वास्तव में (निश्चय से) जीव ज्ञान-दर्शन उपयोग वाला, स्पर्श-रस-गंध-वर्ण से रहित अमूर्त स्वभाव वाला है। अर्थात् जीव को हम आँखों के माध्यम से देख नहीं सकते। फिर जो मनुष्यादि देखने में आ रहे वे कौन हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर यह है कि - जीव और पुद्गल इन दो के संयोग से उत्पन्न अवस्था विशेष है। जैसे प्रकाशमान बल्व। विद्युत (करंट) और बल्व का संयोग होने पर प्रकाश उत्पन्न होता है विद्युत देखने में नहीं आती किन्तु प्रकाशमान बल्व को देखकर करंट का ज्ञान हो जाता है। उसी प्रकार क्रियावान मनुष्यादि को देखकर यह मनुष्य जीव है ऐसा कहा जाता है। शुद्ध जीव देखने में नहीं आता कर्मबंध से सहित अशुद्ध जीव देखने में आता है अथवा निश्चय से कहें, तो पुद्गल ही देखने में आता है। विद्युत के अभाव में बल्व मात्र अकार्यकारी होता है उसी प्रकार जीव/आत्मा के अभाव में यह शरीर निष्क्रिय हो जाता है। शव अथवा मुर्दा कहा जाता है।
जीव और कर्मों का संबंध स्वर्ण पाषाण की तरह अनादि काल से है। विशेष प्रक्रिया द्वारा जैसे स्वर्ण पाषाण में से सोना पृथक कर लिया जाता है किया जा सकता है। उसी प्रकार जीव और कर्मों को भी तप, ध्यान आदि की प्रक्रिया द्वारा पृथक-पृथक किया जा सकता है।
शरीर
शरीर नाम कर्म है जिसका उदय होने पर जीव को शरीर धारण करना पड़ता है। ये शरीर पाँच प्रकार के हैं
(१) औदारिक शरीर, (२) वैक्रियक शरीर, (३) आहारक शरीर, (४) तैजस शरीर, (५) कार्मण शरीर।
- जो शरीर अत्यन्त स्थूल तथा उदार हो उसे औदारिक शरीर कहते हैं।
- जो शरीर अनेक प्रकार के छोटे-बड़े हल्के-भारी आदि अनेक रूप धारण करने की क्षमता रखता है, वैक्रियक शरीर कहलाता है।
- तत्वादिक विषयक शंका होने पर, तीर्थयात्रा आदि का विकल्प होने पर, असंयम के परिवार हेतु ऋद्धिधारी मुनिराज के मस्तक से एक हाथ प्रमाण सर्वाग सुन्दर शुभ्र वर्णवाला जो पुतला निकलता है, उसे आहारक शरीर कहते हैं।
- औदारिक और वैक्रियक शरीर में कांति और प्रकाश उत्पन्न करने वाले शरीर को तैजस शरीर कहते हैं। हमारे शरीर में रक्त संचार उष्मा के कारण होता है अत: यह उष्मा ही तैजस शरीर है एवं जिस जठराग्नि के माध्यम से पेट का भोजन पचता है वह भी तैजस शरीर का कार्य है।
- आठ कर्मों के समूह रूप शरीर को कार्मण शरीर कहते हैं। छतरी के मूठ की भाँति यह सब कर्मों का आधार भूत है।
औदारिक शरीर से आगे-आगे के शरीर सूक्ष्म होते जाते हैं किन्तु उनमें प्रदेशों की संख्या बढ़ती जाती है। प्रदेशों की अपेक्षा औदारिक शरीर के प्रदेशो से असंख्यात गुणे प्रदेश वैक्रियक शरीर में, इससे असंख्यात गुणे प्रदेश आहारक शरीर में, इससे अनन्त गुणे प्रदेश तैजस शरीर में तथा इससे भी अनन्त गुणे प्रदेश कार्मण शरीर में होते हैं। प्रदेशों की संख्या अधिक होते हुए भी आगे-आगे अत्यधिक सघनता को लिए ये प्रदेश रहते हैं। अत: आगे-आगे शरीर सूक्ष्म होते जाते हैं। उदाहरण के लिए ५० ग्राम रुई अधिक स्थूलता को प्राप्त होती है जबकि ५० ग्राम ही लोहा उसकी अपेक्षा अत्यन्त सूक्ष्मता को धारण करता है।
- औदारिक शरीर से वैक्रियक शरीर सूक्ष्म होते हुए भी स्थूलता का परित्याग नहीं करते अत: औदारिक और वैक्रियक शरीर को हम नेत्रों द्वारा देख सकते हैं शेष शरीरों को नहीं।
- औदारिक, वैक्रियक और आहारक ये तीन शरीर पाँच इन्द्रियों के द्वारा पदार्थों का भोग उपभोग कर सकते हैं किन्तु कार्मण शरीर नहीं।
- एक जीव में दो को आदि लेकर चार शरीर तक हो सकते हैं। किसी के दो शरीर हों तो तैजस और कार्मण। तीन हों तो तैजस, कार्मण और औदारिक अथवा तैजस, कार्मण और वैक्रियिक। चार हों तो तैजस, कार्मण, औदारिक और वैक्रियिक शरीर अथवा तैजस, कार्मण, औदारिक और आहारक हो सकते हैं। एक साथ पाँच शरीर नहीं हो सकते क्योंकि वैक्रियिक तथा आहारक ऋद्धि एक साथ नहीं होती है।
प्राण
शरीर धारी प्राणियों में जो जीवन शक्ति है अर्थात् जिससे प्राणी जीता था, जीता है व जीवेगा उसे प्राण कहते हैं। इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास इनके उत्तर भेद करने पर दस प्राण हो जाते हैं।
५ इन्द्रिय प्राण - स्पर्शन इंन्द्रिय प्राण, रसना इंद्रिय प्राण, घ्राण इंद्रिय प्राण, चक्षु इंद्रिय प्राण और कर्ण इंद्रिय प्राण।
३ बल प्राण - मनबल प्राण, वचन बल प्राण और काय बल प्राण
१ आयु प्राण तथा १ श्वासोच्छवास प्राण।
एकेन्द्रिय आदि जीवों में प्राणों की संख्या सारणी के माध्यम से समझेंगे।
सयोग केवली अरिहन्त के वचन बल, आयु, श्वासोच्छवास और काय बल ये चार प्राण होते हैं एवं अयोग केवली के
मात्र एक आयु प्राण होता है।
पर्याति - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन रूप शक्तियों की पूर्णता के कारण को पर्याति कहते हैं। पर्यात नाम कर्म के उदय से सहित जिन जीवों की शरीर पर्याति पूर्ण हो जाती है, उन्हें पर्यातक जीव कहते हैं।
पर्यातक नाम कर्म के उदय से युक्त जीव की जब तक शरीर पर्याति पूर्ण नहीं होती तब तक उसे निवृति अपर्यातक कहते हैं। ये जीव नियम से पर्यातियाँ पूर्ण करेंगे। अपर्यात नामकर्म के उदय से सहित जिन जीवों की एक भी पर्याति न पूर्ण हुई है और न आगे पूर्ण होगी, उन्हें लब्धि अपर्यातक जीव कहते हैं।
जन्म
एक गति को छोड़ दूसरी गति में जीव के उत्पन्न होने को जन्म कहते हैं, वह जन्म दो प्रकार का होता है, पहला जन्म अन्य गति में उत्पत्तिका प्रथम समय तथा दूसरा जन्म - योनि निष्क्रमण रूप अर्थात् गर्भ से बाहर आने रूप । जन्म स्थान में प्रवेश करते ही यह जीव अपने शरीर निर्माण हेतु योग्य पुद्गल वर्णणाओं को ग्रहण करता है तत्पश्चात् अन्तमुहूर्त काल में शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन का निर्माण करता है। उसके बाद यथायोग्य काल में विकास को प्राप्त हो गर्भ से बाहर निकलता है। यह जन्म तीन प्रकार का होता है - (१) गर्भजन्म (२) उपपाद जन्म (३) सम्मूछन जन्म।
- माता के उदर में रज और वीर्य के संयोग से जो जन्म होता है उसे गर्भजन्म कहते हैं। यह जन्म भी तीन प्रकार का है जरायु, अण्डज एवं पोत जन्म। जो जाल के समान प्राणियों का आवरण है और जो मांस और शोणित (खून) से बना है उसे जरायु कहते हैं, इसमें से जन्म लेने वाले जरायुज कहलाते हैं। पर्याप्तक मनुष्य, गाय घोड़े आदि जरायुज है। जो जीव नख के समान कठोर अवयव वाले अण्डे से उत्पन्न होते हैं उन्हें अण्डज कहते हैं। जैसे चील, कबूतर, मुर्गा आदि। जो जीव आवरण रहित उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होते ही चलने-फिरने लग जाते हैं, उन्हें पोत कहते हैं। जैसे - सिंह, हिरण, बिल्ली आदि।
- सम्पुट (ढकी हुई)शय्या एवं ऊँट आदि मुखाकार बिलों में लघु अन्तर्मुहूर्त काल में ही जीव का उत्पन्न होना उपपाद जन्म है। उपपाद जन्म देव और नारकियों के ही होता है। जन्मते ही उनका शरीर युवक की तरह होता है।
- आस-पास के योग्य वातावरण से पुद्गलों को ग्रहण कर जो जन्म होता है उसे सम्मूछन जन्म कहते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चार इंद्रिय तक के सभी जीव सम्मूछनज होते हैं। कोई-कोई पञ्चेन्द्रिय तिर्यज्च तथा- मल-मूत्र, पसीना आदि में उत्पन्न होने वाले मनुष्य भी सम्मूछनज होते हैं।