मानव प्रायः अकेला नहीं रह सकता है । अतः वह सङ्गति करता है । किसे किसकी सङ्गति करना चाहिए। उसी का वर्णन अध्याय में हैं ।
1. किसकी सङ्गति करना चाहिए?
गुणवानों की सङ्गति करना चाहिए।
उदाहरण-
- जल जिनेन्द्र देव की प्रतिमा के संसर्ग से गन्धोदक पूज्य कहलाता है। वही जल नाली में डालने से गन्दा जल अस्पृश्य हो जाता है ।
- संयमी लोग भी महात्माओं के संसर्ग से पूज्यता को प्राप्त होते हैं और नीचों के संसर्ग से इस लोक और परलोक में पद-पद पर निन्दनीय हो जाते हैं इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं ।
- देखो कमल आदि के संयोग से जल सुगन्धित और शीतल हो जाता है तथा बर्तन और अग्नि के संसर्ग से वहीं जल अत्यन्त गर्म हो जाता है । उसी प्रकार यह पुरुष भी उत्तम पुरुषों के संसर्ग से उनके उत्तम गुणों के साथ-साथ उत्तम बन जाता है। और नीच पुरुषों के संसर्ग से उनके नीच गुणों के साथ-साथ नीच हो जाता है। (मू.प्र., 3 / 976)
- जिस प्रकार कोई साहूकार भी चोर के संसर्ग से चोर कहलाता है । उसी प्रकार साधु पुरुष भी असाधुओं के संसर्ग से असाधु ही कहलाता है । इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं हैं । ( मू.प्र., 3/977)
- इस संसार में जिस प्रकार असाधु पुरुष भी साधु की सेवा करने से साधु कहलाते हैं । उसी प्रकार निर्गुणी पुरुष भी गुणी पुरुषों की सेवा करने से इस लोक में गुणी ही कहलाते हैं। (मू.प्र.,3/978)
- दस चोरों के बीच में एक साहूकार बैठा है । तब भी लोग यही कहेंगे यहाँ चोर बैठे हैं।
- दस धर्मात्माओं के बीच एक पापी बैठा है तब भी लोग यहीं कहेंगे यहाँ धर्मात्मा बैठे हैं ।
2. साधु के लौकिक जनों की सङ्गति क्यों नहीं करना चाहिए ?
क्योंकि जिसने सूत्रों के पदों को और अर्थों को निश्चित किया है, जिसने कषायों का शमन किया है और जो अधिक तपस्वी है ऐसा जीव भी यदि लौकिकजनों का संसर्ग नहीं छोड़ता, तो वह संयत नहीं है। (प्र.सा., 3/68)
3. साधु को तरण जनों की सङ्गति क्यों नहीं करना चाहिए?
- जैसे -तालाब में गिरकर पत्थर उसकी तल से बैठी हुई कीचड़ को उभारकर निर्मल जल को मलिन कर देता है। वैसे ही तरुणों का संसर्ग प्रशान्त पुरुष के भी मोह उद्रिक्ता (मोहित) कर देता है (भ.आ.,1066)
- जैसे -मिट्टी में छिपी हुई गन्ध जल का आश्रय पाकर प्रकट हो जाती है। वैसे ही तरुणों के संसर्ग से मनुष्य में छिपा हुआ मोह उदय में आ जाता है । (भ.आ., 1068)
- जैसे- मिट्टी में विद्यमान होते हुए भी गन्ध जल के बिना मिट्टी में ही लीन रहती है। वैसे ही तरुणों के संसर्ग के बिना मनुष्य का मोह उसी में लीन रहता है, बाहर में प्रकट नहीं होता। (भ.आ., 1069)
- तरुण पुरुषों की सङ्गति से वृद्ध पुरुष भी शीघ्र ही विश्वास के कारण निर्भय होने से और स्वभाव से ही मोहयुक्त होने से तरुणशील तरुणों के स्वभाव वाला हो जाता है । (भ.आ., 1071)
- जो तरुणों की सङ्गति में रहता है उसकी इन्द्रियाँ चञ्चल होती हैं, मन चञ्चल होता है और पूरा विश्वासी होता है। फलत: शीघ्र ही स्वच्छन्द होकर स्त्री विषयक दोषों का भागी होता है । (भ.आ., 1073)
विशेष- पुरुष में तीन कारणों से अप्रशस्तभाव अर्थात् काम सेवन की अभिलाषा युक्त भाव होता है। एकान्त में, अन्धकार में तथा स्त्री-पुरुष के काम सेवन को प्रत्यक्ष देखने पर । (भ.आ., 1074)
4. साधु जनों में आर्यिकाओं की सङ्गति क्यों नहीं करना चाहिए?
हे साधुजनों! आपको प्रमाद रहित होकर आग और विष के तुल्य आर्यिकाओं के संसर्ग को छोड़ना चाहिए। आर्या के साथ रहने वाला साधु शीघ्र ही अपयश का भागी होता है । अतः साधुओं को आर्यिकाओं की सङ्गति नहीं करना चाहिए। (भ.आ.,332)
विशेष- केवल आर्याओं का संसर्ग ही त्याज्य नहीं है, बल्कि जो बाला, कन्या, तरुणी, वृद्धा, सुरूप, कुरूप सभी प्रकार के स्त्री वर्ग में प्रमाद रहित होता है और कभी भी उनका विश्वास नहीं करता वही साधु ब्रह्मचर्य को जीवन पर्यन्त पार लगाता है। जो उससे विपरीत होता है अर्थात् स्त्रियों के सम्बन्ध में प्रमादी और विश्वासी होता है । वह ब्रह्मचर्य को पार नहीं कर पाता । (भ.आ., 336)
5. वृद्धों की सङ्गति से क्या होता है ?
- वृद्ध पुरुषों के संसर्ग से तरुण भी शीघ्र ही लज्जा से, शङ्का से, मान से, अपमान के भय से और धर्मबुद्धि से वृद्धशील हो जाता है । (भ.आ., 1070)
- ज्ञान,वय और तप से वृद्ध पुरुषों की सङ्गति तरुण पुरुषों में भी वैराग्य उत्पन्न करती है जैसे बछड़े के स्पर्श से गाय के स्तनों में दूध उत्पन्न होता है । (भ.आ., 1077)
6. किस पर सङ्गति का क्या क्या प्रभाव पड़ा बताइए ?
- दक्षिण भारत का एक युवा पायप्पा सभी व्यसनों से सम्पन्न था उसे आचार्य श्री शान्तिसागर जी की सङ्गति मिली तब उसने श्रावक की सात प्रतिमा के व्रत ले लिए और बाद में मुनि तथा कालान्तर में आचार्य पायसागर जी हो चुके ।
- ब्रह्मचारी विद्याधर को आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की सङ्गति मिली इस इस बीसवीं - इक्कीसवीं शताब्दी के एक श्रेष्ठ आचार्य के रूप में अपने सामने हैं ।
- वर्तमान में अनेक श्रावक, श्राविका गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी सङ्गति से मुनि, आर्यिका, एलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणी, प्रतिभा स्थली की ब्रह्मचारिणियाँ आदि होकर आत्म साधना एवं जिनशासन की महती प्रभावना कर रहे हैं ।
- रसायन विद्या सिद्ध करके लोहे को स्वर्ण बनाने वाला भृतिहरि को जब दिगम्बर मुनि शुभचन्द्र की सङ्गति मिली तब वे भी दिगम्बर मुनि हो गए ।
- अञ्जन चोर को सोमदत्त वटुक की सङ्गति से आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हुई तथा बाद में जिनदत्त सेठ की सङ्गति से चारण ऋद्धिधारी मुनिराज की सङ्गति प्राप्त हुई और उनकी सङ्गति से मुनि बनकर मोक्ष प्राप्त किया ।
7. गुरुदेव आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने सत्सङ्गति के बारे में मूकमाटी में क्या लिखा है ?
सन्त समागम की यही तो सार्थकता है
संसार का अन्त दिखने लगता है,
समागम करने वाला भले ही
तुरन्त सन्त संयत
बने या न बने
इसमें कोई नियम नहीं है,
किन्तु वह
सन्तोषी अवश्य बनता है ।
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तप के अभाव में हानि
इन्द्रियों में लम्पटी और शक्ति हीन जो मनुष्य तपश्चरण नहीं करते हैं उन्हें अनेक लंघन (उपवास) कराने वाले बहुत से कठिन रोग आकर प्राप्त होते हैं । उन इन्द्रियों से उत्पन्न हुए महापाप के फल से उन लम्पटियों का जन्म नरकादि दुर्गतियों में होता है, जहाँ कि तीव्र महादु:ख और सैकड़ों महाक्लेश हर समय प्राप्त होते रहते हैं । (मू.प्र., 2119-20)