जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप को न्यूनता रहित तथा अधिकता रहित, विपरीतता रहित, जैसा का तैसा, सन्देह रहित जानता है, उसे सम्यक् ज्ञान कहते हैं।
सम्यक् ज्ञान के आठ अंग होते है :-
१. कालाचार, २. विनयाचार, ३. उपधान, ४. बहुमान, ५. अनिहनव ६. अर्थ ७. शुद्धि, ८. व्यञ्जन शुद्धि एवं ९. अर्थ-व्यञ्जन (तदुभय) शुद्धि।
- कालाचार - आगम में वर्णित स्वाध्याय के काल में ही अध्ययन करना 'कालाचार' कहलाता है। जैसे सन्धिकालों में, अष्टमी - चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में, सूर्यग्रहण चन्द्रग्रहण के काल में, अतिवृष्टि के साथ उल्कापात होने के काल में सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन नहीं करना। परन्तु ऐसे समयों में भी अनुप्रेक्षात्मक स्वाध्याय कर सकते हैं।
- विनयाचार - मन-वचन-काय से शास्त्र का विनय करना, आलस्य रहित होकर ज्ञान का ग्रहण करना अभ्यास और चिन्तन करना, जिनवाणी को उच्चासन पर विराजमान करना, शास्त्र पर वेष्टन लगाना, काय शुद्धि यानि हाथ-पैर धोकर ही ग्रन्थ को स्पर्श करना आदि 'विनयाचार' है।
- उपधान - स्वाध्याय प्रारंभ करने से लेकर पूर्ण होने तक खाद्य पदार्थ, भोगोपभोग आदि सामग्री का त्याग करना, विशेष नियम उपवासादि का नियम करना 'उपधान अंग' है।
- बहुमान – कर्म निर्जरा के हेतु, आचार्यां की वाणी का पूजा सत्कारादि से पाठ करना अर्थात् मंगलाचरण पूर्वक पवित्रता से हाथ जोड़कर, मन को एकाग्र कर, बड़े आदर के साथ ग्रंथों का स्वाध्याय करना 'बहुमान' नामक अंग है।
- अनिहनव - अपने पढ़ाने वाले गुरु का तथा पढ़े हुए शास्त्र का नाम नहीं छिपाना, उसको सबके समक्ष प्रगट करना 'अनिहनव" नामक सम्यक् ज्ञान का अंग है।
- अर्थ शुद्धि - अर्थ शब्द का भाव शब्दोच्चारण के होने पर मन में जो अभिप्राय उत्पन्न होता है वह है। अत: संशय, विपर्यय, अनध्यवसायादि दोषों से रहित गणधरादि द्वारा रचित सूत्र के अर्थ का निरूपण करना 'अर्थ शुद्धि' है।
- व्यञ्जन शुद्धि - उच्च उच्चार के समय उच्च उच्चारण करना एवं हृस्व उच्चार के समय हुस्व उच्चारण करना, वर्ण, पद वाक्य को शुद्ध पढ़ना 'व्यञ्जन शुद्धि' है।
- अर्थ-व्यञ्जन (तदुभय) शुद्धि - अर्थ शुद्धि और व्यञ्जन शुद्धि दोनों का पालन करते हुए स्वाध्याय करना अर्थात् व्यञ्जन की शुद्धि और उसके वाच्य, अभिप्राय की जो शुद्धि है वह अर्थ-व्यञ्जन नामा तदुभय शुद्धि है।
- सम्यक् ज्ञान पाँच प्रकार का है :- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान मन:पर्यय ज्ञान और केवल ज्ञान।
मतिज्ञान
पाँच इन्द्रियों और मन से जो पदार्थ का ग्रहण होता है, उसे मति ज्ञान कहते है। यह मतिज्ञान अवग्रह, ईहा, आवाय और धारणा के भेद से चार प्रकार का है ।
- अवग्रह मतिज्ञान - पदार्थ और इन्द्रिय का सम्बन्ध होने पर सर्वप्रथम दर्शन होता है उसके पश्चात् जो पदार्थ का ग्रहण होता है वह अवग्रह कहलाता है। जैसे चक्षु इन्द्रिय के द्वारा 'यह शुक्ल (सफेद) रूप है' ऐसा ग्रहण करना अवग्रह है।
- ईहा मतिज्ञान - अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों में विशेष धर्म, गुण आदि जानने की इच्छा होना 'ईहा' है। जैसे ग्रहण किया शुल्क रूप ध्वजा है अथवा कोई पक्षी है इत्यादि।
- आवाय मतिज्ञान - ईहा से जाने गये पदार्थ में सन्देह दूर हो कर निर्णयात्मक, यथार्थ ज्ञान होना 'आवाय' है। जैसे यह ऊपर नीचे हो रहा है आगे बढ़ रहा है अत: श्वेत पक्षी ही है।
- धारणा मतिज्ञान - आवाय से निर्णीत पदार्थ को कालान्तर में नहीं भूलने रूप 'धारणा' मतिज्ञान है।
श्रुतज्ञान
इन्द्रिय से ग्रहण किये गए विषय से विषयान्तर का ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। जैसे आँखों से नीला पेन देखा यह मतिज्ञान, यह पेन किस कम्पनी का है। यह किस काम आता है इसमें कौन सी स्याही है इत्यादि का ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है।
अवधिज्ञान
जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना, द्रव्य-क्षेत्रकालभाव की मर्यादा को लिये रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं। इस अवधिज्ञान के छह भेद हैं :-
(1) अनुगामी, (2) अननुगामी, (3) वर्धमान (4) हीयमान, (5) अवस्थित तथा (6) अनवस्थित।
जी अवधिज्ञान अपने स्वामी (जीव) के साथ क्षेत्र से क्षेत्रान्तर, भव से भवान्तर जावे, उसे 'अनुगामी अवधिज्ञान' कहते हैं। जो अपने स्वामी के साथ न जावे, उसी क्षेत्र में ही छूट जावे उसे 'अननुगामी अवधिज्ञान' कहते हैं। जो शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह अपने अन्तिम स्थान तक बढ़ता जाय उसे 'वर्धमान अवधिज्ञान' कहते हैं। जो कृष्ण पक्ष के चन्द्रमा की तरह अपने अन्तिम स्थान तक घटता जाय उसे 'हीयमान अवधिज्ञान' कहते हैं। जो सूर्यमण्डल के समान न घटे, न बढ़े, उसे 'अवस्थित अवधिज्ञान' कहते हैं। जो चन्द्रमण्डल की तरह कभी घटे और कभी बढ़े उसे 'अनवस्थित अवधिज्ञान' कहते हैं।
मनः पर्यय ज्ञान
जो इन्द्रियादिक बाहय निमित्तों की सहायता के बिना ही दूसरे के मन में स्थित चिन्तित, अचिन्तित अथवा अर्ध चिन्तित अर्थात भूतकाल में जिसका चिन्तन किया हो, जिसका भविष्य काल में चिन्तन किया जायेगा अथवा वर्तमान में जिसका चिन्तन किया जा रहा है। ऐसे रूपी पदार्थ को स्पष्ट जानता है उसे मन: पर्यय ज्ञान कहते हैं।
यह ज्ञान अढ़ाई द्वीप में अर्थात मनुष्यलोक में मुनियों को ही होता है।
केवल ज्ञान
जो समस्त द्रव्य और उनकी समस्त पर्यायों को वर्तमान पर्याय की तरह स्पष्ट जाने उसे केवलज्ञान कहते हैं। उपरोक्त पाँच ज्ञानों में प्रथम तीन ज्ञान मति, श्रुत और अवधिज्ञान मिथ्यादृष्टि जीवों के आश्रय से मिथ्या भी होते हैं। इन मिथ्याज्ञानों को कुमति, कुश्रुत एवं कुअवधि (विभंग) ज्ञान कहा जाता है।