अमित जैन 'मौलिक' Posted June 19, 2017 Report Share Posted June 19, 2017 http://udtibaat.com/1663-2/ संत शिरोमणि आचार्य भगवन विद्यासागर जी के चरणों में एक स्वरचित 4 पंक्तियाँ- कैसे कह दूँ क्यों बहती हैं, मैं क्या जानूं क्या कहती हैं होकर बे-होश बहक जातीं, भीगी-भीगी सी रहती हैं भगवान अगर यूँ मिल जायें, कोई कैसे ना बेसुध हो गुरुवर को देख छलक जातीं, अखिंयां मेरी रो पड़ती हैं। आचार्य भगवन श्री विद्यासागर जी के चरणों में अर्पित मेरी एक स्वरचित कविता- जैसे हो कोई गंध कुटी चहुँ दिशि से सुरभित मलय उठे जिस ओर गमन कर दें गुरुवर अचरज-अचरज से झूम उठे। यह वसुधा पग-पग रज होती रज सज-सज जाती चरणों में पगडंडी संग चले मचले पथ-पथ पेड़ों के पहरों में। कंकड़-कंकड़ हिय स्पन्दन भूले सब बक्र नुकीले पन हो विनत भाव ले हृदय चाव सिमटें-लिपटें पद कमलों में। पुलकित जन-जन भर प्यास नयन जी भर-भर निरखें विमल चरण पग चाप ह्रदय में भर लेते व्याकुल खलिहान खेत निर्जन। हमने ना तीर्थंकर देखे विद्यासागर को देख लिया यह अनुपम भाल दमकता सा सूरज शरमाता देख लिया। ऊपर से नीचे आता है स्तब्ध खड़ा रह जाता है नभ से नभ की तुलना कैसी सुन व्योम ह्दय घबड़ाता है। आठों प्रहरों का ओज खिला बिन अस्त हुये सूरज निकला तप ताप प्रखर देखे दिनकर लज़्ज़ित होकर झुक जाता है। विस्मय-विस्मय से ब्रिस्मृत है इसमें किंचित अतिरेक नहीं शुभ स्वयं बहे झरझर निर्झर संशय की सत्ता शेष नहीं। ना कौतुक है ना मंतर है निज की भगवत्ता अंतर है सिंधु सम सहज नज़र आते अंतर में गहन निरंतर है। यह निर्मम तप यह दुष्करता त्रस से गौ तक की जीव दया मौलिक हो तुम्ही मंगलम हो भगवान धरा पर देख लिया। 1 Link to comment Share on other sites More sharing options...
Recommended Posts
Create an account or sign in to comment
You need to be a member in order to leave a comment
Create an account
Sign up for a new account in our community. It's easy!
Register a new accountSign in
Already have an account? Sign in here.
Sign In Now