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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 23 - श्रावक के षट् आवश्यक

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    Vidyasagar.Guru

    चौरासी लाख योनियों में भटकते - भटकते पुण्ययोग से मनुष्य भव मिला है। वर्तमान भव अच्छा एवं भविष्य को अच्छा बनाने के लिए श्रावकों को अपने कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए । अतः इस अध्याय में श्रावकों के षट् आवश्यकों का वर्णन हैं ।


    1. आवश्यक किसे कहते हैं एवं उसके कितने भेद हैं ?
    अवश्य करने योग्य क्रियाएँ आवश्यक कहलाती हैं श्रावक को अपने उपयोग की रक्षा के लिए नित्य ही छ: क्रियाएँ की जाती है उन्हें ही छः (षट्) आवश्यक कहते हैं आवश्यक छः होते हैं ।


    देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः।
    दानं चेति गृहस्थानाम्, षट्कर्माणि दिने दिने ॥ (प. पं., 7)

     

    अर्थ - जिन देव की पूजा, गुरुओं की उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये छ: कर्म या कर्त्तव्य श्रावकों को प्रतिदिन करने योग्य हैं।


    1. देवपूजा - वीतरागी सर्वज्ञ एवं हितोपदेशी को सच्चा देव कहा है, ऐसे जिनेन्द्र देव के गुणों का गुणानुवाद करना देवपूजा कहलाती है । देवपूजा करने के लिए सर्वप्रथम शारीरिक शुद्धि करके, धुले हुए धोती दुपट्टा पहनना चाहिए। अभिषेक एवं द्रव्य सामग्री धोने के लिए कुएँ के जल का प्रयोग करना चाहिए।


    जिनेन्द्र देव का अभिषेक करके जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल एवं आठों द्रव्यों का समूह अर्घ्य का थाल सजाकर विनय पूर्वक णमोकार मन्त्र स्वस्ति मङ्गल पाठ बोलकर देव - शास्त्र - गुरु आदि की पूजन आह्वान स्थापन - सन्निधिकरण करते हुए क्रमशः जलादि अष्ट द्रव्यों के छन्द पढ़कर द्रव्य चढ़ाना एवं अर्घ्य चढ़ाने के बाद शान्ति पाठ एवं विसर्जन करना चाहिए इसके बिना पूजा अपूर्ण रहती है । श्रावकों के लिए पहला काम पूजा बाद में काम दूजा ।


    देवपूजा के अतिचार-

    1. पूजा करते हुए यहाँ - वहाँ देखना ।
    2. द्रव्य का क्रम भूल जाना अर्थात् जल के स्थान पर चन्दन चढ़ाना, चन्दन के स्थान पर जल चढ़ाना आदि ।
    3. पाठ भूल जाना अर्थात् आदिनाथ की पूजा करते-करते पार्श्वनाथ की पूजा पढ़ने लगना ।
    4. पूजा करते-करते किसी से बातचीत करने लगना ।
    5. पूजा करना ही भूल जाना ।


    2. गुरु उपासना - समस्त आरम्भ परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि कहलाते हैं । इनका उपदेश सुनना, वैय्यावृत्ति करना, आवश्यकतानुसार पिच्छी, कमण्डलु, शास्त्रादि उपकरण देना, नवधाभक्ति पूर्वक आहार दान देना । शौच के लिए उचित स्थान देना एवं उनके गमन- आगमन में भी साथ-साथ चलना आदि गुरु उपासना है। जैनधर्म में तीन लिङ्ग बताए हैं। प्रथम मुनि का, दूसरा आर्यिका का तथा तीसरा श्रावक (एलक- क्षुल्लक आदि ) का आर्यिका, एलक, क्षुल्लक का भी यथायोग्य सम्मान करना भी गुरु उपासना है ।


    गुरु उपासना के अतिचार-

    1. गुरु से हँसी मजाक करना ।
    2. गुरु के बराबर आसन से बैठना ।
    3. आपके घर में साधु के आहार न होने पर या समय पर न होने पर आप जो - जो कहते हैं ।
    4. उनके आने पर खड़ा न होना ।
    5. अनादर करना ।


    3. स्वाध्याय- तीर्थङ्करों द्वारा कहे गए और गणधरों द्वारा निरूपित तथा आचार्यों उपाध्यायों एवं मुनियों द्वारा लिखे गए शास्त्रों को पढ़ना - पढ़ाना, सुनना सुनना, पूछना बताना, चिन्तन-मनन करना, उन्हें कण्ठस्थ करना आदि स्वाध्याय कहलाता है । स्वाध्याय से मन पवित्र एवं कर्म निर्जरा होती है तथा स्वाध्याय को एकान्त का मित्र कहा जाता है ।


    स्वाध्याय के अतिचार-

    1. ह्रस्व - दीर्घ का सही उच्चारण नहीं करना ।
    2. बहुत जल्दी एवं बहुत तेजी से स्वाध्याय करना ।
    3. स्वाध्याय करते समय बीच में किसी से बातचीत करना ।
    4. हाथों को पैरों में एवं काँख आदि में लगाना ।
    5. मङ्गलाचरण के बिना स्वाध्याय प्रारम्भ करना एवं अन्त में भी मङ्गलाचरण (जिनवाणी) नहीं करना ।

     

    विशेष- स्वाध्याय के प्रारम्भ में कायोत्सर्ग पूर्वक श्रुत एवं आचार्य भक्ति करते हैं एवं समापन में कायोत्सर्ग पूर्वक श्रुत भक्ति करते हैं ।


    4. संयम - संयम के दो भेद हैं। प्राणी संयम एवं इन्द्रिय संयम ।
    प्राणिपीड़ा का परिहार और इन्द्रियों से विरक्ति को संयम कहते हैं । एकेन्द्रियादि जीवों की हिंसा का परिहार करना प्राणिसंयम है । (त.वा., 9/6/21) पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्श, सात स्वर और मन इस तरह पाँच इन्द्रियों एवं मन सहित 28 विषय होते है । इन विषयों से विरक्ति को इन्द्रिय संयम कहते है । ( मू. टी., 418 )


    विशेष -

    1. श्रावकों की दृष्टि से संकल्प पूर्वक त्रस जीवों का घात नहीं करना एवं निष्प्रयोजन स्थावर हिंसा नहीं करना प्राणिसंयम है ।
    2. गाड़ी में जैसे ब्रेक का महत्व है वैसे ही जीवन में संयम का महत्व है ।


    संयम के अतिचार-
    1. चींटी आदि को बचाने के लिए ऐसा अलग करना जिससे वह वह पानी में पहुँच जाए।
    2. बिना शोधे जमीन पर वस्तु रख देना ।
    3. चलते -चलते मोबाइल करना ।
    4. खड़े - खड़े थूकना ।
    5. खड़े-खड़े लघुशंका करना ।


    6. तप- कर्म निर्जरा के लिए अपनी इच्छाओं को रोकना तप कहलाता है । तप बारह प्रकार का होता है जिनमें छ: अन्तरङ्ग तप तथा छ: बहिरङ्ग तप । इन तपों को अपनी शक्ति न छिपाकर अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वों में उपवास करना, रसों का त्याग करना, कोई नियम लेकर भोजन करना, दिन में एक-दो घण्टे तक चारों प्रकार के आहार का त्याग करना भी तप है ।


    तप के अतिचार-

    1. तप के बदले में सांसारिक भोगों की आकांक्षा करना ।
    2. तप के कारण शक्ति क्षीण होने से आवश्यक क्रियाओं को भूल जाना ।
    3. तप के कारण भूख प्यास से पीड़ित होने से आवश्यक क्रियाओं में उत्साह न होना ।
    4. वृद्धावस्था में शक्ति न होने से विचार करना मैंने व्यर्थ तप ले लिया ।
    5. तप करके अहंकार करना ।


    6. दान- अपना व दूसरे पर उपकार करने के लिए अपनी वस्तु का देना (त्याग करना) दान कहलाता है । स्वयं अपना और दूसरे का उपकार करना अनुग्रह है । दान देने से पुण्य का संचय होता है यह अपना उपकार है तथा जिन्हें दान दिया जाता है उनके सम्यग्ज्ञान आदि की वृद्धि होती यह पर का उपकार है। (स.सि.,726)


    दान के चार भेद हैं- 1. आहार दान, 2. औषधि दान, 3. उपकरण दान / ज्ञान दान, 4. आवास दान / अभयदान।


    1. आहार दान- मुनि, आर्यिका श्रावक और श्राविकाओं को यथायोग्य भक्तिपूर्वक शुद्ध व प्रासुक आहार देना । आहार दान कहलाता है ।


    आहार दान का फल-

    1. गृह से रहित अतिथिजनों को पूजा - सत्कार के साथ दिया गया दान गृहस्थ के गृह कार्यों से संचित पापकर्म को दूर कर देता है । जैसे कि जल रक्त को अच्छी तरह धो डालता है । (र.श्रा., 114 )
    2. तुम्हारे पास धन कम है तो दान दो जिससे तुम धन-धान्य से परिपूर्ण हो जाओगे। अकृत पुण्य ने आहार दान की अनुमोदना की तो वह अगले भव में धन्यकुमार सेठ हुआ।
    3. सम्यग्दृष्टि आहार दान देता तो स्वर्ग ही जाएगा मिथ्यादृष्टि आहार दान देता तो वह स्वर्ग भी एवं भोगभूमि भी जा सकता है तथा यदि मिथ्यात्व अवस्था में तिर्यञ्च आयु या मनुष्य आयु का बन्ध किया और बाद में क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त किया तो वह भोगभूमि का तिर्यञ्च या मनुष्य होगा ।
    4. आहार देने वाले दाता के घर में पञ्चाश्चर्य होते हैं ।
    5. जैसे उत्तम स्त्रियाँ सौभाग्यशाली पुरुष के पास स्वयं आती हैं, उसी प्रकार आहार दान देने वाले धन्य पुरुष के पास सर्वप्रकार की लक्ष्मियाँ अन्वेषण करके स्वयमेव शीघ्र आती हैं । जैसे समस्त नदियाँ समुद्र को प्राप्त होती हैं, उसी प्रकार तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती और अर्धचक्री नारायण आदि की समस्त सम्पदाएँ आहार देने वाले पुरुष को प्राप्त होती हैं । ( अ . श्रा.,11/18-19)


    2. औषधि दान - मुनि, आर्यिका श्रावक एवं श्राविकाओं के अस्वस्थ होने पर उनके लिए शुद्ध एवं प्रासुक औषधि देना तथा उनकी सेवा करना औषधि दान है ।


    औषधि दान का फल-

    1. जो पुरुष औषधि दाता पुरुष के पुण्य फल को इस संसार में वचनों से कहना चाहता है, मानों वह समुद्र के जल को चुल्लुओं से मापना चाहता है । जो पुरुष औषधि देता है वह वात, पित्त और कफ से उत्पन्न होने वाले रोगों से पीड़ित नहीं होता है, जैसे कि जल में स्थित पुरुष दावानल से पीड़ित नहीं होता है, जो पुरुष औषधि दान देता है, वह कान्ति का निधान, कीर्तियों का कुल मन्दिर और सौन्दर्य का सागर होता है। (अ.श्रा., 11/33-38)
    2. औषधि दान के कारण ही बाहुबलि को बलवान् शरीर प्राप्त हुआ ।
    3. राजा कृष्ण को औषधि दान के कारण ही तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध हुआ ।
    4. तुम यदि बीमार हो तो दूसरे बीमार की सेवा प्रारम्भ कर दो या औषधि दान दे तो तुम्हारी बीमारी अच्छी हो जाएगी।


    3. उपकरण दान / ज्ञान दान - मुनि, आर्यिका श्रावक और श्राविकाओं को शास्त्र, पिच्छी, कमण्डलु देना, पाठशाला खुलवाना, शिक्षण शिविर लगवाना, शास्त्रों का प्रकाशन करवाना, जिनबिम्ब स्थापित करना आदि उपकरण दान या ज्ञान दान कहलाता है ।
     

    विशेष - ज्ञान दान ज्यादा प्रचलित है किन्तु आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने ज्ञान दान के स्थान पर उपकरण दान
    लिया है । यह ज्यादा उपयुक्त लगता है । क्योंकि जो पढ़ा नहीं वह क्या ज्ञान देगा और उपकरण दान देने से आशय जिससे आत्मा का उपकार हो वह उपकरण दान है।


    उपकरण दान के फल-

    1. उपकरण (शास्त्र) दान से श्रुतकेवली होता है।
    2. कौण्डेश ग्वाला ने मुनि को शास्त्र दान दिया तो वह आचार्य कुन्दकुन्द हुआ।
    3. जो भव्य पुरुष चौबीस तीर्थङ्करों की उत्तम प्रतिमाओं का निर्माण कराता है । वह स्वर्ग के राज्य व मनुष्य लोक के राज्य को पाकर अन्त में मोक्ष के साम्राज्य को प्राप्त होता है । (प्र.श्रा, 20/187)

     

    4. अभय दान /आवास दान- दयालु श्रावकों के द्वारा सभी प्राणियों के भय को दूर कर और उन्हें निर्भय बनाकर जो उनकी रक्षा की जाती है, उसे अभयदान कहते हैं । (पं.वि., 7/11)

     

    विशेष- आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने अभयदान के स्थान पर आवास दान लिया है । अत: मुनि, आर्यिका, श्रावक श्राविकाओं के रहने के लिए उचित आवास (वसतिका) देना आवास दान कहलाता है ।


    अभयदान/ आवासदान के फल-

    1. मृगसेन धीवर ने एक मछली को 5 बार जीवन दान दिया तो उसे अगले भव में 5 बार जीवनदान मिला।
    2. यमपाल चाण्डाल ने मात्र चतुर्दशी के दिन अभय दान दिया तो उसने स्वर्गीय सम्पदा को प्राप्त किया।
    3. सूकर मुनि रक्षा के उद्देश्य से सिंह से युद्ध कर मरण को प्राप्त हो सौधर्म स्वर्ग में महाऋद्धियों को धारण करने वाला देव हुआ ।
    4. साधुओं की निवास के योग्य वसतिका के दान से मनुष्य नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित, अति उन्नत, अनेक मंजिलवाला और चन्द्र की किरणों से भी उज्जवल प्रासाद को प्राप्त करता है । (अ.श्रा., 11/51)

     

    दान के अतिचार-

    1. सचित्त कमल के पत्ते आदि पर रखा आहार देना ।
    2. सचित्त पत्ते आदि से ढका आहार देना ।
    3. स्वयं न देकर दूसरों से दिलवाना अथवा दूसरे की वस्तु का दान देना ।
    4. दान करते हुए भी आदर का न होना या दूसरे दाता के गुणों को सहन नहीं करना ।
    5. आहार के काल का उल्लंघन कर देना । ( स.सि., 723)


    विशेष- उपरोक्त अतिचार तो आहार दान के हैं इसके अलावा और दानों के सम्भव है जो निम्नाङ्कित हैं ।

    1. औषधि यथा समय यथा पथ्य के साथ नहीं देना ।
    2. अच्छे उपकरण होने के बाद भी हल्के उपकरण भेंट करना ।
    3. अच्छी वसतिका होने पर भी हीन वसतिका देना। अच्छी वसतिका क्यों नहीं देते ? क्योंकि उसे विवाह आदि कार्यों में देंगे तो आय होगी।
    4. दान चार प्रकार के होते हैं किन्तु सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में आहार दान, अभय दान, और ज्ञान दान लिए हैं क्यों ? आहार ही औषधि है इस अपेक्षा से औषधि दान आहार दान में ही गर्भित हो जाता है ।


    3. किन ग्रन्थों में श्रावक का धर्म (आवश्यक) चार प्रकार का बताया है ?
    दान, पूजा, शील और उपवास । (अ.श्रा. 9/1, सा.ध., 7/51, ज.ध.पु., 1)


    4. किन ग्रन्थों में श्रावक का धर्म कर्त्तव्य (आवश्यक) दो प्रकार का बताया है ?
    दान और पूजा (र.सा., 11 ) ।


    5. दान का फल बताइए ?
    जिस प्रकार उत्तम भूमि में उचित समय में डाला हुआ छोटा-सा वट का बीज संसारी जीवों के बहुत भारी छाया के साथ- साथ बहुत से इष्ट फल को फलता है । उसी प्रकार उचित समय में सत्पात्र के लिए दिया हुआ थोड़ा-सा भी दान संसारी प्राणियों के लिए अभिलषित सुन्दर रूप तथा भोगोपभोग आदि अनेक प्रकार के फलों को प्रदान करता है । (र.श्रा, 116)


    विशेष- दान कर्त्तव्य समझकर करना चाहिए फल की अपेक्षा रखकर नहीं ।


    6. अपेक्षा रखकर दान देना किसके समान है ?
    किसी अपेक्षा रखकर दान देना निम्नप्रकार से है । जैसे कोई-

    1. भस्म के लिए - रत्न को जलाना ।
    2. धागा के लिए - मोतियों की माला तोड़ना ।
    3. कोदो की खेती के लिए - चन्दन की बाड़ लगाना ।
    4. छाछ के लिए - रत्नों को बेचना ।


    जैसे - ये चारों कार्य मूर्खता पूर्ण हैं उसी प्रकार दान के बदले कुछ चाहना भी मूर्खता पूर्ण है ।

     

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