गुरु जे दी कशालुचन की प्रेरणा : मृदुल भाव से नैनागिर क्षेत्र पर चातुर्मास चल रहा था। उस समय वहाँ क्षुल्लक सन्मतिसागर महाराज जी भी थे। उन्होंने मुझसे कहा- दीक्षा ले लो। क्योंकि आचार्य श्री तो साथ में रखेंगे नहीं, विहार करा देंगे। मैंने कहा अभी दीक्षा नहीं लेना, मुझे अध्ययन का विकल्प है। पढ़ी-लिखी आर्यिका बनूँगी। वे बोले- समाज में रहकर समाज के लोग व्यवस्था कर देते हैं। जैसे हम पढ़ रहे हैं, वैसे ही पढ़ लेना। आचार्य श्री जी बैठे-बैठे सुन रहे थे। अन्त में निर्णय हुआ कि दीक्षा का मन नहीं, पढने का विकल्प है। कुछ समयोपरान्त ही तीन-चार बहिनों ने व्रत ले लिया। धीरे-धीरे कुल आठबहिनें हो गयीं। प्रोफेसर आशा मलैया, सागर आदि से विचार विमर्श हुआ। अन्त में निर्णय हुआ कि कुण्डलपुर में अगर आश्रम खोला जाये तो मैं प्रत्येक रविवार देखरेख करने आया करूंगी। पं. श्री जगन्मोहनलाल जी, कटनी वाले वहाँ अध्ययन करायेंगे। अन्य व्यवस्था सम्बन्धी बातें भी हुई।
कुण्डलपुर क्षेत्र में 16 नवम्बर सन् 1978 में आश्रम खोलने का विचार हुआ। बड़कुल डालचन्द्र जी ने दीपप्रज्वलन किया। आचार्य श्री का सम्बोधन हुआ। 8 बहिनों से आश्रम शुरु हो गया। एक बार की बात है, हम सभी बहिनें बड़े बाबा के दर्शनार्थ गये। वहाँ से लौटकर सीढ़ियों से धड़ाधड़ शीघ्रता से उतर रहे थे। ऐसा उतरते हुए श्री लाहरी बाबा जी, जो कुण्डलपुर के आश्रम में रहते थे, ने देखा तो उनको हम लोगों की यह प्रवृत्ति ठीक नहीं लगी। वे आचार्य श्री से शिकायत के रूप में बोले- आज ब्रह्मचारिणियाँ सीढ़ियों से जल्दी-जल्दी उतर रही थीं। उनके अन्दर अभी गम्भीरता नहीं आयी। आचार्यश्री इन सभी का अगर सिर मुड़वा दिया जाय तो इनके अन्दर गम्भीरता आ जायेगी। फिर वे इस प्रकार से बचपना नहीं कर पायेंगी।
एक दिन हम सभी बहिनें आचार्य श्री को नमोऽस्तुकरने के लिए हाथी वाले मन्दिर गये। आचार्य श्री बोले- तुम सभी केशलुचन कर लो। मैंने कहा- आचार्य श्री अभी नहीं, जब दीक्षा लंगी तब मंच पर करूंगी। क्योंकि मैंने आर्यिकाओं को ऐसा ही देखा था। आचार्य श्री बोले- दीक्षा के समय जब होंगे तब होंगे, अभी तो केशलुचन कर लो। मैंने कहा- केशलुचन करना नहीं आता। आचार्य श्री सुनकर मुस्कुराने लगे। हम सभी आश्रम आ गये।
माया बहिन, बण्डा ने गुरु आज्ञा पाकर पूर्ण केशलुचन स्वयं अपने हाथों से कर लिये। केशलुचन करके जब दूसरे दिन आचार्य श्री के घास जाकर नमोऽस्तु किया तो, आचार्य श्री बोले- अच्छा केशलुचन कर लिया। माया बहिन बोली- जी आचार्यश्री। सुनकर आचार्य श्री बहुत खुश हुये। जब पडगाहन को खड़ी हुई तो आचार्य श्री आ गये। आहार दिये। बाद में माया की सभी ने प्रशंसा की। सभी उसको ही देखते रहे। आचार्य श्री मेरी तरफ इशारा करते हुए बोले- तुम भी कर लो। एक दिन में नहीं, थोड़े-थोड़े करके, भले आठ दिन में कर लेना।
मैंने कहा- अच्छा आचार्यश्री कर लंगी। लेकिन बाल उखाड़ती हूँ तो खून निकलने लगता है। ऐसा सुनते ही आचार्य श्री ने सुकुमाल स्वामी की कहानी सुनायी। वह मैंने गुरुमुख से पहली बार सुनी थी। सुनकर बड़ा वैराग्य आया। फलत : मन बन गया। मैंने नियम ले लिया केशलुचन करने का। जैसे ही कायोत्सर्ग किया कि आचार्यश्री बोले- कल क्षुल्लक समयसागर जी का केशलुचन होगा। उनको देखना वे कैसे करते हैं? गुरु आज्ञा पाकर मैं समय पर पहुँच गई। क्षुल्लक समयसागर जी महाराज केशलुंचन कर रहे थे। मैंने कहा- आचार्यश्री ने भेजा है। उन्होंने कहाकेशलुंचन देखना है। हम सभी बहिनें वहाँ बैठकर केशलुचन देखते रहे। बीच-बीच में उनसे पूछ भी रहे थे। वे इशारे से राख लगाकर बताते और अपने बाल पकड़कर खींचते थे। ऐसा देखकर समझ में आ गया कि ऐसा करके केशलुचन करना चाहिये।
मैंने क्षुल्लक समयसागर जी महाराज के द्वारा बताये गये विधिविधान से अपने जरा से केशलुचन कर लिये। गुरु आदेश मिला था कि आठ दिन में थोड़ा-थोड़ा करके कर लेना। क्योंकि बाल बहुत घने और लम्बे थे | मैंने थोड़े केशलुचन किये, फिर गुरु दर्शनार्थ हम सभी बहिनें पहुँचे। आचार्यश्री बोले- क्यों कितने केशलुंचन हो गये ? जहाँ के केशलुचन हो गये थे, वहाँ सिर पर हाथ रखकर कहा- इतने हो गये। दो-तीन दिन लगातार आचार्य श्री पूछते रहे। मैं बताती रही, इतने हो गये। एक दिन आचार्यभक्ति में हम सभी और क्षुल्लक जी बैठे हुये थे। पूज्य क्षुल्लक समयसागर जी आचार्य श्री से कहते हैं- इन लोगों को अच्छा है, थोड़ा-थोड़ा कर लेती हैं और सिर ढँक लेती हैं तो पता नहीं लगता कि केशलुचन हुआ कि नहीं। अगर हम लोग ऐसा करेंगे तो कैसा लगेगा ? क्षुल्लक समयसागर जी महाराज की बात सुनकर आचार्य श्री कहते हैंक्या तुम्हें भी इन जैसे आठ दिन में करना है ?
क्षुल्लक समयसागर जी कहते हैं- करना तो नहीं है, मैंने तो ऐसे ही कहा है। आचार्य श्री तीव्र मुस्कुराहट के साथ बोले- देखो ये ब्रह्मचारिणी हैं, अभी इनका अभ्यास चल रहा है। महाराज, तुम तो क्षुल्लक जी हो। ऐसा सुनकर सभी हँसते रहे। यह थी हम सभी की आचार्य श्री के समक्ष बाल नादानी। मोक्षमार्ग पर चलने की शुरूआत और अनुभवहीनता आचार्य श्री सुनकर सहज बने रहते थे। ऐसे सहज वार्तालाप में मोक्षमार्ग का सम्यक उपदेश हम लोग पाते थे।
कुछ दिन में, जब पूर्ण केशलुचन हो गया, तब आचार्य श्री कहते हैं- क्यों कैसा लगा ? मैंने कहा- जहाँ-जहाँ के केशलुचन हो जाते थे और जहाँ के छूट जाते थे उस स्थान पर सूजन आ जाती थी। आचार्य श्री बोले- रुक-रुक कर, धीरे-धीरे कियेन, इसलिए ऐसा हुआ। एक साथ करने में ऐसा नहीं होता। अभी शुरुआत है, अब जब भी करोगी तब एक साथ पूरे करना, तब ऐसा नहीं होगा। मैंने कहा-जी आचार्यश्री। ये सोचने समझने की बातें हैं कि कमजोर शिष्यों को सुविधा देकर मोक्षमार्ग पर लगाने की कला ऐसे महान आचार्य के पास पाकर मैं धन्य हो गई। उन्हें नमन।