जैन जन्म से नहीं कर्म से बनता है। सच्चे जैनी बनने के लिए अष्टमूल गुण का पालन अनिवार्य है, ये अष्ट मूलगुण कौन-कौन से हैं, उनका स्वरूप एवं उनके अतिचारों का वर्णन इसी अध्याय में है।
1. मूल गुण किसे कहते हैं ?
मुख्य नियम मूलगुण कहलाते हैं । जैसे - मूल अर्थात् जड़ के बिना वृक्ष नहीं हो सकता है, वैसे ही इन अष्ट मूलगुणों के बिना जैन श्रावक नहीं कहा जा सकता है और उत्तम साधना के लिए प्रथमतः श्रावक होना अनिवार्य है ।
2. अष्ट मूलगुणों के नाम बताइए?
- देववन्दना
- जीवों पर दया
- जल छानना
- मदिरा त्याग
- माँस त्याग
- मधु त्याग
- रात्रि भोजन त्याग
- पञ्च उदुम्बर त्याग। (ध. श्रा., 2 / 155 )
3. देववन्दना किसे कहते हैं एवं इसके अतिचार कौन-कौन से हैं ?
वीतरागी सर्वज्ञ और हितोपदेशी ऐसे जिनेन्द्र देव की प्रतिदिन अक्षत (चावल) या अष्ट द्रव्य चढ़ाकर वन्दना अर्थात् दर्शन करना देववन्दना कहलाती है । दर्शन करने का कारण हम सब को उनके समान भगवान् बनना है ।
विशेष- देव वन्दना चैत्य भक्ति एवं पञ्च महागुरु भक्ति सहित करते हैं ।
देव वन्दना के अतिचार-
- कोई भगवान् के दर्शन कर रहे हैं तो उनके सामने से निकलना ।
- पूजन, भजन, मन्त्र इतनी जोर से पढ़ना कि दूसरा जो पूजन, भजन, मन्त्र कर रहा उसे व्यवधान हो ।
4. जीवों पर दया करना किसे कहते हैं ? एवं इसके अतिचार कौन-कौन से हैं ?
संसार में जितने भी जीव हैं उनके कष्टों को दूर करना दया है। यदि उनके कष्टों को दूर नहीं कर सकते तो उन्हें अपने माध्यम से कष्ट न हों। इसे जीवों पर दया करना कहते हैं।
जीवों पर दया करने के अतिचार- जीवों पर ऐसी दया करना जिससे वे और कष्ट में आ जाए। जैसे -
- चींटी को बचाने के लिए आपने उसको कपड़े से ऐसा दूर किया कि वह पानी में पहुँच गई।
- सर्प को लाठी से ऐसा उछाला कि वह काँटों के वृक्ष पर पहुँच गया आदि ।
5. जल छानना किसे कहते हैं एवं इसके कितने अतिचार हैं?
जल में अनेक सूक्ष्म त्रस जीव होते हैं जो अपनी आँखों से भी नहीं दिखाई देते हैं, अतः जल छानकर पीना चाहिए। बिना छने जल से उन जीवों का घात होता है एवं अनेक प्रकार की बीमारियाँ होती हैं । वैज्ञानिकों के अनुसार एक बूँद जल में 36,450 त्रस जीव होते हैं एवं जैनधर्म के अनुसार असंख्यात त्रस जीव होते हैं।
पानी छानने का छन्ना दोहरा सफेद तथा इतना मोटा हो कि उसमें से सूर्य की किरणें आर-पार न हो सकें। छन्ना बर्तन के मुख से तिगुना होना चाहिए। छना जल एक मुहूर्त तक उपयोग में लेना चाहिए। छने जल लौंग, इलायची आदि डालने से उसकी मर्यादा छः घण्टे एवं उबले जल की मर्यादा 24 घण्टे होती है ।
जल छानने के अतिचार-
- 1. एक मुहूर्त के बाद जल नहीं छानना ।
- 2. मलिन वस्त्र से जल छानना ।
- 3. जिवानी पृथ्वी आदि के ऊपर डाल देना ।
- 4. जिस जलाशय का जल है जिवानी उसी जलाशय में नहीं डालना। (ध. श्रा.,,2/157)
6. मदिरा त्याग किसे कहते है एवं इसके अतिचार बताइए?
शराब एक मादक पदार्थ है, उसके पीने का त्याग करना मदिरा त्याग है। शराब अंगूर, सेवफल, महुआ, गुड़, जौ आदि को सड़ा सड़ाकर बनाई जाती है। सड़ने से लाखों जीवों की उत्पत्ति होती है और वे मर भी जाते हैं । इसके पीने से व्यक्ति का विवेक समाप्त हो जाता है। वह अपनी गृहमन्त्री (पत्नी) को पीटता, बच्चों को भी मारता और घर के सामान की भी तोड़फोड़ करता है। शराबी को कुछ भी होश नहीं रहता वह पीने के बाद नाली में जाकर भी सो जाता है । अतः इसका त्याग करना चाहिए ।
विशेष -
- वीयर आदि भी शराब है ।
- मदिरा त्याग के अतिचार सप्त व्यसन अध्याय में दिए हैं ।
7. माँस त्याग किसे कहते हैं एवं इसके अतिचार कौन-कौन से हैं ?
प्राणियों के घात के बिना माँस की प्राप्ति नहीं होती है । माँस जीवित प्राणियों का हो या मरे प्राणियों का हो तथा कच्चा हो या पक्का हो उसमें प्रतिसमय अनन्त निगोदिया तथा असंख्यात त्रस जीवों की उत्पत्ति होती है, अत: माँस सेवन करने वाला असंख्यात त्रस जीवों का घात करता है तथा वह अनेक बीमारियों से ग्रस्त हो जाता है अतः माँस सेवन नहीं करना चाहिए ।
केक, नूडल, बर्गर, चीज, बाजार के पैक आइस्क्रीम, भूरे रंग वाली खाद्य वस्तुएँ नहीं खानी चाहिए। तथा हरे निशान वाली वस्तुएँ पूर्णत: शाकाहारी हैं, ऐसी जानकारी होने पर ही सेवन करना चाहिए ।
विशेष- माँस त्याग के अतिचारों का वर्णन सप्त व्यसन अध्याय में दिए हैं ।
8. रात्रि भोजन त्याग किसे कहते हैं एवं इसके कितने अतिचार हैं ?
सूर्य अस्त होते ही अनेक जीव उत्पन्न होने लगते हैं यदि रात्रि में भोजन करते हैं तो उन जीवों का घात होजाता है, जिससे हमारा अहिंसा धर्म समाप्त हो जाता है एवं अनेक प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं तथा पाचन तन्त्र भी खराब हो जाता हैI
रात्रि भोजन त्याग के अतिचार-
- दिन के प्रथम और अन्तिम घड़ी में भोजन करना ।
- रात्रि में चारों प्रकार के आहारों का त्याग नहीं करना ।
- दिन के समय अन्धकार में बना भोजन करना ।
- रात्रि का बना भोजन दिन में करना ।
- रात्रि भोजन का त्याग करके समय पर भोजन न मिलने से मन में सोचना कि मैंने क्यों रात्रि भोजन का त्याग कर दिया ।
- रात्रि में पीसा, कूटा, छना हुआ पदार्थ खाना ।
विशेष - सागार धर्मामृत में दिन के प्रथम मुहूर्त एवं अन्तिम मुहूर्त में भोजन करना अतिचार कहा है । यह व्रती श्रावक के लिए होना चाहिये सामान्य श्रावक के लिए एक घड़ी (24) मिनट होना चाहिए।
9. पञ्च उदुम्बर फलों का त्याग किसे कहते हैं एवं इसके कितने अतिचार हैं ?
बड़, पीपल, ऊमर (गूलर), कठूमर (अंजीर), पाकर इन पाँच उदुम्बर फलों का त्याग भी कर देना चाहिए। क्योंकि यह भी अनेक सूक्ष्म जन्तुओं से भरे रहते हैं । इसलिए इनके सेवन करने से नरकादिक के अनेक दु:ख प्राप्त होते हैं । (प्र.श्रा, 12/23,26)
पञ्च उदुम्बर फलों के त्याग के अतिचार-
जिन फलों के बारे में आपको जानकारी नहीं ऐसे अजान फलों को तथा दोनों फलक किए बिना सेम की फली आदि को न खावे। (सा.ध., 3/14)
विशेष- जिनसे आप परिचित नहीं हैं ऐसे अजान व्यक्तियों के हाथ का भोजन, बिस्कुट आदि भी नहीं खाना चाहिए ।
10. मधुत्याग किसे कहते हैं एवं इसके कितने अतिचार हैं ?
मधुमक्खियाँ पुष्पादिकों का रस चूसकर अपने छत्ते में मधु (शहद) इकट्टा करती हैं। वह उनका वमन (उल्टी) है इससे अपवित्र है । मधु में छोटी-छोटी बहुत-सी मक्खियों का भी वध हो जाता है। इस अपेक्षा से मधु के भक्षण से सप्त ग्राम जलाने से भी अधिक पाप लगता है । अत: शहद नहीं खाना चाहिए। (सा.ध., 2 /11)
विशेष- कोई कहता है कि शुद्ध शहद का सेवन कर सकते हैं, तब ध्यान रखना कि शहद शुद्ध होता ही नहीं हैं ।
मधु त्याग के अतिचार - पुष्पों का रस पीना, पुष्पों का सेवन करना एवं गुलकन्द का सेवन करना। (ला.सं., 1/77)
विशेष- आठ मूलगुण श्रावकों के लिए गणधर देव ने कहें है, इनमें से एक के भी अभाव में श्रावक नहीं कहा जा सकता। (सा.ध. टिप्पण. पृ 82 )
11. अन्य आचार्यों एवं विद्वानों ने अष्ट मूलगुण कौन-कौन से माने हैं ?
आचार्य सोमदेव सूरि- तीन मकार और पाँच उदुम्बरों के सेवन के त्याग को अष्टमूलगुण कहा है। (य.ति.च., 7/255)
आचार्य समन्तभद्र - मद्य, माँस और मधु के त्याग के साथ पाँच अणुव्रतों के धारण करने को अष्ट मूलगुण कहा है। (र.श्री.,66)
पण्डित आशाधर - मद्य, माँस, मधु और पाँच क्षीरी फलों का त्याग करना अष्ट मूलगुण हैं। (सा.ध., 2/2)
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- अकाल में सिद्धान्त ग्रन्थों का स्वाध्याय करने का फल ।
अष्टमी में अध्ययन गुरु और शिष्य दोनों का वियोग करने वाला होता है । पूर्णमासी के दिन किया गया अध्ययन कलह और चतुर्दशी के दिन किया गया अध्ययन विघ्न को करता है। यदि साधुजन कृष्ण चतुर्दशी और अमावस्या के दिन करते हैं तो विद्या और उपवास विधि सब विनाशवृत्ति को प्राप्त होते हैं । मध्याह्न काल में किया गया अध्ययन जिनरूप को नष्ट करता है, दोनों सन्ध्याकाल में किया गया अध्ययन व्याधि को करता है, तथा मध्यम रात्रि में किया गया अध्ययन से अनुरक्त जन भी द्वेष को प्राप्त होते हैं । (ध.पु.,9/257-258 में उद्धृत)