प्रात:काल का समय है, अनन्त आकाश में नीली-नीली आभा फैली हुई है और इधर नीचे धरा में कोलाहल रहित शान्त वातावरण बना हुआ है। रात्रि व्यतीत होने को है दिन उदित होने जा रहा है।
सूर्य की निद्रा टूट तो गई है किन्तु अभी वह दिशारूपी माँ की वात्सल्यमयी गोद में लेटा हुआ, मुख पर आँचल ले करवटें बदल रहा है (हल्का-सा प्रकाश फैल चुका है किन्तु सूर्य नहीं दिख रहा है) पूर्व दिशा के ओठों पर मन्द मन्द मीठी-सी मुस्कान प्रतीत हो रही है, इसके सिर पर कोई आवरण नहीं है तथा चारों ओर सिंदूरी रंग की धूल उड़ती-सी लग रही है। यह वातावरण सभी के मन को सुहावना लग रहा है।
इधर सरोवर (तालाब) में रात्रि में विकसित होने वाली कुमुदिनी बन्द होने को है, ऐसा लगता है मानो लज्जा के कारण वह सूर्य की किरणों के स्पर्श से बचना चाहती है। अत: अपनी पराग और सराग सहित सुन्दर मुद्रा को पाँखुरियों की ओट देकर छुपा रही हो।
और दूसरी ओर कमलिनी जो अधखुली है वह भी डूबते चाँद की चाँदनी को भी पूरी तरह आँख खोलकर नहीं देख पा रही है। कारण चाँदनी के प्रति ईष्र्या भाव लगता है। चूँकि ईष्र्या (जलन भाव) पर विजय प्राप्त करना सबके वश की बात नहीं है और वह भी स्त्री पर्याय में अनहोनी - सी घटना लगती है।
गगनांगन में स्थित बल रहित बाला (बालिका)-सी सरल परिणामी ताराएँ भी अपने पतिदेव चन्द्रमा के पीछे-पीछे चलती हुई सुदूर दिशाओं के अन्त में छुपी जा रही हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं सूर्य उन्हें देख न ले, इसी भय से भाग रही हैं वे।
"मन्द-मन्द
सुगन्ध पवन
बह रहा है;
बहना ही जीवन है
बहता-बहता कह रहा है" (पृ.2, 3 )
सुबह-सुबह मन्द-मन्द सुगंधित हवा बह रही है, मानो संदेश दे रही है कि परिवर्तन ही जीवन है यहाँ कोई भी तो स्थिर नहीं है। जो आज नया है कल पुराना हो जाता है पुराना और भी पुराना हो जाता है।
बहता हुआ पवन कह रहा है-मेरे लिए और सबके लिए कल्याणकारी है यह सन्धिकाल’। छोर-छोर तक सुगन्धि फैल रही है, अभी ना रात है और ना ही चन्द्रमा, ना दिन है ना ही सूर्य। अभी दिशाएँ भी अन्धी हैं अर्थात् कौन-सी दिशा पूर्व है और कौन-सी उत्तर कहा नहीं जा सकता। ध्यान साधना के इस काल में निज आत्म तत्व की खोज की जा सकती है, ऐसे शुभ वक्त में अन्य किसी के मन में दुर्विचार (बुरे भाव) भी पैदा नहीं होते हैं।
और इधर सामने तीव्र वेग से बहती हुई नदी अन्य किसी बात पर ध्यान न देते हुए असीम सागर की ओर जा रही है, कारण समीचीन मार्ग (पथ) में चलता हुआ पथिक बाहरी आकर्षण मिलने अथवा संकट आने पर भी लक्ष्य से चयुत नहीं होता और ना ही तन से, ना ही मन से पीछे मुड़कर देखता है अपितु आगे ही बढ़ता चला जाता है।
1. अनहोनी = जिनका होना संभव न हो।
2. सन्धिकाल = दिन और रात के बीच का काल।
3. भोर = प्रभात, रात के पहेले एवं सूर्यादय के पहेले का समय
4. आँचल = साडी का वह छोर, जो छाती और पेट पर रहता है |
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