वस्तु के सम्पूर्ण अंश को ग्रहण करने वाला प्रमाण है तथा उसके एक अंश को ग्रहण करने वाला नय होता है। वस्तु अनन्त धर्मात्मक होने के कारण बड़ी जटिल है जैसे पेन लम्बा है, कड़ा है, गोल है, नीला है, सुंदर है, धातुमय है त्यादि। उसको एक साथ जाना तो जा सकता है, पर कहा नहीं जा सकता। उसका विश्लेषण क्रम पूर्वक अन्य धर्मों को गौण कर किसी एक धर्म की मुख्यता पूर्वक ही किया जा सकता है, वह नय के माध्यम से ही संभव है जैसे कि यह पेन लम्बा है। अत: सम्पूर्ण वस्तु के ज्ञान को प्रमाण एवं उसके अंश को नय कहते हैं।
प्रमाण
सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहा गया है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान, मन:पर्यय और केवलज्ञान ये पाँचों ज्ञान प्रमाण हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाण की अपेक्षा इसके दो भेद हो जाते हैं -
- प्रत्यक्ष प्रमाण - इन्द्रिय और मन की अपेक्षा से रहित और प्रकाश आदि की सहायता के बिना जो केवल आत्मा के द्वारा ही जानता है प्रत्यक्ष प्रमाण (ज्ञान) कहलाता है। केवल ज्ञान, अवधि ज्ञान एवं मन: पर्यय ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
- परोक्ष प्रमाण - आत्मा से भिन्न इन्द्रियादि एवं प्रकाशादि बाह्य निमित्तों की अपेक्षा रखने वाला ज्ञान परोक्ष ज्ञान (प्रमाण) है। मतिज्ञान व श्रुत ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं इसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहते हैं।
नय
ज्ञाता अथवा वक्ता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं। नय नौ कहे गये हैं :- १ द्रव्यार्थिक नय, २. पर्यायार्थिक नय, ३. नैगम नय, ४. संग्रह नय, ५. व्यवहार नय, ६. ऋजुसूत्र नय, ७. शब्द नय, ८. समभिरूढ़, ९. एवंभूत नय।
- द्रव्यार्थिक नय - द्रव्य ही जिसका प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिक नय है, द्रव्यार्थिक नय के दश भेद है :-
- कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय :- जैसे संसारी जीव सिद्ध समान शुद्धात्मा है।
- कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय :- जैसे कर्म जनित क्रोधादि भाव रूप आत्मा।
- उत्पाद व्यय गौण सत्ता ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय :- जैसे द्रव्य नित्य है।
- उत्पाद व्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय :- जैसे एक ही समय उत्पाद व्यय, श्रौव्यात्मक द्रव्य है।
- भेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय :- जैसे ज्ञानी जीव, सिद्ध जीव।
- भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय :- जैसे आत्मा का ज्ञान गुण, आत्मा का दर्शन गुण आदि कहना।
- स्वद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय :- जैसे स्वचतुष्य की अपेक्षा द्रव्य अस्ति रूप है।
- परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय :- जैसे परचतुष्टय यानि पर द्रव्य, पर क्षेत्र, पर काल और पर भाव की अपेक्षा द्रव्य नास्ति रूप है।
- अन्वय सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय :- सम्पूर्ण गुण, पर्यायों, स्वभावों में द्रव्य को अन्वय रूप से 'यह वही है' इस प्रकार से स्वीकारना।
- परमभाव ग्राहक द्रव्यार्थिक नय - शुद्ध अशुद्ध के उपचार से रहित द्रव्य के स्वभाव को ग्रहण करना, जैसे आत्मा ज्ञान स्वभावी है।
2. पर्यायार्थिक नय - पर्याय ही जिसका प्रयोजन है वह पर्यायार्थिक नय है। पर्यायार्थिक नय के छह भेद हैं:-
- अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय :- जैसे सुमेरु, सूर्य, चन्द्रमा, अकृत्रिम चैत्यालय आदि की पर्याय।
- सादि नित्य पर्यायार्थिक नय :- जैसे सिद्ध पर्याय, क्षायिक ज्ञान आदि पर्याय।
- सत्ता गौण उत्पाद-व्यय ग्राहक स्वभाव पर्यायार्थिक नय :- जैसे प्रति समय पर्याय विनाश होती है।
- सत्ता सापेक्ष स्वभाव नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय - जैसे एक समय में पर्याय उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक है।
- कर्मोपाधि निरपेक्ष स्वभाव नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय - जैसे संसारी जीवों की पर्याय सिद्धों की पर्याय के समान शुद्ध है।
- कर्मोपाधि सापेक्ष स्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय - जैसे संसारी जीवों का जन्म-मरण होता है अथवा नरकादि पर्याय जीव स्वरूप है।
3. नैगम नय - संकल्प जिसका प्रयोजन हो वह नैगम नय है। जैसे प्रारम्भ किया कार्य, अपूर्ण होने पर भी पूर्ण हुआ कहना भोजन बनाने की सामग्री एकत्रित करने पर 'भोजन बना रहा हूँ" ऐसा कहना।
4. संग्रह नय - जो नय अभेद रूप से सम्पूर्ण वस्तु समूह को विषय करता है संग्रह नय है। जैसे सर्व द्रव्य सत् रूप है।
5. व्यवहार नय - संग्रह नय से ग्रहण किये हुए पदार्थ को भेद रूप से ग्रहण करना 'व्यवहार नय" है। जैसे जीव, पुद्गलादि द्रव्य हैं।
6. ऋजुसूत्रनय - जो नय अतीत अनागत के विषयों को न ग्रहण कर वर्तमान काल के विषय भूत पदार्थों को ग्रहण करता है वह ऋजु सूत्र नय है। जैसे मनुष्यादि पर्यायें अपनी-अपनी आयु प्रमाण काल तक रहती है।
7. शब्द नय - अनेक पर्यायवाची शब्द एक ही अर्थ को कथन करने वाले होने से 'शब्द नय' के विषय हैं। जैसे सहस्त्रनाम स्तोत्र में कहे हजार से अधिक नाम एक तीर्थकर आदिनाथ के ही पर्यायवाची है।
8. समभिरूढ़ - एक शब्द के अनेक अर्थ होने पर भी रूढ़ अथवा प्रधान अर्थ को ही ग्रहण करने वाला समभिरूढ़ नय है। जैसे - गो शब्द के वचन आदि अनेक अर्थ पाये जाते हैं तथापि वह पशु अर्थ में रूढ़ है।
9. एवंभूतनय - जिस नय में वर्तमान क्रिया की प्रधानता होती है वह एवं भूतनय है। जैसे जिस समय शिक्षक शिक्षण कार्य कर रहा हो उसी समय उसे शिक्षक कहना 'एवंभूत नय' है।
उपनय
जो नय के समीप रहते है उन्हें उपनय कहते हैं वे उपनय तीन हैं
१. सद्भत व्यवहार उपनय २. असद्भूत व्यवहार उपनय ३. उपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय।
१. जो भेद के द्वारा वस्तु का व्यवहार करे वह 'सदभूत व्यवहार उपनय' है। इसके दो भेद हैं -
१. शुद्ध सद्भूत व्यवहार नय २. अशुद्ध सद्भूत व्यवहार नय।
- शुद्ध गुण-गुणी, पर्याय-पर्यायी आदि में भेद करने वाला शुद्ध सद्भूत व्यवहार नय है जैसे शुद्ध जीव का शुद्ध ज्ञान गुण। इसे आध्यात्म भाषा में अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय भी कहते है।
- अशुद्ध गुण-गुणी, पर्याय-पर्यायी आदि में भेद करने वाला अशुद्ध सद्भूत व्यवहार नय है। जैसे संसारी जीव गुणी एवं मतिज्ञान गुण। इसे आध्यात्म भाषा में कर्म जनित विकार सहित होने से उपचरित सद्भूत व्यवहार नय कहा जाता है।
२. जो उपचार के द्वारा वस्तु का व्यवहार करे। अर्थात अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म (स्वभाव) का अन्यत्र समारोप करे वह
'असदभूत व्यवहार उपनय' है। जैसे कर्मबन्ध की अपेक्षा जीव को मूर्त कहना आदि। असद्भूत उपनय तीन प्रकार का है -
१. स्वजाताय असद्भूत व्यवहार नय, २. विजातीय असद्भूत व्यवहार नय, ३. स्वजातायावजाताय असद्भूत व्यवहार नय।
- स्वजातीय असद्भूत व्यवहार नय :- जैसे अणु एकप्रदेशी होने पर भी बहुप्रदेशी कहना।
- विजातीय असद्भूत व्यवहार नय :- जैसे एकेन्द्रियादि जीवों के शरीर को जीव है ऐसा कहना।
- स्वाजातीय - विजातीय असद्भूत व्यवहार नय :- जैसे जीव-अजीव ज्ञेय को ज्ञान कहना।
३. उपचरित असदभूत व्यवहार उपनय - जो उपचार से भी उपचार करता है वह उपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय है। यह भी स्वजाति, विजाति एवं स्वजातीय विजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा तीन भेद वाला है।
- अपनी ही जाति के पृथक द्रव्य को अपना कहना स्वाजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहार नय है :- जैसे पुत्र, स्त्री आदि मेरे हैं।
- पृथक जाति वाले मकान धन आदि को अपना कहना:- विजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहार नय है।