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  • अध्याय 26 - नवदेवता

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    Vidyasagar.Guru

    जैनागम में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य एवं जिन चैत्यालय ये नव देवता कहलाते हैं इनके स्वरूप का वर्णन इस अध्याय में है ।


    1. नवदेवता कौन-कौन से हैं उनमें से प्रत्येक का स्वरूप क्या है, नाम सहित बताइए?

    1. अरिहन्त देवता -जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं, जिन्होंने चार घातिया कर्मों को नष्ट करके जिनके अनन्त चतुष्टय प्रकट हुए हैं, जो समवसरण आदि बाह्य विभूति सहित हैं तथा जो सौ इन्द्रों से वन्दित हैं, वे अरिहन्त देवता कहलाते हैं। इनके 46मूलगुण होते हैं ।


    2. सिद्ध देवता - जो अष्ट कर्मों से रहित हैं, जिनके सम्यक्त्वादि अष्ट गुण प्रकट हुए हैं, जो शरीर से रहित लोक के अन्त में शाश्वत् विराजमान हैं, जो कभी संसार में वापस नहीं आएंगे इनके आठ मूलगुण होते हैं । वे सिद्ध देवता कहलाते हैं ।


    3. आचार्य देवता- जो पञ्चाचार का स्वयं पालन करते है एवं दूसरे साधुओं (शिष्य एवं संघ में रहने वाले साधु ) से पालन कराते हैं, उन्हें आचार्य देवता कहते हैं । ये संघ के नायक होते हैं और शिष्यों को दीक्षा एवं प्रायश्चित्त देते हैं। इनके 36 मूल गुण होते हैं।


    4. उपाध्याय देवता- जो स्वयं चारित्र का पालन करते हुए संघ में पठन-पाठन का कार्य करते / कराते हैं जो मुनियों के अतिरिक्त श्रावकों को भी अध्ययन कराते हैं, तथा ग्यारह अङ्ग एवं चौदह पूर्व के ज्ञाता हैं अथवा वर्तमान शास्त्रों के विशेष ज्ञाता होते हैं, वे उपाध्याय देवता कहलाते हैं । इनके 25 मूलगुण होते हैं ।


    5. साधु देवता- जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रयमय मोक्षमार्ग की निरन्तर साधना करते हैं तथा समस्त आरम्भ एवं परिग्रह से रहित होते हैं। पूर्ण नग्न दिगम्बर मुद्रा के धारी होते हैं जो ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहते हैं, उन्हें साधु देवता कहते हैं। इनके 28मूलगुण होते हैं ।

     

    6. जिनधर्म देवता- जो संसार के दुःखों से निकाल कर उत्तम सुख में पहुँचा देता है, वह जिनेन्द्र देव द्वारा कहा गया जिनधर्म देवता है । यह जिनधर्म अहिंसा प्रधान एवं रत्नत्रय रूप है। जिनधर्म ही एक मात्र मुक्ति का कारण एवं समस्त दुःखों से छुड़ाने में समर्थ है ।


    7. जिनागम देवता - जिनेन्द्र देव द्वारा कथित वाणी को जिनागम देवता कहते हैं। जिससे वस्तु तत्त्व का पूर्ण रूप से ज्ञान हो वह जिनागम देवता है । यह चार अनुयोगों में विभाजित है ।


    8. जिनचैत्य देवता- साक्षात् तीर्थङ्कर केवली भगवान् के अभाव में धातु, पाषाण आदि में तद्रूप जो रचना की जाती है, उसे चैत्य देवता कहते हैं । उन अरिहन्तों के गुणों की स्थापना पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में आचार्य उपाध्याय साधु परमेष्ठियों द्वारा सूरि मन्त्र देकर करते हैं । इससे वह प्रतिमा देवता का रूप धारण कर लेती है ।
    कहा भी है-


    "जिनप्रतिमा जिनसारखी कही जिनागम माहि"


    अर्थात् जिन प्रतिमा साक्षात् जिन के समान है ऐसा जिनागम में कहा है।

     

    विशेष -

    1. जिनचैत्य को जिनबिम्ब, जिनप्रतिमा, जिनमूर्ति आदि भी कहते हैं ।
    2. आचार्य उपाध्याय व साधु परमेष्ठी की हू-ब-हू प्रतिमा नहीं बनती हैंI

     

    9. जिन चैत्यालय देवता- जिन चैत्य जहाँ विराजमान होते हैं, उन्हें जिन चैत्यालय देवता कहते हैं । जिन चैत्यालय को समवसरण, मन्दिर, देवालय, जिनगृह, देहरासर आदि भी कहते हैं ।


    विशेष -

    1. जिन चैत्य व जिन चैत्यालय मनुष्य एवं देवों द्वारा निर्मित (कृत्रिम) अथवा किसी के द्वारा नहीं बनाए गए (अकृत्रिम) दोनों प्रकार के होते हैं नन्दीश्वर द्वीप, सुमेरु पर्वत आदि में अकृत्रिम चैत्य- चैत्यालय हैं।


    2. जिन्होंने आत्म स्वरूप को प्राप्त कर लिया है ऐसे अरिहन्त और सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार करना योग्य है किन्तु आचार्यादिक तीन परमेष्ठियों ने आत्म-स्वरूप को प्राप्त नहीं किया है, इसलिए उसमें देवपना नहीं आ सकता है । अतएव उन्हें नमस्कार करना योग्य नहीं है?


    ऐसा नहीं है, क्योंकि, अपने-अपने भेदों से अनन्त भेदरूप रत्नत्रय ही देव हैं, अतएव रत्नत्रय से युक्तजीव भी देव हैं, अन्यथा (यदि रत्नत्रयअपेक्षा देवपना न माना जाए तो ) सम्पूर्ण जीवों को देवपना प्राप्त होने की आपत्ति आ जायेगी इसलिये यह सिद्ध हुआ कि आचार्यादिक भी रत्नत्रय के यथायोग्य धारक होने से देव हैं, क्योंकि अरिहन्तादिक से आचार्यादिक में रत्नत्रयके सद्भाव की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है । अर्थात् जिस तरह अरिहन्त और सिद्ध में रत्नत्रय पाया जाता है, उसी प्रकार आचार्यादिक के भी रत्नत्रय का सद्भाव पाया जाता है। इसलिए आंशिक रत्नत्रय की अपेक्षा इनमें भी देवपना बन जाता है। (ध.पु., 1/53)

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