कुलीनाङ्गना
वह कुलाङ्गना धन्य जो कि हो पति के लिए पुष्वल्ली।
अगर और का हाथ बढ़े तो वहाँ घोर विष की वल्ली॥
हो परिणीत कोढिया भी तो कामदेव से बढ़कर हो।
चिन्चा पुरुष समान पुष्ट होकर भी जिसके पर नर हो ॥९३॥
एक पाणिपरिणीत पुरुष ही जिस के लिए वरद साँई।
और सभी सर्वदा मनोवाक् तनु से पिता पुत्र भाई॥
अगर कहीं पति रूठ गया तो, शरण एक परमात्मा की।
जिसके लिए शेष रह जाती और किसी को क्या झांकी॥९४॥
उन पतिव्रताओं के आगे मस्तक सभी झुकाते हैं।
जिनके शील गुण प्रभाव से विघ्न सभी टल जाते हैं।।
जहाँ अग्नि का शीतल जल हो साँप सुमन बन जाता है।
अमृतरूप में विष परिणत हो, करके स्वास्थ्य बढ़ाता है।९५॥
शव के साथ किन्तु जल जाना इसमें नहीं सतीपन है।
प्रत्युत इसमें हो जाता उत्पथ का सहज समर्थन है॥
इन्द्रिय दमन मनो निग्रह में, ही आत्मा की बलिहारी।
देखों मीरां बाई ने कैसी अपनी परिणति धारी ॥९६॥
इसी तरह से पूर्व काल में और अनेकों हुईं सती।
जिन कुलाङ्गनावों ने जाना जीवन भर में एक पति॥
सीता मदन सुन्दरी सोमा मनोरमा आदिक सतियाँ।
पति सेवा में निरत रहीं जब तक गृह में उनकी मतियाँ ॥९७॥
पति एक ही किन्तु पत्नियाँ अनेक भी हो रहती है।
अन्त समाधि धारि तन छोड़ा जिससे पाई सद्गतियाँ॥
कुल ललनावों की ऐसी ही अनुकरणीय वनोंवतियाँ।
यद्यपि अनेक शाखायें एकघ्रिप के हो जाती हैं।
नहीं एक शाखा अनेक पेड़ों पर तो जम पाती है ॥९८॥
एक पयोनिधि में अनेक नदियाँ हैं आ जाया करती।
एक नदी क्या कभी अनेक समुद्रों को पाया करती॥
यों अनेक नारियाँ एक नर के भी हो जा सकती हैं।
किन्तु एक नारी के अनेक नर यह बात खटकती है॥९९॥
अगर एक नर के नारी भी एक यही ध्रुव नियम बने।
तो नर से नारी तिगुण संख्या में कैसे काम बने॥
हाँ नर नर की शय्या होना काम नहीं है नारी का,
वैसे ही नर का भी अलि हो ना पर की फुलवारी का॥१००॥
है विवाह बन्धन उपयोगी इसीलिए माना जाता।
जिसके बिना नहीं बन सकता पिता पुत्र आदिक नाता॥
फिर तो पशुओं के समान लोगों का चलन यहाँ होवे।
अपनी खाज खुजाने का फिर कौन मदद किसकी होवे ॥१०१॥
इसीलिए श्री ऋषभदेव ने यथा रीति शादी की थी।
उनको ले आदर्श और, सब ने भी वहीं प्रीति ली थी॥
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