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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 22 - नवधा भक्ति

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    Vidyasagar.Guru

    दिगम्बर मुनि दिन में एक बार आहार उच्च कुलीन श्रावक के यहाँ करते हैं किन्तु वह आहार नवधा भक्तिपूर्वक लेते हैं । अतः उसी नवधा भक्ति का वर्णन इस अध्याय में है ।


    1. नवधा भक्ति के नाम बताइए ?

    1. पड़गाहन (प्रतिग्रहण) प्रदक्षिणा सहित
    2. उच्चासन
    3. पादप्रक्षालन
    4. पूजन
    5. नमस्कार
    6. मन शुद्धि
    7. वचन शुद्धि
    8. काय शुद्धि
    9. आहार जल शुद्धि 


    2. पड़गाहन आदि किसे कहते हैं बताइए ।
    1. पड़गाहन - जब मुनि अपने द्वार की ओर आते दिखाई देते हैं तब प्रमोद भाव से कहते है कि हे स्वामि ! नमोऽस्तु - नमोऽस्तु- नमोऽस्तु , अत्र - अत्र - अत्र, तिष्ठ - तिष्ठ - तिष्ठ बोलकर महाराज के रुकने पर तीन प्रदक्षिणा देकर पुनः नमोऽस्तु बोलकर कहना हे स्वामि ! मम गृह प्रवेश कीजिए। गृह प्रवेश के पश्चात् अपने दोनों पैर धोकर बोलना हे स्वामि ! भोजन शाला में प्रवेश कीजिए।
    विशेष - 1. गन्दगी पैरों के तलवों में रहती है । अत: तलवे भी अच्छी तरह से धोना चाहिए।

    2. उच्चासन- भोजन शाला में प्रवेश कराने के बाद बोलना हे स्वामि ! उच्चासन ग्रहण कीजिए । ध्यान रहे पात्र को उच्चासन देने के बाद कोई भी ऊँची आसन पर न बैठे ।
    विशेष -

    1. कुछ महिलाएँ जिनके कमर, घुटने का दर्द रहता है वे ऊँची आसन पर बैठ जाती हैं जो कि अनुचित है ।
    2. प्रदक्षिणा लगाते समय मुनिराज की परछाईं पर पैर नहीं लगे।

     

    3. पाद प्रक्षालन- उच्चासन पर विराजमान होने के बाद मुनिराज के एक थाली में प्रासुक जल से पैर धोना और वह चरणोदक अपने मस्तक पर लगाना चाहिए ।
    विशेष- चरणोदक की थाली में श्रावकों को अपने हाथ नहीं धोना चाहिए ।


    4. पूजन - पाद प्रक्षालन के बाद जल, चन्दन आदि अष्ट द्रव्य से मुनिराज की पूजन करना चाहिए ।

    विशेष - 1. ध्यान रहे पूजन करते समय पूजन सामग्री जमीन पर न गिरे । तथा चन्दन के स्थान पर हल्दी का प्रयोग नहीं करना चाहिए।


    5. नमस्कार - पूजन के पश्चात् पञ्चाङ्ग नमस्कार करना तथा स्वयं के हाथ धोकर आहार की सामग्री को थोड़ा-थोड़ा एक थाली में दिखाना चाहिए। तथा जो सामग्री अलग करवाएँ उसे थाली में से अलग कर देना चाहिए। इसके बाद क्रमश:-


    6. मन शुद्धि - आर्त्त व रौद्र ध्यान रहित मन की अवस्था को मन शुद्धि कहते हैं ।
    विशेष- ये महाराज मेरे यहाँ बहुत दिनों में आए हैं । उनके यहाँ जल्दी आहार हो गए ऐसा विचार करना मन शुद्धि नहीं है ।


    7. वचन शुद्धि - कठोर, कर्कश आदि वचन नहीं बोलना, वचन शुद्धि है।
    विशेष - महाराज आप हमारे यहाँ बहुत दिनों बाद आहार लेने आए, उनके यहाँ तो पहले दिन ही दिन आहार हो गए ऐसा कहना भी वचन शुद्धि नहीं है। दूसरे दाताओं से कहना तुम्हीं - तुम्हीं दे रहे हो मुझे भी देने दो आदि शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।


    8. काय शुद्धि - शरीर में फोड़ा फुंसी न हो, गन्दगी न लगी हो, शरीर से रक्त न बह रहा हो, खाँसी, जुकाम (सर्दी), ज्वर (बुखार) एवं कोई बीमारी न हो तथा वस्त्र भी शुद्ध हो एवं जिन वस्त्रों को पहनकर मल मूत्र त्याग किया हो वे वस्त्र भी न हो ।
    विशेष - हथकरघा के वस्त्र सर्वोत्तम हैं, वस्त्र फटे नहीं होना चाहिए सिर भी वस्त्र से ढँका होना चाहिए। नेलपॉलिश न लगा हो।


    9. आहार जल शुद्धि - शुद्ध प्रासुक, मर्यादा वाला एवं दिन में बनाया हुआ स्वयं का आहार हो । सब्जी, फल अग्नि द्वारा प्रासुक या उनका रस निकाला हो तथा घी-दूध मर्यादा वाला हो, गुड़ भी गन्नों को धोकर शोधकर दिन में बनाया हो एवं जल कुएँ का हो।
    नमस्कार करने के बाद क्रमशः उपरोक्त शुद्धि बोलकर कहना हे स्वामि ! आहार ग्रहण कीजिए फिर मुनिराज के हाथ धुलाएँ तत्पश्चात् मुनि महाराज भक्तियाँ करके खड़े होकर आहार प्रारम्भ करते हैं।

    विशेष -

    1. आहार सामग्री दिखाने के बाद प्राय: श्रावक बोलते हैं मुद्रा छोड़कर, अञ्जली बाँधकर आहार ग्रहण कीजिए । ऐसा बोलना अनुचित सा लगता। यह आदेशात्मक है । अत: यह नहीं बोलकर इतना ही बोलना चाहिए कि आहार ग्रहण कीजिए ।
    2. रसोईघर में सूर्य का प्रकाश पर्याप्त होना चाहिए ।
    3. आहार भोजन शाला में कराना सर्वोत्तम है। भोजनशाला छोटी हो तो आहार वहीं बनावे जहाँ आहार करवाना है। शयनकक्ष में आहार नहीं करवाये तथा प्रथम मञ्जिल का रोड़ से लगा प्रथम कमरा जहाँ जूते-चप्पल उतारते हैं वहाँ भी आहार न कराएँ वहाँ क्षेत्र शुद्धि नहीं रहती है ।
    4. भोजन गर्म रखने के दो तरीके हैं एक तो सिगड़ी में 2-4 अङ्गारें हो उन पर एक बड़ी थाली आदि रख सकते जिसमें आहार रखा है या एक परात में गर्म पानी रखकर उसमें भोजन सामग्री रख सकते हैं । किन्तु साधु के घर आने के बाद आरम्भ के कार्य करना अनुचित हैं।

     

    3. आहार दान का फल बताइए ?
    1. आहार दान का साक्षात् फल स्वर्गादिक एवं परम्परा से मोक्षादिक है । 2. जिस प्रकार उत्तम स्त्रियाँ सौभाग्यशाली पुरुष के पास स्वयं आती हैं, उसी प्रकार आहार देने वाले पुरुष के पास सर्वप्रकार की लक्ष्मियाँ अन्वेषण करके स्वयमेव शीघ्र आती हैं। जिसप्रकार समस्त नदियाँ समुद्र को प्राप्त होती हैं, उसी प्रकार तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, अर्धचक्रवर्ती नारायण आदि की समस्त सम्पदाएँ आहार दान देने वाले पुरुष को प्राप्त होती हैं ।
    सम्यग्दृष्टि दान देता है तो वह स्वर्ग ही जाएगा किन्तु मिथ्यादृष्टि आहार दान देता तो वह भोगभूमि भी जाता है ।


    विशेष- किसी कर्मभूमि के मनुष्य ने मिथ्यात्व अवस्था में मनुष्य या तिर्यञ्च आयु का बन्ध कर लिया है और बाद में क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त किया तो वह भोगभूमि का मनुष्य या तिर्यञ्च होगा ।


    4. दाता के सात गुणों के नाम बताइए ?
    दाता के सात गुण इस प्रकार हैं - 1. भक्ति, 2. सन्तोष, 3. श्रद्धा, 4 . विज्ञान, 5. अलुब्धता, 6. सत्त्व, 7. क्षमा ।


    5. भक्ति आदि गुण किसे कहते हैं?

    1. भक्ति - जो बुद्धिमान श्रावक आलस्य रहित और शान्त है तथा धर्म धारकों की सेवा में स्वयं ही तत्पर रहता है, उसे ज्ञानी जनों ने भक्ति गुण से युक्त दाता कहा है।
    2. सन्तोष - जिसके चित्त में पहले दिए गए दान में और अभी वर्तमान में दिए जाने वाले दान में सन्तोष है और देय वस्तु में जिसकी बुद्धि लोभ रहित है ऐसे दाता को वीतरागी जिन देवों ने सन्तोष से युक्त दाता कहा है ।
    3. श्रद्धा- साधुओं को दान देने वाला सदा ही अभीष्ट फल पाता है ऐसी दृढ़ श्रद्धा जिसके हृदय में नित्य रहती है, उस श्रावक को श्रद्धा गुण से युक्त दाता कहते हैं ।
    4. विज्ञान - जो बुद्धिमान श्रावक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का भली भाँति से विचार करके साधुओं के लिए दान देता है, उसे विज्ञान गुण युक्त दाता कहते हैं ।
    5. अलुब्धता - जो योगीजनों को दान करते हुए किसी भी सांसारिक फल की कुछ भी याचना मन वचन काय से नहीं करता है, उसे अलुब्धता गुण युक्त दाता कहते हैं ।
    6. सत्त्व- जो अल्पधनी होकर भी भक्तिभार से नम्रीभूत श्रावक धनियों को भी आश्चर्यकारी दान देता है, उसे सत्त्वगुण से युक्त दाता कहते हैं।
    7. क्षमा- किसी महान् दुर्निवार कालुष्य कारण के उपस्थित होने पर भी जो किसी पर भी कुपित नहीं होता है, उसे क्षमा गुण से युक्त दाता कहते हैं । (अ.श्रा, हैं 9/3-10)

     

    6. आहार बनाते समय, देते समय कौन - कौन सी सावधानियाँ रखनी चाहिए ?

    1. किसी भी वस्तु को रात्रि में कूटना, पीसना, छानना आदि नहीं करें। कुएँ का पानी भी रात्रि में न खींचे न गर्म करें।
    2. शुद्धि के वस्त्र का अर्थ है अन्दर ( चड्डी, बनियान आदि) के वस्त्र भी बदलें ।
    3. सनमाइका तो अशुद्ध नहीं है किन्तु फेवीकोल (जोड़ने वाला आदि) अशुद्ध है | अतः चौके में सनमाइका लगे पाटा आदि का प्रयोग न करें ।
    4. कच्ची रसोई (दाल, रोटी, चावल आदि) लेकर दूसरे घर में आहार देने ना जाए।
    5. खाली हाथ आहार देने नहीं जाए। चाहे सौंफ, लौंग, अजवान, आँवला, पानी ही क्यों न ले जाए ।
    6. साधु को आहार के बाद वसतिका तक छोड़ने जाना ही चाहिए ।
    7. आहार देने के वस्त्र अलग से होना चाहिए। उन वस्त्रों का प्रयोग सांसारिक भोगों में न करें ।
    8. अपने आहार देने के लिए जो शुद्ध वस्त्र पहिने हैं, उन वस्त्रों को उतार कर दूसरा जो आहार देना चाहता है । उसे न दें। वह अब शुद्धि के वस्त्र नहीं रहे ।
    9. शुद्धि के वस्त्र पहिनकर वाहन में बैठकर आहार देने नहीं जावें यह शुद्धि नहीं मानी जाती है।
    10. रसोईघर में साधु के आने के बाद बाहर खड़े कोई घर का व्यक्ति या परिचित व्यक्ति से ऐसा नहीं बोलना कि शुद्धि के वस्त्र ऊपर रखे हैं, तुम वस्त्र बदलकर आहार दे लो। उन्हें आहार देना हैं तो पहले से शुद्धि के वस्त्र पहनकर तैयार रहे ।
    11. आहार के समय जिन पात्रों को साधुओं के नीचे रखा जाता है उन पात्रों में पीने का पानी या कोई भी खाद्य सामग्री न रखनी चाहिए न बनाने चाहिए क्योंकि उन पात्रों में साधुओं की खकार, थूक, कफ, , नाक का मैल आदि गिरता है। ऐसी स्थिति में यदि कोई साधु किसी असाध्य रोग से ग्रसित हो तब उस नीचे रखे पात्र में कफ, खकार आदि के साथ उस बीमारी के कीटाणु उस पात्र में गिरते हैं यदि उस पात्र में गिरते हैं यदि उस पात्र में आपने आहार के लिए पानी गरम किया या अन्य कोई खाद्य सामग्री बना ली और साधुओं को आहार में दी तो वे कीटाणु भोजन सामग्री के साथ अन्य साधुओं के पेट में पहुँचकर असाध्य रोग फैला सकते हैं ।


    विशेष- कुछ ऐसी भोजन सामग्री हैं उसे उस नाम से नहीं बोलना चाहिए। जैसे- पुलाव इसका अर्थ है माँस और चावल को एक साथ पकाकर बना हुआ एक व्यञ्जन । अतः इसे बोलना चाहिए नमकीन चावल । दूसरा है कोफ्ता इसका अर्थ है माँस का कबाब । अत: इसे बोलना चाहिए लौकी की पकौड़ी।


    7. तीर्थक्षेत्रों पर एवं अनेक मन्दिरों में आहार दान के लिए गुल्लक रखी रहती है एवं रसीद काटी जाती है। यहाँ दान देना चाहिए या नहीं ?
    आहार दान हथेली में होता है झोली में नहीं । तीर्थक्षेत्रों पर साधु जाते हैं तब वहाँ आस-पास के श्रावकों का कर्त्तव्य होता है कि वहाँ जाकर आहार कराए। आप नहीं जाते तो कमेटी वालों को चन्दा एकत्रित कर कर्मचारियों से आहार करवाते हैं यह दोषपूर्ण हैं।


    8. जो श्रावक आहार देते रहते हैं उन्हें दूसरे श्रावक जो किन्हीं कारणों से आहार नहीं दे पा रहे हैं वे कुछ सामग्री या रुपया देते हैं तो लेना चाहिए या नहीं ?
    बिलकुल भी नहीं लेना चाहिए। क्योंकि आहार दान अपनी वस्तु का होता है। यदि साधु को ज्ञात हो जाए कि यह आहार सामग्री दूसरे की है तो साधु नहीं लेंगे। और आप विचार कीजिए किसी श्रावक ने आपको आहार दान के उद्देश्य से दो लीटर दूध दिया और आपके यहाँ जो साधु आए उनने दूध नहीं लिया तो अब दूध का सेवन कौन करेगा? आप । किसके लिए आया? महाराज के लिए तो आपको दोष लगेगा । किन्तु क्या करें महाराज न ले तो वो लोग बुरा मान जाते हैं? उसमें ऐसा कर सकते हैं कि आपको देना हो तो मेरे लिए दीजिए मुझे जो करना होगा वह करेंगे । आपने अपने उद्देश्य से ले लिया वह वस्तु अब आपकी हो गई अब आप उसे आहार दान में दे सकते हैं। ऐसा करने से न साधु को दोष लगेगा और न आपको ।

     

    ***

     

     

    • कौन-सी गति से आने वाले जीव शीघ्र पर्याप्तियाँ पूर्ण करते हैं?

    छठी पृथ्वी का कोई एक सम्यग्दृष्टि नारकी बाईस सागर तक दुःखों से अत्यन्त पीड़ित होकर जीता रहा । वहाँ से निकल कर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । विग्रहगति में सम्यक्त्व के माहात्म्य से उदय में आए हैं पुण्य प्रकृति के पुद्गल परमाणु जिसके ऐसे उस जीव के औदारिक नाम कर्म के उदय से सुगन्धित, सुरस, सुवर्ण और शुभ स्पर्श वाले पुद्गल परमाणु बहुलता से आते हैं, क्योंकि उस समय उसके योग की बहुलता देखी जाती है। ऐसे जीव के औदारिक मिश्र काययोग का जघन्य काल होता है । (ध.पु., 4/422)
    जबकि सर्वार्थसिद्धि से आने वालों का औदारिक मिश्र का काल उत्कृष्ट है ।


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