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  • अध्याय 24 - सोलह कारण भावना

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    Vidyasagar.Guru

    सोलह कारण भावना भाने से तीर्थङ्कर प्रकृति का आस्रव होता है । अतः इस अध्याय में सोलह कारण भावना का वर्णन है ।


    1. भावना किसे कहते हैं ?
    आत्मा के द्वारा जो भायी जाती है, जिनका बार - बार अनुशीलन ( सतत् अभ्यास ) किया जाता है वे भावनाएँ कहलाती हैं। (त. वा., 7/3/1 )


    2. सोलह कारण भावना के नाम बताइए ?

    1. दर्शन विशुद्धि
    2. विनय सम्पन्नता
    3. शील और व्रतों का निरतिचार पालन
    4. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग
    5. अभीक्ष्ण संवेग
    6. शक्तितस्त्याग
    7. शक्तितस्तप
    8. साधुसमाधि
    9. वैयावृत्यकरण
    10. अर्हत्भक्ति
    11. आचार्य भक्ति
    12. बहुश्रुतभक्ति
    13. प्रवचन भक्ति
    14. आवश्यकापरिहाणि
    15. मार्ग प्रभावना
    16. प्रवचनवत्सलत्व


    3. सोलह कारण भावनाओं का अर्थ बताइए?
    1. दर्शनविशुद्धि भावना - जिन भगवान् अरिहन्त परमेष्ठी द्वारा कहे हुए निर्ग्रन्थ स्वरूप मोक्षमार्ग पर रुचि रखना दर्शन विशुद्धि भावना है। (स.सि., 656 )


    2. विनय सम्पन्नता भावना - सम्यग्ज्ञान आदि मोक्षमार्ग के साधनों में तथा ज्ञान के निमित्त गुरु आदि में योग्य रीति से सत्कार आदर आदि करना तथा कषाय की निवृत्ति करना विनय सम्पन्नता भावना है।(त.वा.,6/24/2)
    विशेष- "विद्या ददाति विनयं " विद्या विनय को देती है । तथा विनय मोक्ष का द्वार है। गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज कहते हैं कि विनय के द्वारा पत्थर को भी पिघलाया जा सकता है । एवं विनयशील शिष्य गुरु को भी वश में कर लेता है।


    3. शीलव्रतेष्वनतिचार भावना - अहिंसादिक व्रत हैं और इनके पालन करने के लिए क्रोधादिक का त्याग करना शील है । इन दोनों के पालन करने में निर्दोष प्रवृत्ति रखना शीलव्रतेष्वनतिचार भावना है। (स.सि, 656)
    विशेष- गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज कहते हैं कि दो प्रतिमाओं का निर्दोष पालन करने वाला भी जिनशासन की महती प्रभावना कर सकता है।


    4. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना - जीवादि पदार्थ रूप स्वतत्त्व विषयक सम्यग्ज्ञान में निरन्तर लगे रहना
    अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना है। (स.सि., 656 )
    विशेष -

    1. ज्ञान के द्वारा पाषाण में से स्वर्ण को, खान में से हीरा को, दूध में से घी को, तिल में से तेल को पृथक् किया जाता है । उसी प्रकार अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग द्वारा कर्मों से निज आत्मा को पृथक् कर परमात्म दशा को प्राप्त किया जा सकता है।
    2. अभीक्ष्ण का अर्थ बहुत बार है । ( ध.पु., 8/91)

     

    5. अभीक्ष्ण संवेग भावना - संसार के दुःखों से निरन्तर डरते रहना अभीक्ष्ण संवेग भावना है। (स.सि., 656)
    विशेष - डरने का अर्थ हमें जो दुःख हो रहा है, वह पाप का फल है, अत: पाप से डरना चाहिए I


    6. शक्तितस्त्याग भावना - पर की प्रीति के लिए अपनी वस्तु को देना त्याग है। आहार देने से पात्र को उस दिन प्रीति होती है। अभय दान से उस भव का दुःख छूटता है, अत: पात्र को सन्तोष होता है। ज्ञान दान तो अनेक सहस्र भवों के दुःख से छुटकारा दिलाने वाला है। ये तीनों दान विधिपूर्वक दिए गए त्याग कहलाता है । यही शक्तितस्त्याग भावना है । (त. वा., 6/24/6)
    विशेष- इस भावना का अपर नाम साधुप्रासुक परित्यागता भी है - साधुओं के द्वारा विहित प्रासुक अर्थात् निरवद्यज्ञान दर्शनादिक के त्याग से तीर्थङ्कर नाम कर्म बँधता है । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, विरति और क्षायिक सम्यक्त्वादि गुणों के जो साधक हैं वे साधु कहलाते हैं। जिससे आस्रव दूर हो गए हैं उसका नाम प्रासुक है। अथवा जो निरवद्य है उसका नाम प्रासुक है। वह ज्ञान, दर्शन व चारित्रादिक ही हैं। उनके परित्याग अर्थात् विसर्जन को प्रासुकपरित्याग और इसके भाव को प्रासुक परित्यागता कहते हैं। अर्थात् दया बुद्धि से साधुओं के द्वारा किए जाने वाले ज्ञान, दर्शन व चारित्र के परित्याग या दान का नाम प्रासुक परित्यागता है। (ध.पु, 8/87)


    विशेष- यह प्रासुक परित्यागता भावना गृहस्थों के सम्भव नहीं है । अत: यह भावना महर्षियों के ही होती है । (ध.पु.,8/87)


    7. शक्तितस्तप भावना- अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर मार्गअविरोधी कायक्लेश आदि तप करना शक्तितस्तप भावना कहलाती है । (त.वा., 6/24/7)
    विशेष- तप से कर्मों की निर्जरा होकर आत्मा स्वस्थ होती है। उसी प्रकार तप से शरीर की विकृति निकलती है जिससे शरीर भी स्वस्थ होता है ।


    8. साधु समाधि भावना - जैसे भण्डार में आग लगने पर वह प्रयत्नपूर्वक शान्त की जाती है उसी तरहअनेक व्रतशीलों से समृद्ध मुनिगण के तप आदि में यदि कोई विघ्न उपस्थित हो जाए तो उसका निवारण करना साधु समाधि है । (त.वा., 6/24/8)


    9. वैयावृत्य करण भावना- गुणवान् साधुओं पर आए हुए कष्ट रोग आदि को निर्दोष विधि से दूर करना, उनकी सेवा आदि करना बहु उपकारी वैयावृत्य करण भावना है । (त. वा.,6/24/9)


    10. अर्हत् भक्ति भावना - केवल ज्ञानरूपी दिव्य नेत्र के धारी अर्हन्त के भाव विशुद्धि युक्त जो अनुराग है वह अर्हत् भक्ति है। (त.वा.,6/24/10)
    विशेष- अर्हत् परमेष्ठी को चैत्यभक्ति एवं पञ्चमहागुरु पूर्वक नमस्कार करते हैं ।


    11. आचार्य भक्ति - आचार्य में भाव विशुद्धि युक्त जो अनुराग है वह आचार्य भक्ति है ।
    विशेष- आचार्य परमेष्ठी को सिद्ध भक्ति एवं आचार्य भक्ति पूर्वक नमस्कार करते हैं । किन्तु सिद्धान्त ज्ञाता आचार्य के लिए सिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति एवं आचार्य भक्ति पूर्वक नमस्कार करते हैं ।


    12. बहुश्रुत भक्ति - उपाध्याय में भाव शुद्धि पूर्वक जो अनुराग है वह बहुश्रुत भक्ति है।
    विशेष - उपाध्याय परमेष्ठी को सिद्ध भक्ति एवं श्रुतभक्ति पूर्वक नमस्कार करते हैं ।


    13. प्रवचन भक्ति भावना - जिनवाणी में भाव शुद्धि युक्त जो अनुराग है प्रवचन भक्ति भावना है ।

    विशेष - जिनवाणी को श्रुतभक्ति पूर्वक नमस्कार करना चाहिए ।


    14. आवश्यकापरिहाणि भावना - छ: आवश्यक क्रियाओं का यथा समय करना आवश्यकापरिहाणि भावना है ।(स.सि ., 656)


    15. मार्ग प्रभावना भावना - पर समयरूपी जुगनुओं के प्रकाश को पराभूत करने वाले ज्ञान रवि की प्रभा से, इन्द्र के सिंहसन को कँपा देने वाले महोपवास आदि सम्यक्तपों से तथा भव्यजन रूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य प्रभा समान जिन पूजा के द्वारा सद्धर्म का प्रकाश करना मार्ग प्रभावना है। (त.वा.,6/24/12)
    विशेष - साधु ज्ञान, ध्यान एवं तप के माध्यम में प्रभावना करते हैं एवं श्रावक दान एवं पूजा के माध्यम से प्रभावना करते हैं ।


    16. प्रवचनवत्सलत्व- जैसे गाय के बछड़े पर स्नेह रखती है उसी प्रकार साधर्मियों पर स्नेह रखना प्रवचनवत्सलत्व भावना है । (स.सि., 656)

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