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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 21 - श्रोता

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    Vidyasagar.Guru

    तीर्थङ्कर महावीर को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई किन्तु 66 दिन तक उनकी देशना नहीं खिरी क्योंकि मुख्य श्रोता का अभाव था। अतः श्रोता कितने प्रकार के होते हैं। उनका वर्णन इस अध्याय में दिया है।


    1. श्रोता किसे कहते हैं ?
    सामान्यत: जो सुनता है, वह श्रोता कहलाता है किन्तु यहाँ मोक्षमार्ग का प्रसंग है अतः जो आत्म कल्याण की भावना से जिनवाणी सुनता है, वह श्रोता कहलाता है।


    2. श्रोता कितने प्रकार के होते हैं?
    श्रोता चौदह प्रकार के होते हैं।


    3. चौदह प्रकार के श्रोताओं के नाम बताइए?
    मिट्टी, चलनी, बकरा, बिलाव, तोता, बगुला, पाषाण, सर्प, गाय, हँस, भैंसा, फूटा घड़ा, डाँस और जोंक ।


    4. मिट्टी आदि श्रोताओं के लक्षण बताइए?

    1. मिट्टी - जैसे मिट्टी पानी का संसर्ग रहते हुए कोमल रहती है बाद में कठोर हो जाती है, उसी प्रकार जो श्रोता शास्त्र सुनते समय कोमल परिणामी रहते हैं बाद में कठोर परिणामी हो जावें वे श्रोता मिट्टी के समान हैं।
    2. चलनी - जिस प्रकार चलनी सारभूत आटे को नीचे गिरा देती है और चोकर को (अनुपयोगी ) बचा लेती है, उसी प्रकार जो श्रोता वक्ता के उपदेश में से सारभूत तत्त्व को छोड़कर निस्सार तत्त्व को ग्रहण करते है वे चलनी के समान श्रोता है।
    3. बकरा (अज)- जो अत्यन्त कामी है अर्थात् शास्त्र के उपदेश में शृंगार का वर्णन सुनकर जिनके परिणाम शृंगार रूप हो जावें वे अज के समान श्रोता हैं ।
    4. बिलाव (बिल्ली )- जैसे अनेक उपदेश मिलने पर भी बिलाव अपनी हिंसक प्रवृत्ति नहीं छोड़ता चूहे सामने आते ही चूहे पर आक्रमण कर देता है उसी प्रकार जो श्रोता बहुत प्रकार से समझाने पर भी क्रूरता को नहीं छोड़े, अवसर आने पर क्रूर प्रवृत्ति करने लगें, वे बिलाव के समान हैं।
    5. तोता - स्वयं ज्ञान से रहित है, दूसरों के समझाने पर जैसे तोता कुछ शब्द मात्र ग्रहण कर पाते हैं वे तोता शुक के समान श्रोता हैं । विशेष- तोता अक्षर ज्ञान से रहित है किन्तु कुछ शब्द दूसरों से सीख लेता है तथा वह समय आने पर वे शब्द दूसरों को सुना देता है । उसी प्रकार कुछ श्रोता अक्षर ज्ञान से रहित होते हैं, किन्तु वे कुछ शब्द दूसरों से सीख लेते हैं एवं समय आने पर वे शब्द दूसरों को सुना देते हैं। वे तोता के समान श्रोता हैं ।
    6. बगुला- जो बगुले के समान बाहर से भद्र परिणामी मालूम होते हैं, किन्तु जिनका अन्तरङ्ग दुष्ट हो वे बगुला के समान श्रोता हैं।
    7. पाषाण- जिनके परिणाम हमेशा कठोर रहते हैं तथा जिनके हृदय में समझाए जाने पर भी जिनवाणी रूप जल का प्रवेश नहीं हो पाता वे पाषाण के समान श्रोता हैं।
    8. सर्प - जैसे- सर्प को पिलाया हुआ दूध भी विष रूप हो जाता है, वैसे ही जिनके सामने उत्तम से उत्तम उपदेश भी खराब असर करता है वे सर्प के समान श्रोता हैं ।विशेष - जैसे सर्प बदला लेने में माहिर है उसी प्रकार कुछ ऐसे श्रोता है, जो उपदेशक ने हमारे प्रतिकूल बात कह दी तो वह उनसे भी बदला लेने को तैयार रहते हैं ।
    9. गाय - जैसे- गाय सूखा भूसा खाकर सुमधुर दूध देती है वैसे ही जो थोड़ा-सा उपदेश सुनकर बहुत लाभ लिया करते हैं वे गाय के समान श्रोता हैं । विशेष- मुनि महाराज अनेक नगरों में विहार करते रहते हैं । अनेक प्रकार के अनुभव होते हैं । कहीं-कहीं श्रावकों से एक बार कहा वह पूरा-पूरा नियम पालने लगते हैं। कहीं-कहीं श्रावकों से अनेक बार कहा तब भी थोड़ा-सा नियम नहीं पालते ।
    10. हँस- जो केवल सार वस्तु को ग्रहण करते हैं वे हँस के समान श्रोता हैं।
    11. भैंसा - जैसे- भैंसा पानी को थोड़ा पीता है किन्तु समस्त पानी को गन्दला कर देता है इसी प्रकार जो श्रोता उपदेश तो अल्प ग्रहण करते हैं, परन्तु अपने कुतर्कों से समस्त सभा में क्षोभ पैदा कर देते हैं वे भैंसा के समान श्रोता हैं ।
    12. फूटा घड़ा - जिनके हृदय में कुछ भी उपदेश नहीं रुकता वे फूटे घड़े के समान श्रोता हैं ।
    13. डाँस- जो उपदेश तो बिलकुल ही ग्रहण न करें किन्तु सारी सभा को व्याकुल कर दे वे डाँस के समान श्रोता हैं I
    14. जोंक- जो गुण छोड़कर केवल अवगुणों को ही ग्रहण करें जोंक के समान श्रोता हैं । (म.पु., 1/139)

     

    5. उपरोक्त चौदह प्रकार के श्रोताओं में कौन-कौन से उत्तम, मध्यम एवं जघन्य हैं ?
    गाय और हँस के समान श्रोता उत्तम हैं, मिट्टी और तोता के समान श्रोता मध्यम हैं, शेष सभी श्रोता जघन्य हैं। (म.पु.,1/140-141)


    6. उपदेश के योग्य पात्र कौन हैं?
    जिस प्रकार संसार में सब लोग स्वर्ण को चाहते हैं, किन्तु जिस समय स्वर्ण नहीं मिलता उस समय वे स्वर्ण की उत्पत्ति के स्थानभूत स्वर्णपाषाण को ही चाहने लगते हैं । उसी प्रकार वास्तव में सम्यग्दृष्टि ही देशना के सच्चे अधिकारी हैं इसलिए जहाँ तक सम्यग्दृष्टि पुरुष मिलें वहाँ तक उनको ही उपदेश देना चाहिए। क्योंकि दर्शनमोहनीय ( मिथ्यात्व) कर्म के उदय के द्वारा जिन पुरुषों के चित्त व्याप्त हो रहे हैं ऐसे पुरुष तो उपदेश श्रवण के पात्र ही नहीं हैं । किन्तु यदि सम्यग्दृष्टि ही नहीं मिल सकें तो फिर मिथ्यादृष्टि भद्र पुरुषों को ही उपदेश देना चाहिए। (सा.ध., 1/18)


    7. भद्र एवं अभद्र किसे कहते हैं?
    जो व्यक्ति मिथ्याधर्म का पालक होता हुआ भी समीचीन धर्म से द्वेष के कारणभूत मिथ्यात्व कर्म के उदय की मन्दता से समीचीन धर्म से द्वेष नहीं करता उसे भद्र कहते हैं। तथा जो कुधर्म में स्थित होकर भी मिथ्यात्व कर्म के उदय की तीव्रता से समीचीन धर्म में द्वेष रखता है उसे अभद्र कहते हैं । इन दोनों में से भद्र तो आगामी काल में सम्यक्त्वगुण की प्राप्ति योग्य हो सकता है। इसलिए वह तो उपदेश ग्रहण करने का अधिकारी है, किन्तु अभद्र पुरुष आगामी काल में सम्यक्त्व गुण की प्राप्ति के योग्य नहीं हो सकता, इसलिए उसे उपदेश देना वृथा है । (सा.ध., 1/9)


    8. श्रावकों को कौन सा उपदेश नहीं देना चाहिए?
    सिद्धान्त ग्रन्थों का अर्थात् केवली, श्रुतकेवली कथित गणधर, प्रत्येक बुद्ध और अभिन्नदशपूर्वी साधुओं से निर्मित ग्रन्थों का अध्ययन और रहस्य अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्र का अध्ययन में देशविरति श्रावकों का अधिकार नहीं है। जब देशविरति श्रावक को नहीं तब अविरत सम्यग्दृष्टि का भी निषेध हो जाता है । (व.श्रा., 312)


    9. किसे सभी शास्त्रों का उपदेश देना चाहिए?
    जिसने स्व समय को जान लिया है। जो तप, शील और नियम से युक्त है, ऐसे पुरुष को ही पश्चात् विक्षेपणी कथा का (भी) उपदेश देना चाहिए।


    10. श्रोता व वक्ता का एक विशेष गुण बताइए?
    श्रोताओं को शास्त्र सुनने के बदले किसी सांसारिक फल की चाह नहीं करनी चाहिए, इसी प्रकार वक्ता को भी श्रोताओं से सत्कार, धन, औषधि और आश्रय (घर) आदि की इच्छा नहीं करनी चाहिये । (म.पु.,1/143)


    11. श्रोता के और भी गुण बताइए?

    1. भव्य हो ।
    2. मेरा कल्याण किसमें है ऐसा विचार करने वाला हो ।
    3. दुःख से भयभीत हो ।
    4. सुख का इच्छुक हो ।

     

    12. श्रोता के आठ गुण बताइए ?
    शुश्रूषा,श्रवण,ग्रहण,धारण, स्मृति, ऊह, अपोह और निर्णीत । (म.पु., 1/146)


    भावार्थ- सत्कथा को सुनने की इच्छा होना शुश्रूषा गुण है, सुनना श्रवण है, समझकर ग्रहण करना ग्रहण
    है, बहुत समय तक उसकी धारण रखना धारण है, पिछले समय ग्रहण किये हुये उपदेश आदि का स्मरण करना स्मरण है, तर्क द्वारा पदार्थ के स्वरूप के विचार करने की शक्ति होना ऊह है, हैय वस्तुओं को छोड़ना अपोह हैऔर युक्ति द्वारा पदार्थ का निर्णय करना निर्णीत गुण है ।

    ***

     

    • तीर्थङ्करों के आभरण कहाँ से आते हैं?

    प्रथम स्वर्ग की सुधर्मा सभा के आगे एक योजन विस्तार वाला और 36 योजन ऊँचा पादपीठ से युक्त वज्रमय मानस्तम्भ है। उस मानस्तम्भ पर एक कोस लम्बे और 4 कोस विस्तृत रत्नमय सीकों के ऊपर तीर्थङ्करों के पहनने योग्य अनेक प्रकार के आभरणों से भरे हुए पिटारे स्थित हैं । सौधर्म कल्प में स्थित मानस्तम्भ पर आधारित पिटारों के आभरण भरत क्षेत्र सम्बन्धी तीर्थङ्करों के लिए हैं। ऐशान कल्प में स्थित मानस्तम्भ पर स्थापित करण्डों के आभरण ऐरावत क्षेत्र के तीर्थङ्करों के लिए हैं। इसीप्रकार सानत्कुमार कल्प में स्थित मानस्तम्भ के पिटारों के आभरण पूर्व विदेह सम्बन्धी तीर्थङ्करों के लिए और माहेन्द्र कल्प में स्थित मानस्तम्भ पर स्थापित पिटारों के आभरण पश्चिम विदेह सम्बन्धी तीर्थङ्करों के लिए है। ये सभी पिटारे देवों द्वारा स्थापित और सम्मानित है । (त्रि.सा., 520- 522)


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