स्वभाव से ही संकोच और लज्जा को धारण करने वाली, रूपवती सरिता-तट की माटी अपने मन के भावों को माँ धरती के समक्ष व्यक्त करती है।
हे माँ! मैं स्वयं ही पूर्वोपार्जित पापकर्म के उदय से निम्न दशा (नीची अवस्था) को प्राप्त पतिता हूँ और इस स्वार्थी, अहंकारी दुनिया ने मुझे और गिरा दिया है। दूसरों का बुरा करने में जिनकी बुद्धि लगी रहती है, ऐसे पापियों के पैरों द्वारा कुचली गई हूँ। मेरा जीवन सुख से रहित और दुख से सहित है साथ ही साथ औरों के द्वारा अपमानित की गई, त्यता यानी छोड़ी गई हूँ।
यह पतितात्मा कितनी पीड़ाओं को झेल रही है सो व्यक्त नहीं कर सकती और करूं भी तो किसके सामने, कौन सुनने वाला है यहाँ। मेरे पास पैर भी नहीं है, ना ही मैं कुछ पुरुषार्थ कर सकती हूँ। आखिर भाग्य उल्टा जो रहा।
इतना जरूर है कि मेरे निमित से और कोई दुखी न हो, ऐसा विचार करती हुई प्रत्येक श्वांस पर मिलने वाले दुख को पीती / सहन करती आ रही हूँ, अपने मुख पर आवरण ले किन्तु आन्तरिक वेदना से घुटती जा रही, केवल दिखाने के लिए ही जी रही हूँ, किन्तु जीना नहीं चाहती हूँ।
अत: हे माँ! मुझे बस इतना बता दो कि यह पतित दशा कब नष्ट होगी ? यह शरीर मुझसे कब पृथक् होगा।
"इसका जीवन यह
उन्नत होगा, या नहीं
अनगिन गुण पाकर
अवनत होगा, या नहीं
कुछ उपाय करो माँ!
कुछ अपाय हरो माँ!
और सुनो,
विलम्ब मत करो
पद दो, पथ दो
पाथेय भी दो माँ! "(पृ. 5)
मेरा यह जीवन अनन्त गुणों को पाकर, नम्रवृत्ति (विनय रूप परिणाम) को धारता हुआ उन्नत बनेगा कि नहीं। हे माँ तुम ही कुछ उपाय करो और मेरे दुखों को दूर करो।
और सुनो माँ! मुझे तुम पर ही विश्वास है अत: शीघ्रता से वो चरण दो, जो उन्नति के मार्ग में चल सके। वो रास्ता भी बताओ जो उन्नति की ओर जाता हो। साथ ही साथ कुछ ऐसे भी सूत्र दो, जो पथ पर चलते समय मुझे शक्ति/सहारा प्रदान कर सकें।
इतना कहकर माटी चुप हो जाती है, कुछ समय तक मौन का माहौल छा जाता है। माटी और माँ धरती एक दूसरे को अपलक देख रही हैं, माटी की नजरें धरा में और धरा की नजरें माटी में एक दूसरे के भीतर पहुँचते हुए अन्तरंग में जा समाती हैं।
पूर्वोपार्जित = पूर्व जन्म में बाँधे हुए उत्पन्न किए हुए कर्म।
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