इसलिए बेटा! मैंने जो कहा उसे आस्था से समझकर स्वीकार कर लेना। क्योंकि-
"जीवन का आस्था से वास्ता होने पर
रास्ता स्वयं, शास्ता हो कर
सम्बोधित करता साधक को
साथी बन साथ देता है।" (पृ. 9)
जीवन में जब समीचीन श्रद्धा जागृत होती है तब वही श्रद्धा हमारे लिए दिशा निर्देशक, उपदेशक बनकर सदा साथ देती है। आस्था के तारों पर ही साधना की अंगुलियाँ चलती हैं-साधक की, फिर सफल जीवन में लौकिक स्वरों से अतीत / रहित एक अलग ही अपूर्व आत्मानंद की गूंज उठती है और जीवन परम आनन्द का अनुभव करता है, समझी बात बेटा!
तेरे जीवन में निश्चित ही उज्वल भविष्य का, पवित्र सत्ता का कोई बिम्ब/रूप झलका है। तभी तूने अपने आपको छोटा माना है, अपने से अन्य प्रभु को श्रेष्ठ और बड़ा माना है, यह भी अभूतपूर्व घटना है।
असत्य को असत्य के रूप में जानना-पहचानना ही सत्य की खोज करना है बेटा! खाई में गिरे हुए पतित जीवन का अनुभव करना ही, उच्चशिखरों की उत्कृष्टता को प्राप्त करना है।
किन्तु बेटा जिसे हमने श्रद्धा से स्वीकार किया, उस विषय को जीवन में/आचरण में उतारना, अनुभव में लाना सरल नहीं है। आस्था अनुभूति (feeling) में ढले इसके लिए स्वयं को उत्साह के साथ, हर्ष पूर्वक (प्रसन्नता के साथ) साधना के सांचे में ढालना होगा अर्थात् तप, संयम, समता को अंगीकार करना होगा। क्योंकि पर्वत की तलहटी से भी शिखर का दर्शन हो सकता है किन्तु
"चरणों का प्रयोग किये बिना
शिखर का स्पर्शन
सम्भव नहीं है।" (पृ. 10)
शिखर को छूना चाहते हों तो, पुरुषार्थ पूर्वक ऊपर चढ़कर जाना होगा।
हाँ हाँ, यह बात मैं भी स्वीकारती हूँ कि बिना समीचीन श्रद्धा के सन्मार्ग का मिलना संभव नहीं। बिना जड़ के उपरिल भाग (तना, फल आदि) का होना, जैसे संभव नहीं, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक्चारित्र का होना भी संभव नहीं, किन्तु क्या कभी जड़ में फल-फूल लगे हैं? फल-फूल तो पेड़ के ऊपरी भाग में ही लगते हैं।
1. आस्था = श्रद्धा,
2. वास्ता = सम्बन्ध,
3. शास्ता = उपदेशक।