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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 27 - संज्ञाएँ

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    Vidyasagar.Guru

    क्षुद्र प्राणी से लेकर मनुष्य और देव तक सभी संसारी जीवों में आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं के प्रति जो तृष्णा पाई जाती है। उन्हीं संज्ञाओं का वर्णन इस अध्याय में है।


    1. संज्ञा किसे कहते हैं एवं वे कितनी होती हैं ?
    जिनसे बाधित होकर जीव इस लोक में दारुण दुःख प्राप्त करते हैं और जिनका सेवन करने पर भी जीव दोनों ही भवों में दारुण दुःख को प्राप्त होते हैं, वे चार संज्ञाएँ हैं । (गो.जी., 134)


    2. आहार संज्ञा किसे कहते हैं?
    विशिष्ट अन्न आदि चार प्रकार के आहार को देखने से, उसके स्मरण, उसकी कथा का श्रवण आदि रूप उपयोग से तथा पेट से खाली होने से इन बाह्य कारणों से और असातावेदनीय की उदीरणा या तीव्र उदयरूप अन्तरङ्ग कारणों से आहार संज्ञा होती है। आहार अर्थात् विशिष्ट अन्न आदि में संज्ञा अर्थात वाञ्छा को आहार संज्ञा कहते है । (गो. जी. जी., 13)


    3. भय संज्ञा किसे कहते हैं ?
    अति भयंकर सिंह आदि या क्रूर मृगादि के देखने से, उसकी कथा सुनना, उनका स्मरण करना आदि उपयोग से और शक्ति की कमी इन बाह्य कारणों से तथा भय नामक नोकषाय के तीव्र उदय रूप से उत्पन्न हुई भागने की इच्छा भय संज्ञा कहते हैं।( गो .जी .जी .,136)


    4. मैथुन संज्ञा किसे कहते हैं ?
    कामोत्पादक गरिष्ठ व स्वादिष्ट भोजन करने से पूर्व में भोगे हुए विषयों को याद करने से, कुशील पुरुषों की संगति से, कुशील काव्य व कथादि सुनने से कुशील नाटक, सिनेमा टेलीविजन व चित्र आदि देखने के रूप में इन बाह्य कारणों से तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसक वेद में से किसी एक वेद रूप नोकषाय की उदीरणा रूप अन्तरङ्ग कारण से मैथुन संज्ञा उत्पन्न होती है । (गो.जी.जी., 137 एवं मुख्तार टीका)

     

    विशेष- स्त्रियों की राग कथा सुनना, स्त्रियों के मनोहर अङ्गों को देखना एवं अपने शरीर का संस्कार करने से भी मैथुन संज्ञा होती है।


    5. मैथुन संज्ञा का वेद में अन्तर्भाव हो जायेगा?
    नहीं। क्योंकि तीनों वेदों के उदय के सामान्य निमित्त से उत्पन्न हुई मैथुन संज्ञा और वेदों के उदय विशेष- स्वरूप वेद, इन दोनों में एकत्व नहीं बन सकता है। (ध.पु.,2/415)


    6. परिग्रह संज्ञा किसे कहते हैं ?
    बाह्य परिग्रह धन धान्य आदि उपकरणों के देखने से, उसकी कथा सुनने से, परिग्रह आदि के उपार्जन करने की आसक्ति के सम्बन्ध से इन बाह्य कारणों से और लोभ कषाय की उदीरणा रूप अन्तरङ्ग कारण से परिग्रह संज्ञा होती हैं । (गो.जी. जी., 138 )


    7. लोभ कषाय और परिग्रह संज्ञा में क्या अन्तर है?
    लोभ कारण है और परिग्रह कार्य है।


    8. संज्ञाओं का उदय गुणस्थानों में कहाँ तक होता हैं ?

    आहार संज्ञा- पहले से छठवें गुणास्थान तक ।
    भय संज्ञा- पहले से आठवें गुणास्थान तक ।
    मैथुन संज्ञा पहले से नवमें गुणस्थान तक ।
    परिग्रह संज्ञा- पहले से दसवें गुणस्थान तक ।


    9. यदि ये चारों ही संज्ञाएँ बाह्य पदार्थों के संसर्ग से उत्पन्न होती हैं तो अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती जीवों के संज्ञाओं का अभाव हो जाना चाहिए ?
    नहीं। क्योंकि अप्रमत्तादि गुणस्थानों में उपचार से उन संज्ञाओं का सद्भाव स्वीकार किया गया है। (ध.पु., 2/416 )


    10. छठवें गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त है एवं मुनि 2 घण्टे 24 मिनट तक आहार ले सकते हैं अतः आहार के समय गुणस्थान छठवाँ - सातवाँ होता है और आहार संज्ञा छठवें गुणस्थान तक होती है। यह कैसे सम्भव है?
    मुनि जब आहार लेने के लिए अञ्जलि खोलते हैं यह आहार संज्ञा छठवें गुणस्थान का प्रतीक है किन्तु शोधन के बिना नहीं ले सकते हैं। अत: शोधन के समय गुणस्थान सातवाँ भी होता है इस दृष्टि से आहार संज्ञा छठवें गुणस्थान तक एवं आहार क्रिया सातवें गुणस्थान में भी होती है ।


    11. क्या, नारकी जीवों में भी आहार संज्ञा होती है ?
    हाँ। नारकियों में भी आहार संज्ञा होती है वहाँ उन्हें अनाज का एक दाना भी नहीं मिलता है किन्तु वे वहाँ की दुर्गन्धित मिट्टी खाते हैं एवं अत्यन्त तीक्ष्ण खारा व गरम वैतरणी नदी का जल पीते हैं। तथा गोम्मटसार कर्मकाण्ड ग्रन्थ में नरकायु का नोकर्म अनिष्ट आहार लिखा है। (गो.क., ,78)

     

    विशेष- समयसार ग्रन्थ में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा-


    सुदपरिचिदाणुभूदा, सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा ।
    एयत्तस्सुवलंभो, णवरि ण सुलभो विहत्तस्स ॥ 04 ॥


    अर्थ- काम (स्पर्शन और रसना इन्द्रिय के विजय ) और भोग (घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रिय के विषय) की कथा तो सब ही जीवों के सुनने में भी आई है, परिचय में भी आई है तथा अनुभव में भी आई है किन्तु सबसे पृथक् होकर केवल एकाकी होने की बात सुलभ नहीं है।


    12. आहार संज्ञा छठवें गुणस्थान तक क्यों होती है ?
    क्योंकि आहार संज्ञा का अन्तरङ्ग कारण असातावेदनीय कर्म की उदीरणा छठवें गुणस्थान तक होती है । इससे आहार संज्ञा भी छठवें गुणस्थान तक होती है । ( गो . जी., 139 )


    13. संज्ञाओं का किस मार्गणा में अन्तर्भाव हो जाता है ?
    संज्ञाओं का कषाय मार्गणा में अन्तर्भाव हो जाता है 

    आहार संज्ञा माया व लोभ आहार संज्ञा राग रूप है ।
    भय संज्ञा क्रोध व मान भय संज्ञा द्वेष रूप है ।
    मैथुन संज्ञा वेद मैथुन संज्ञा स्त्री आदि वेद के तीव्रोदय रूप है।
    परिग्रह संज्ञा लोभ परिग्रह संज्ञा लोभ का कार्य है

    (ध.पु., 2/418)


    ***

     

    नमस्कार के पाँच भेद ।

    शिर के झुकाने को एक अङ्ग नमस्कार, दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करने को द्वि अङ्ग नमस्कार, एक शिर और दोनों हाथों को जोड़कर नमस्कार करने को त्रि अङ्ग नमस्कार, दोनों हाथों तथा दोनों जंघाओं को झुकाकर नमस्कार करने पर चतुरङ्ग नमस्कार, दोनों हाथों, दोनों जंघाओं एवं शिर इन पाँचों को झुकाकर नमस्कार करने को पञ्चाङ्ग नमस्कार कहते हैं। (अ.श्रा., 8/62-64)


    स्नान पाँच प्रकार के-

    1. पैर धोना, 2. घुटने तक धोना, 3. कमर तक धोना, 4. कण्ठ तक धोना, 5. शिर तक स्नान करना ।


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