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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 13अ - जैन विश्व संरचना - लोक अलोक

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    लोकाकाश का आकार

    जीवादि छह द्रव्य जहाँ पर रहते हैं, उसे लोकाकाश कहते हैं। इसका आकार दोंनो पैर फैलाकर, कमर पर हाथ रखे हुए, पंक्तिबद्ध खड़े हुए, सात पुरुषों के समान है। यह लोकाकाश सभी और से क्रमश: घनोदधि वातवलय, घन वातवलय व अंत में तनुवातवलय से घिरा है।

     

    लोकाकाश के तीन भेद - ऊध्वलोक , मध्यलोक व अधोलोक हैं। लोकाकाश के बाहर अनन्त आकाश है जिसे अलीकाकाश कहते हैं, अलोकाकाश में एक मात्र आकाश द्रव्य है। ऊध्र्वलोक मृदंग के आकार का, अधोलोक वेत्रासन के आकार का एवं मध्यलोक झालर के आकार का है।

     

    तीन लोक की लंबाई चौड़ाई - लोकाकाश के बीचों बीच एक राजू लम्बी, एक राजू चौड़ी और चौदह राजू ऊँची लोक नाड़ी हैं। लोक नाड़ी के बाहर का स्थान निष्कुट क्षेत्र कहलाता है जिसमें मात्र स्थावर जीव ही रहते हैं। ऊध्र्वलोक में स्वर्ग है जिसमें देव गण निवास करते हैं। अधोलोक में नरक हैं जिसमें नारकी रहते हैं एवं मध्यलोक में सिद्ध परमेष्ठी को छोड़कर शेष चार परमेष्ठी एवं अन्य जीव (देव, मनुष्य, तिर्यच गति के) रहते हैं।

     

    मध्यलोक के द्वीप समुद्र

    मध्यलोक के बीचों - बीच थाली के आकार का गोल जम्बूद्वीप है। जिसे घेरे हुए चूड़ी के समान गोलाकार असंख्यात समुद्र व द्वीप हैं। जम्बूद्वीप के बाद लवण समुद्र उसके बाद धातकीखण्ड, फिर कालोदधि समुद्र, फिर पुष्कर द्वीप है। इस जम्बूद्वीप, धातकीखंड व आधे पुष्कर द्वीप को मिलाने पर ढाई द्वीप हो जाते हैं। मानुषोत्तर पर्वत के द्वारा पुष्करद्वीप दो भागों में बँट जाता हैं। मनुष्य गति के जीव इस पर्वत के भीतर ही रहते है बाहर नहीं अत: मानुषोत्तर पर्वत के आगे पुष्करार्ध द्वीप को आदि करके चूड़ी के आकार वाले एक दूसरे को घेरे असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। सबसे अन्त में स्वयंभूरमण द्वीप व समुद्र है। इस द्वीप एवं समुद्र में ही उत्कृष्ट अवगाहना वाले तिर्यच्च जीव पाये जाते हैं। मध्यलोक के मध्य में नाभि सदृश अत्यन्त ऊँचा, हरे-भरे वृक्ष, उपवन, चैत्यालयों से युक्त सुमेरु पर्वत है। इस पर्वत के ऊपरी भाग में पाण्डुक वन है जिसमें पाण्डुक शिला है उस पर ही इन्द्र द्वारा तीर्थकर बालक का जन्माभिषेक किया जाता है।

    मध्यलोक के बीचों – बीच स्थित जम्बूद्वीप के क्षेत्र विभाजन का सामान्य वर्णन करते हैं :-

    इस जम्बूद्वीप का विभाजन पूर्व - पश्चिम दिशा में फैले हुए छह पर्वतों के द्वारा होता है, इनके द्वारा जम्बूद्वीप सात क्षेत्रों में विभाजित हो जाता है। छह पर्वतों के नाम क्रमश: हिमवान, महा हिमवान, निषध, नील, रक्मि और शिखरिणी पर्वत है तथा सात क्षेत्रों के नाम क्रमश: भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हिरण्यवत् और ऐरावत क्षेत्र है।

    मध्य लोक में नदियाँ

    प्रत्येक पर्वत पर क्रमश: पदम, महापदम, तिगिछ, के शरी, महापुण्डरीक व पुण्डरीक नाम वाले एक-एक तालाब हैं। इन तालाबों में से क्रमश: ३, २, २, २, २ व ३ अर्थात् कुल चौदह नदियाँ निकलती हैं। गङ्गा, रोहित, हरित, सीता, नारी, सुवर्णकूला और रक्ता ये सात नदियाँ पूर्व लवण समुद्र में मिलती हैं। सिंधु, रोहितास्या, हरिकांता, सीतोदा, नरकांता, रूप्यकूला और रतोदा ये सात नदियाँ पश्चिम लवण समुद्र में मिलती हैं।

    ढाई द्वीप में आर्य व म्लेच्छ खण्ड

    भरत क्षेत्र में बहने वाली गंगा, सिन्धु नदियों के द्वारा भरत क्षेत्र एक आर्यखण्ड एवं पाँच म्लेच्छ खण्ड ऐसे छह भागों - भागों में बँट जाता हैं। इसी प्रकार अपनी - अपनी नदियों के द्वारा ऐरावत क्षेत्र एवं विदेह क्षेत्र संबंधी बतीस नगरियों में भी एक-एक आर्यखण्ड एवं पाँच-पाँच म्लेच्छखण्ड होते हैं। अत: जम्बूद्वीप में कुल चौतीस (३४) आर्यखण्ड एवं एक सौ सत्तर (१७०) म्लेच्छखण्ड होते हैं।

    धातकीखण्ड एवं पुष्करार्ध द्वीप में दो-दो भरत क्षेत्र, दो-दो ऐरावत क्षेत्र, दो-दो विदेह क्षेत्र (कुल चौसठ - चौसठ नगरियाँ) होते हैं। अत: कुल ढाई द्वीप में एक सौ सत्तर (१७०) आर्यखण्ड एवं आठ सौ पचास (८५०) म्लेच्छखण्ड होते हैं। आर्यखण्ड में ही तीर्थकरों का जन्म होता हैं अत: सभी एक सौ सत्तर आर्यखण्डों में यदि एक साथ तीर्थकर होवे तो अधिक से अधिक एक सौ सत्तर तीर्थकर एक साथ हो सकते हैं।

    वातवलय का स्वरूप -

    जैसा छाल वृक्ष को चारों ओर से घेरे रहती है, वैसे ही घनोदधि आदि वातवलय चारों ओर से लोक को घेरे हुए हैं।सर्वप्रथम गोमूत्र के वर्ण वाला घनोदधि वातवलय है जिसमें सघन रूप से जल और वायु भरी है। उसके पश्चात् मूंग के वर्ण वाला घनवात वलय हैं जिसमें सघन वायु भरी हैं। तीसरा अंतिम तनुवात वलय अनेक वर्ण वाला है जिसमें विरल वायु का अवस्थान हैं।


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    रतन लाल

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    जैन भुगोल का परिचायक

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