड्ढे को जैसा कुछ मिल गया उसी अन्न से भर लेते हैं उसको भरने के लिए मिष्ट भोजन की तलाश नहीं करते इसको 'श्वभ्रपूरण वृत्ति' कहते हैं । (मू.प्र.,2/526-527)
92. भ्रामरी वृत्ति किसे कहते हैं?
जिस प्रकार भ्रमर अपनी नासिका के द्वारा कमल की गन्ध को ग्रहण कर लेता है और उस कमल को किञ्चित मात्र भी बाधा नहीं देता उसी प्रकार मुनिराज भी दाता के द्वारा दिए हुए आहार को ग्रहण कर लेते हैं । परन्तु चाहे उन्हें आहार मिले वा न मिले, अथवा थोड़ा ही मिले तो भी वे मुनिराज किसी भी दाता को रंचमात्र भी पीड़ा नहीं देते हैं। इसको 'भ्रामरी वृत्ति' कहते हैं। (मू.प्र., 2/528-529 )
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