तीर्थंकरों को केवल ज्ञान होते ही उनके सातिशय पुण्य से समवसरण की रचना होती है। ऐसे समवसरण की विशेषताओं का वर्णन इस अध्याय में है।
1. समवसरण क्या है ?
तीर्थंकरों के धर्मोपदेश देने की सभा का नाम समवसरण है।
2. समवसरण की विशेषताएँ बताइए?
- तीर्थंकरों को केवल ज्ञान उत्पन्न होने के बाद सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर विशेष रत्न एवं मणियों से समवसरण की रचना करता है।
- यह समवसरण भूतल से 5000 धनुष ऊपर आकाश के अधर में बारह योजन विस्तृत एक गोलाकार इन्द्र नीलमणि की शिला होती है। इस शिला पर समवसरण की रचना बनाई जाती है। (1धनुष = 4 हाथ अर्थात् 6 फीट) अत: यह समवसरण 30,000 फीट ऊपर रहता है। (ति.प.4/724-725)
- चारों दिशाओं में 20000-20000 सीढ़ियाँ होती हैं, इन सीढ़ियों से बिना परिश्रम के चढ़ जाते हैं। जैसे—आज लिफ्ट से ऊपर चढ़ जाते हैं एवं एसकेलेटर में मात्र खड़े हो जाते हैं और सीढ़ियाँ चलती रहती हैं।
- प्रत्येक दिशा में सीढ़ियों से लगा एक मार्ग होता है, जो समवसरण के केन्द्र में स्थित गंधकुटी के प्रथम पीठ तक जाता है।
- समवसरण में आठ भूमियाँ होती हैं- 1. चैत्य प्रासाद भूमि, 2. जल खातिका भूमि, 3. लतावन भूमि, 4. उपवन भूमि, 5. ध्वज भूमि, 6. कल्पवृक्ष भूमि, 7. भवन भूमि, 8. श्रीमण्डप भूमि एवं इसके आगे स्फटिक मणिमय वेदी है। इस वेदी के आगे एक के ऊपर एक क्रमश: तीन पीठ होती हैं। प्रथम पीठ, द्वितीय पीठ, तृतीय पीठ के ऊपर ही गंधकुटी होती है। इस गंधकुटी में स्थित सिंहासन में रचे हुए कमल से 4 अङ्गल ऊपर तीर्थंकर अष्ट प्रातिहार्यों के साथ आकाश में विराजमान रहते हैं।
- समवसरण के बाहरी भाग में मार्ग के दोनों तरफ दो-दो नाट्यशालायें अर्थात् कुल 16 नाट्यशालाएँ होती हैं, जिनमें 32-32 देवांगनाएँ नृत्य करती रहती हैं।
- इन द्वारों के भीतर प्रविष्ट होने पर कुछ आगे चारों दिशाओं में चार मान स्तम्भ होते हैं, जिन्हें देखने से मानी व्यक्तियों का मान गलित हो जाता है।
- श्री मण्डप भूमि में स्फटिक मणिमय '16 दीवारों' से विभाजित बारह कोठे होते हैं जिनमें बारह सभाएँ होती हैं। तीर्थंकर की दाई ओर से क्रमश: 1. गणधर एवं समस्त मुनि, 2. कल्पवासी देवियाँ, 3. आर्यिकाएँ एवं श्राविकाएँ, 4. ज्योतिषी देवियाँ 5. व्यन्तर देवियाँ, 6. भवनवासी देवियाँ, 7. भवनवासी देव, 8. व्यन्तर देव, 9. ज्योतिषी देव, 10. कल्पवासी देव, 11. चक्रवर्ती एवं मनुष्य, 12. पशु-पक्षी बैठते हैं। (ति.प.4/866-872)
- योजनों विस्तार वाले समवसरण में प्रवेश करने व निकलने में मात्र अन्तर्मुहूर्त का ही समय लगता है।
- समवसरण में मात्र संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव ही आते हैं।
- समवसरण में तीन लोक के जीव आते हैं,क्योंकि अधोलोक से भवनवासी और व्यन्तर देव भी वहाँ आते हैं।
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समवसरण में तीर्थंकर के महात्म्य से आतंक, रोग, मरण, भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी नहीं लगती है एवं हमेशा बैर रखने वाले सर्प नेवला, मृग-मृगेन्द्र भी एक साथ बैठते हैं और तीर्थंकर का उपदेश सुनते हैं। गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने इससे सम्बन्धित एक दोहा लिखा है:-
पानी भरते देव हैं, वैभव होता दास।
मृग-मृगेन्द्र मिल बैठते, देख दया का वास। (सर्वोदय शतक, 29)
3. समवसरण व्रत के कितने उपवास होते हैं एवं कब से प्रारम्भ होते हैं?
एक वर्ष पर्यन्त प्रत्येक चतुर्दशी को एक उपवास करें। इस प्रकार 24 उपवास करें। यह व्रत किसी भी चतुर्दशी से प्रारम्भ कर सकते है तथा "ओं ह्रीं जगदापद्विनाशाये सकलगुड करडय श्रीसर्वज्ञाय अर्हत्परमेष्टिने नम:" इस मन्त्र का त्रिकाल जाप करें।
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