साधक को दूसरे के दोष देखना या उसका कहना अथवा विचार करना बुरे (पाप) कर्म के बन्ध का कारण है तथा अपने दोषों का विचार करना अच्छे (पुण्य) कर्म बन्ध का कारण है अतः इस अध्याय में परदोष दर्शन का वर्णन है जिससे हमें बचना चाहिए।
1.साधकों के लिए परदोष दर्शन और परदोष चिन्तन बहुत बड़ा पाप है । साधक में परनिन्दा तथा परदोष दर्शन जितने बाधक हैं उतना कोई नहीं। अपने में दोष होने से दूसरों में वे दोष दिखाई देते हैं। साधक को दूसरों में कमी दिखाई दे तो समझना चाहिए कि वह साधक नहीं है। साधक को चाहिए कि न वह किसी को बुरा समझे, न किसी की बुराई करे। दूसरों में बुराई देखने से अपने में बुराई आती है। मूल में बुरा कोई हैं ही नहीं । साधक को तो अपने दोष दर्शन से ही अवकाश नहीं मिलना चाहिए। क्योंकि कहा है-
बुरा जो देखन में चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझ सा बुरा न कोय ।।
2. दूसरे के दोषों को यदि कोई सुनें, देखें मनन करे, तो दूषित मन से कान, वाणी, नेत्र और मन सभी दूषित हो जाते हैं । उन दोषों के संस्कार चित्त पर अंकित हो जाते हैं। जो भविष्य में उससे वैसे ही पाप कराते हैं ।
3. दूसरों की निन्दा करने सुनने से उनकी आत्मा को दुःख होता है । उसका पाप अपने को लगता है ।
4. दूसरें का दोष देखने से उसके प्रति घृणा बुद्धि हो जाती है। यह भी पाप है जो अन्तःकरण को विशेष दूषित करता है ।
5. दूसरे के दोष देखने से अपने में अच्छेपन का अभिमान बढ़ता है यह नीच गोत्र के बन्ध का कारण है ।
6. पापी के पाप की चर्चा करने से भी उसका समर्थन होता है, अत: यह भी पाप बन्ध का कारण है ।
7. यदि कोई व्यक्ति दूसरे के दोष देखता है तो उसे दोष देखने की आदत पड़ जाती है । दृष्टि भी दोष देखने वाली हो जाती है। बिना किए हुए भी दोष दिखाई पड़ने लगते हैं। क्योंकि दोष का चश्मा चढ़ जाता है। दोष देखने का स्वभाव हो जाता है । गुण में भी दोष दिखाई देने लगते हैं ।
बार-बार दूसरों के दोष देखने से अपने अन्दर के जो पुराने दोष हैं, वे तरुण बलवान् और पुष्ट हो जाते है । और नये-नये दोषों को बुलाकर अपनी शक्ति बढ़ाते हैं ।
8. संसार में दोषी लोग ही दूसरे के दोषों को ढूँढ़ा करते हैं क्योंकि उन्हें अपने दोषों को ढँकने के लिए दूसरे के दोषों की आड़ की आवश्यकता होती है ।
9. किसी के दोषों का बखान करने से उसके दोष और भी दृढ़ होते हैं।
10. यह नियम है कि जिससे राग होता है उसके दोष भी गुण के रूप में दिखाई देते हैं। जिसके प्रतिद्वेष होता है उसके गुण में भी दोष दिखता है ।
दोष दर्शन की आदत कैसे समाप्त करें?
- सबमें भगवान् बनने की क्षमता है, ऐसा भगवद्भाव बनाने से किसी का दोष दर्शन, निन्दा, निरादर, तिरस्कार नहीं हो सकेगा। सभी प्राणियों में प्रेमभाव हो जाएगा और भगवान् में भी भक्ति होगी ।
- साधक को केवल अपने कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए, दूसरे अपने कर्त्तव्य का पालन करते हैं या नहीं उधर दृष्टि नहीं डालनी चाहिए । अतः साधक को चाहिए कि वह अपने लक्ष्य की ओर दृष्टि रखें । दूसरे क्या करते हैं उस पर ध्यान ही न दें। तब दूसरों के दोष दिखेंगे ही नहीं।
- यदि यथार्थ दोष भी देखा हो तो जिनमत के अवलम्बी को नहीं कहना चाहिए। और दूसरा कहता भी तो उसे रोकना चाहिए। फिर लोक में विद्वेष फैलाने वाले जिनशासन सम्बन्धी दोष को जो कहता है वह दुःख पाकर चिरकाल तक संसार में भटकता है। किए दोष को भी प्रयत्नपूर्वक छिपाना यह सम्यग्दर्शन रूपी रत्न का बड़ा भारी गुण है। अज्ञान अथवा मत्सर भाव से भी जो किसी के मिथ्या दोष को प्रकाशित करता है वह मनुष्य जिनमार्ग से बिलकुल बाहर है । ( प.पु., 106 / 232-235)
- पर निन्दा करना चाहो तो सोचो कौन दूध का धुला है।
- किसी की लाइन (रेखा) छोटी करना है तो लाइन मिटाकर नहीं किन्तु उसके पास अपनी बड़ी लाइन खींचकर उसे छोटी किया जा सकता है।
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- क्षयोपशम लब्धि और क्षयोपशम में क्या अन्तर है ?
सर्वघाति स्पर्धकों के अनुदय तथा देशघाति स्पर्धकों के उदय से जो गुण या अंश प्रकट होता है उसे क्षयोपशम कहते हैं। यह प्रथम से बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों तक नियम से पाया जाता है जबकि क्षयोपशम लब्धि इससे भिन्न है अर्थात् पाप कर्मों का अनुभाग जिस काल में प्रतिसमय अनन्तगुणा घटता हुआ उदय में आता है उस समय क्षयोपशम लब्धि होती है । यह प्रत्येक जीव के नहीं होती और सदा नहीं होती ।