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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 25अ - जीव के परिणाम–गुणस्थान परिचय

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    मोह और मन-वचन-काय की प्रवृत्ति के कारण जीव के अंतरंग परिणामों में प्रतिक्षण होने वाले उतार-चढ़ाव का नाम गुणस्थान है। उनको चौदह श्रेणियों में विभाजित किया गया है। वे १४ गुणस्थान कहलाते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं -

     

    १. मिथ्यात्व गुणस्थान २. सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान ३. सम्यकू-मिथ्यात्व अथवा मिश्र गुणस्थान ४. अविरत गुणस्थान ५. देश विरत गुणस्थान ६. प्रमत्त गुणस्थान ७. अप्रमत्त गुणस्थान ८. अपूर्व करण गुणस्थान ९. अनिवृत्ति करण गुणस्थान १०. सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान ११. उपशांत मोह गुणस्थान १२. क्षीण मोह गुणस्थान १३. सयोग केवली गुणस्थान १४. अयोग केवली गुणस्थान

     

    इन गुणस्थानों का स्वरूप निम्न प्रकार है।

    1. मिथ्यात्व गुणस्थान - दर्शन मोहनीय कर्म की मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से जीवादि सात तत्त्व, सच्चे देव-गुरु-शास्त्र के प्रति अश्रद्धान रूप परिणामों को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। धर्म के प्रति अरुचि होना, रागी-द्वेषी देव की आराधना, जीव हिंसा से युक्त धर्म में रुचि और परिग्रह में फंसे हुए को गुरु मानना, शरीर को ही आत्मा मानना इत्यादि परिणाम मिथ्यादृष्टि जीव की पहचान के बाह्य चिह्न है। इस गुणस्थान में एक जीव जघन्य से अन्तर्मुहूर्त काल एवं उत्कृष्ट से अनन्त काल तक रह सकता है।
    2. सासादन गुणस्थान - अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ में से किसी एक कषाय का उदय हाने से सम्यक्त्व परिणामों के छूटने पर और मिथ्यात्व प्रकृति के उदय न होने से मिथ्यात्व परिणामों के न होने पर मध्य के काल में जो परिणाम होते हैं उसे सासादन गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान का काल जघन्य से एक समय एवं उत्कृष्ट से छह आवली प्रमाण है।
    3. सम्यक्त्व मिथ्यात्वगुणस्थान – जात्यन्तर सर्वघाती सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से केवल सम्यक्त्व रूप या मिथ्यात्वरूप परिणाम न होकर मिले हुए दही गुड़ के समान खटमीठा रूप मिश्र परिणाम होने से सम्यक्त्व मिथ्यात्व नाम वाला मिश्र गुणस्थान होता है। एक जीव की अपेक्षा इसका जघन्य व उत्कृष्ट काल मात्र अन्तर्मुहूर्त है इस गुणस्थान में नवीन आयु का बंध नहीं होता व मरण भी नहीं होता।
    4. अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान – जहाँ मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपराम से सम्यग्दर्शन तो हो जाता है, परन्तु अप्रत्याख्यानादि चारित्र मोह की प्रकृतियों का उदय रहने से पाँच पाप के त्याग रूप परिणाम नहीं होते हैं। उसे अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान कहते हैं। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा आस्तिक्य ये सम्यग्दृष्टि की पहचान के चिह्न हैं। कोई एक जीव इस गुणस्थान में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट से ३३ सागर + एक करोड़ पूर्व तक रह सकता है।
    5. देशविरत गुणस्थान - अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अनुदय (उदय न होने से) से जहाँ जीव के हिंसा आदि पाँच पापों के एकदेश त्याग रूप परिणाम होते हैं उसे देशविरत गुणस्थान कहते है। इस गुणस्थान में त्रस हिंसा के त्याग रूप संयम एवं स्थावर हिंसा के त्याग नहीं रूप असंयम भाव होने से इसे संयमा संयम गुणस्थान भी कहते हैं। कोई एक जीव इस गुणस्थान में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त कम एक करोड़ पूर्व वर्ष तक रह सकता है।
    6. प्रमत्त विरत गुणस्थान - प्रत्याख्यानावरण कषाय के अनुदय से जहाँ पाँच पाप के पूर्ण त्याग रूप सकल संयम तो हो चुका है, किन्तु संज्वलन और नो कषाय का उदय रहने पर संयम में मल उत्पन्न करने वाला प्रमाद रूप परिणाम होता है, अतएव इस गुणस्थान को प्रमत्त विरत गुणस्थान कहते हैं। एक जीव इस गुणस्थान में कम से कम एक समय एवं उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है।
    7. अप्रमत्त विरत गुणस्थान - जब संज्वलन कषाय और नोकषाय का मन्द उदय होता है, तब सकल संयम से युक्त मुनि के प्रमाद रूप परिणामों का अभाव हो जाता है, इसलिए इसे अप्रमत्त विरत गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान का काल जघन्य से एक समय एवं उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है। इस गुणस्थान के आगे बढ़ने वाले साधक दो प्रकार के होते हैं। (१) उपशामक (२) क्षपक । उपशम श्रेणी में चढ़ने वाले साधक उपशामक कहलाते हैं, चारित्र मोहनीय का उपशम करने के लिए जो श्रेणी चढ़ी जाती है उसे उपशम श्रेणी कहते हैं, इस पर चढ़ने वाला साधक नियम से ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँचकर फिर नीचे के गुणस्थानों में गिर जाता है। उपशम का अर्थ दबाना होता है जैसे धूल कण मिश्रित जल के शांत होने पर उसके कण नीचे बैठ जाते हैं।क्षपक श्रेणी में चढ़ने वाले साधक क्षपक कहलाते हैं,जिसमें चारित्र मोह का क्षय होता है उसको क्षपक श्रेणी कहते हैं, इस श्रेणी पर चढ़ने वाला साधाक दसवे' गुणस्थान से सीधे  बारहवें गुणस्थान में  पहुंच जाता है।वह कमो  का क्षय करता हुआ केवलज्ञान उपलब्ध कर लेता है | 
    8. अपूर्वकरण गुणस्थान – जो परिणाम पहिले समय में नहीं थे ऐसे नवीन परिणाम जहाँ होते हैंउसे अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं।यहाँ सम—समयवर्ती अनेक जीवों के परिणाम समान और असमान दोनों | प्रकार के तथा भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम असमान ही होते हैं। यहाँ मोहनीय कर्म के उपशय एवं क्षय की भूमिका बनती है।
    9. अनिवृत्ति करण गुणस्थान - जहाँ समान समयवर्ती जीवों में परिणामों में भेद नहीं पाया जाता है परन्तु भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों में सर्वथा भेद ही पाया जाता है। इसे अनिवृत्ति करण गुणस्थान कहते हैं। यहाँ उपशम क्षय का कार्य प्रारंभ होता है।
    10. सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान – साम्पराय का अर्थ कषाय, जहाँ सूक्ष्मता को प्राप्त संज्वलन लोभ कषाय का ही उदय पाया जाए उसे सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान कहते हैं।
    11. उपशांत मोह गुणस्थान - सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाले, निर्मल परिणामों को उपशान्त मोह गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान का धारक जीव अन्तर्मुहूर्त की भीतर आयु क्षय अथवा (गुणस्थान के) काल क्षय के कारण नियम से नीचे के गुणस्थान में पतित होता है।
    12. क्षीण मोह गुणस्थान - मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से जहाँ आत्मा के परिणाम स्कटिक मणि के स्वच्छ पात्र में रखे हुए जल के समान निर्मल होते हैं, उसे क्षीणमोह गुणस्थान कहते हैं।
    13. सयोग केवली गुणस्थान - जहाँ घातिया कर्मों की ४६, नामकर्म की ६३ प्रकृतियों के क्षय से केवलज्ञान प्राप्त होता है तथा योग सहित प्रवृत्ति होती है, उसे सयोग केवली गुणस्थान कहते हैं।
    14. अयोग केवली गुणस्थान - जहाँ मन, वचन, काय इन तीनों योगों का सर्वथा अभाव हो जाता है, उसे अयोग केवली गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान का काल 'अ इ उ ऋ लू' इन पाँच लघु अक्षर के उच्चारण काल के बराबर है।
    • आठवें से बारहवें तक के गुणस्थान में प्रत्येक का काल अन्तर्मूहूर्त होता है। तेरहवें गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मूहूर्त एवं उत्कृष्ट काल आठ वर्ष अन्तर्मूहूर्त कम एक पूर्व कोटि वर्ष होता है।
    • संसार में कोई भी जीव गुणस्थान से रहित नहीं होता है अत: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, पेड़-पौधे, द्वि इन्द्रिय आदि विकलत्रय, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय अभव्य जीव इनको प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान होता है।
    • देशव्रती श्रावक (१ से १० प्रतिमाधारी), छुल्लक ऐलक (११ प्रतिमाधारी) एवं आर्यिका माताओों का पञ्चम संयमासंयम गुणस्थान होता है।
    • इस पंचम काल में महाव्रती (मुनिराज) का छटवाँ-सातवा गुणस्थान होता है एवं उसी भव में मोक्ष जाने वाले मुनियों को ऊपर के गुणस्थान (८ से १४ तक) भी हो सकते हैं।
    • नारकी जीवों में १ से ४ तक गुणस्थान होते हैं, तिर्यञ्च (संज्ञी पञ्चेन्द्रिय) में १ से ५ तक, मनुष्यों में १ से १४ तक तथा देवों में १ से ४ तक गुणस्थान होते है। भोगभूमिज तिर्यज्चों व मनुष्यों के १ से ४ ही गुणस्थान होते हैं।

     

    अद्वितीय रचना - सिरिभूवलय - ग्रन्थ

    आचार्य श्री कुमुदेन्दु (९ वीं सदी) द्वारा रचित सिरि भूवलय अद्भुत ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में १८ महाभाषाएं एवं ७०० लघु भाषाएं गर्भित हैं। अंक राशि से निर्मित यह ग्रन्थ अद्वितीय सिद्धान्तों पर आधारित है। विज्ञान का भी यह अभूतपूर्व ग्रन्थ है।

     

    इस ग्रन्थ में बड़ा वैचित्र्य है, इसमें २७ पंक्ति (लाइनें) और २७ स्तम्भ (कॉलम) में ७२९ खाने युक्त कई टेबल हैं। खानों में १ से ६४ तक अंकों का प्रयोग किया गया है, अंकों से ही अलग-अलग अक्षर बनते हैं। इन अक्षरों से इस ग्रन्थ के पढ़ने के कई सूत्र है, उन्हें बंध कहा जाता है। बन्धों के अलग-अलग नाम है जैसे चक्रबंध, हंसबंध, पद्म बंध, मयूर बंध आदि। बंध खोलने की विधी का जानकार ही इस ग्रन्थ का वाचन कर सकता है।

     

    इसके एक-एक अध्याय के श्लोकों को अलग-अलग रीति से पढ़ने पर अलग-अलग ग्रन्थ निकलते हैं। इसमें ऋषिमण्डल, स्वयम्भू स्तोत्र, पात्रकेशरी स्तोत्र, कल्याण कारक, हरिगीता, जयभगवद्गीता, प्राकृत भगवत् गीता, संस्कृत भगवत् गीता, कर्नाटक भगवत् गीता, गीर्वाण भगवद्गीता, जयाख्यान महाभारत आदि के अंश गर्भित होने की सूचना तो है ही साथ ही अब तक अनुपलब्ध स्वामी समन्तभद्राचार्य विरचित महत्वपूर्ण ग्रन्थ गन्ध हस्ति महाभाष्य के गर्भित होने की भी सूचना है। इसमें ऋग्वेद, जम्बूद्वीप पण्णर्त्ति, तिलोयपण्णत्ती, सूर्य प्रज्ञप्ति, समयसार्, पुष्पायुर्वेद एवं स्वर्ण बनाने की विधी आदि अनेक विषय वर्णित हैं। भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि जैसे विभिन्न भाषा भाषियों को अपनी-अपनी भाषा में सुनाई देती थी, ठीक वही सिद्धान्त इसमें अपनाया गया है। जिससे एक ही अंकचक्र को अलग-अलग तरह से पढ़ने पर अलग-अलग भाषाओं के ग्रन्थ और विषय निकलते हैं।

     

    इस ग्रन्थ का परिचय जब भारत के तात्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद जी को दिया गया तो उन्होंने इसको संसार का आठवां आश्चर्य बताया और राष्ट्रीय महत्व का कहकर इसकी पाण्डुलिपि राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित करवाई।

     

    इस सिरिभूवलय ग्रन्थ पर अनुसंधान कार्य जारी है। अनके साधु एवं संस्थान इस कार्य में लगे हुए हैं। खोज स्वरूप अनेक चौकाने वाले तथ्य प्रकाश में आएंगे।


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    रतन लाल

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    रोचक जानकारी व अध्ययन

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