अकाल में ही आकाश में उमड़ते बादल समूह की बहुलता देख शिल्पी विचार करता है कि जब कभी धरती में प्रलय हुआ उसका कारण जल ही बना है। धरती को शीतलता प्रदान करने का लोभ दे, जल ने इसे लूटा ही है; धरती का धन-वैभव बहा-बहाकर समुद्र की ओर ले गया तभी तो समुद्र का एक नाम ‘रत्नाकर' भी पड़ा और इसी कारण धरती ज्यों की त्यों धनहीन ही रह गई। न ही धनवान हुई और न ही इसका नाम वसुंधरा बचा किन्तु इतना तो जानना ही होगा -
"पर सम्पदा की ओर दृष्टि का जाना
अज्ञान को बताता है,
और
पर सम्पदा हरण कर संग्रह करना
मोह-मूच्छ का अतिरेक है।
यह अति निम्न कोटि का कर्म है
स्व-पर को सताना है,
नीच-नरकों में जा जीवन बिताना है।" (पृ. 189)
अपनी वस्तु को छोड़, दूसरों की धन-दौलत की ओर देखना अज्ञान का परिणाम है, इससे अपना सुख चैन समाप्त होता है। जितना अपने पास है उतने में ही संतोष रखना परम सुख को पाना है। फिर दूसरों की सम्पत्ति को छीनकर अपने पास जोड़-जोड़ कर रखना/इकट्ठा करना, मोह यानी गृद्धता, मूच्र्छा की अधिकता को प्रकट करता है। यह कार्य बहुत निम्न स्तर का और निन्दनीय है कारण, धन को बारहवाँ प्राण माना है। किसी का धन छुड़ाया जाता है तो उसे प्राण निकलने जैसा कष्ट होता है और फिर धन छुड़ाने वाले को भी घोर पाप का बन्ध होता है अतः इस कार्य से स्व और पर दोनों ही दुखी होते हैं। जिसका फल घोर नरकों में जाकर कष्ट सहन करते हुए जीवन बिताना है।