शंका - गुरुवर! नमोऽस्तु! जब आचार्यश्री के संघस्थ मुनि, संघ से विदा होते हैं, तब आचार्यश्री की उनसे क्या अपेक्षा होती है?
- श्रीमती पुष्पा गंगवाल, इन्दौर
समाधान - देखिए! आचार्यश्री का जीवन बड़ा निरपेक्ष है। वह कोई अपेक्षा नहीं रखते, पर वह एक ही बात कहते हैं- जो तुम्हारा लक्ष्य है, जो तुम्हारा उद्देश्य है, उसकी पूर्ति करते रहना। उसमें किसी भी प्रकार की कमी न हो और वह अपने शिष्यों से एक ही बात कहते हैं- प्रभावना हो, यह बहुत अच्छी बात है, पर अप्रभावना न होना सबसे बड़ी बात है। ऐसा कोई काम न करना जिससे किसी प्रकार की अप्रभावना हो। हालांकि वह हम लोगों को बहुत उत्साहित भी करते हैं। भीतर-बाहर दोनों जगह से बड़ा स्ट्राँग करते हैं। उनका जो मोटिवेशन मिलता है, वह हम लोगों को बड़ा मजबूत बना देता है, परन्तु उनके अन्दर ऐसी कोई अपेक्षा नहीं है कि तुम जाओ, बहुत धूम मचाओ, कोई बड़ा काम करो। ऐसा नहीं है, लेकिन हाँ! वह जानते हैं कि कौन क्या काम कर सकता है? कभी-कभी उनकी कुछ अपेक्षाएँ भी दिखी हैं, उन अपेक्षाओं में वह अपना वीटो लगा देते हैं। दो प्रसंग मैं आप लोगों को सुनाना चाहूँगा कि वह किस तरह से वीटो लगाते हैं।
सन् 2005 में हमारा चातुर्मास हजारीबाग में था। चातुर्मास के उपरान्त नवम्बर माह तक हमारे कार्यक्रम सुनिश्चित थे। पिच्छीपरिवर्तन भी शेष था। उसकी डेट डिक्लेयर थी। हजारीबाग का वह चातुर्मास सिर्फ जैन समाज ने नहीं कराया, सर्व समाज ने कराया था। उसके संयोजक थे- बृजमोहन केसरी जैन। समाज ने आन्तरिक व्यवस्था की और सर्व समाज ने मिलकर चातुर्मास करवाया, जो एक अलग प्रकार का माहौल था। उन लोगों की योजना थी कि रामायण व गीता जैसे विषय पर हमारा प्रवचन छठ पर्व के बाद एक बहुत बड़े स्टेडियम में करवाएँ, जिसमें 50 से 60,000 लोगों की गैदरिंग हो। पूरी तैयारियाँ थीं, हमने भी इसके लिए आशीर्वाद दे दिया। इस बीच कोलकाता में एक पञ्चकल्याणक होना था। वह लोग मुनिसंघ का सान्निध्य चाहते थे, गुरुदेव के पास चले गए। गुरुदेव उस समय बीनाबारहा में थे। कोलकाता के लोग हमारे पास आए गुरुदेव का आशीर्वाद लेकर। सच पूछो तो हमारी इच्छा कोलकाता जाने की नहीं थी, लेकिन गुरुदेव से तो कुछ बोल नहीं सकते। हमने अपने ब्रह्मचारी को गुरुचरणों में भेजा और कहा कि हमारे कार्यक्रम अभी तय हैं, बीच में कैसे जाएँ कोलकाता? गुरुदेव ने कहा- उनसे कहो, इस कार्यक्रम से ज्यादा जरूरी वह कार्यक्रम है और प्रमाणसागर जी जाएँगे, सब ठीक कर लेंगे। उस समय मैं था और मेरे साथ एक क्षुल्लक जी थे। अब जाना है तो कोई उपाय नहीं। मेरे पास 3 तारीख को मैसेज आया, 4 तारीख को केशलोंच किया, 5 तारीख को पिच्छी-परिवर्तन किया और उसी दिन विहार कर दिया। बिना सूचना के सारा कार्यक्रम निरस्त बोल दिया कि भाई अब नहीं हो सकता। 20 दिन में कोलकाता पहुँचा और कोलकाता में जो गुरुदेव के मन में भावना थी, वह सब साकार हो गई। वहाँ का पञ्चकल्याणक तो सानन्द सम्पन्न हुआ, लेकिन मुनियों का निर्बाध विचरण शुरु हो गया। जब मैं कोलकाता गया, सड़क पर चल रहा था, लोगों ने मुझे घेर लिया और घेरकर ले जाने लगे, क्योंकि उस समय कुछ मुनियों को सुबह चार बजे कपड़े के घेरे में निकलना पड़ा था। कोलकाता में ऐसी स्थिति थी कि दिगम्बर साधुओं का विहार ऐसे नहीं हो पाता था। मैं घेरे में खड़ा हो गया, मैंने कहा- मेरे आगे सिर्फ एक झण्डे वाला चलेगा। मेरे पीछे सब काँपने लगे, पर मैं उसी स्थिति में गया। गुरुदेव के आशीर्वाद से वहाँ कुछ भी गड़बड़ नहीं हुई। बहुत अच्छे से वहाँ हमारा प्रवास रहा। उस समय हम कोलकाता 25 नवंबर को पहुँचे थे और 19 अप्रैल को हम वहाँ से निकले। लगभग छह महीने का प्रवास हुआ और इस बीच कोलकाता में ऐसी प्रभावना हुई कि हमने ढाई ढाई किलोमीटर तक अंजलि लेकर अकेले विचरण किया। आज उसका यह सुपरिणाम है कि पूरे कोलकाता में कोई भी मुनि महाराज कहीं भी आ सकते हैं, जा सकते हैं।
उन्होंने मुझे भेजा तो हमने कहा जरूर उनके मन में कोई बात है। हमने भी उसी तरीके से कोलकाता में सार्वजनिक प्रवचन माला की। पहली बार दिगम्बर मुनि के वहाँ के पार्को में, चाहे देशबन्धु पार्क हो, गुलमोहर पार्क हो या नवरत्न गार्डन हो, इन पार्को में हमारी प्रवचन-मालाएँ हुईं। उनमें जैन-अजैन हजारों की संख्या में आए। हमने आहारचर्या में भी इस तरह का कोई समझौता नहीं किया। वहाँ के कार्यकर्ता घबराए कि महाराज! कैसे होगा? हमने कहा- जो सामने है, वह तुम्हें दिख रहा है और जो होने वाला है, वह हमें दिख रहा है। चिन्ता मत करो, जो हम कह रहे हैं। वैसा करो, सब ठीक होगा और आज वह लोग मानते हैं। मैं तो यह समझता हूँ कि वह उनकी दूरदर्शिता थी। उन्होंने वीटो लगाकर हमें कोलकाता भेजा और उसका परिणाम आ गया। दूसरा, दो साल पहले जयपुर का ताजा प्रकरण सबको पता है। उन्होंने हमें फरवरी में ही संकेत दे दिया था, जयपुर की तरफ जाना है। अवधारणात्मक नहीं था, हम लोग निकले, सोचे, जयपुर है ठीक है चतुर्मास के बाद तक चले जाएँगे। हम लोग कानपुर आकर पहुँचे, गर्मी प्रचण्ड थी। खबर आ गई कि यहाँ रुकना नहीं है, आगे जाना है। चले, हम लोग सोचे, आगरा में चौमासा कर लेंगे, अगल-बगल कहीं भी कर लेंगे मानसिकता नहीं थी कि जयपुर जाना है और उनकी तरफ से हमारे पास ऐसा कोई आदेश भी नहीं था कि जयपुर जाना है। अगर जाना होता तो फिर बात ही नहीं थी। हम सोच रहे थे कि अभी गुंजाइश है। जब सम्पर्क किया तो उन्होंने एक ही वाक्य कहा कि जयपुर ही जाना है और एक लम्बे अन्तराल के बाद हमें एक स्थानविशेष का संकेत मिला। गुरुदेव प्रायः मुझे मेरे ऊपर ही छोड़ देते हैं। 12-13 साल झारखण्ड में रहा, एक-दो अपवाद को छोड़कर उन्होंने हमेशा मेरे ऊपर ही छोड़ा कि जहाँ अनुकूलता व उपयोगिता हो, वहाँ कर लो, पर इस बार कहा- जयपुर ही जाना है। हम जयपुर आए तो जयपुर आने के बाद जो कुछ हुआ, वह आप सबके सामने है। शायद उनके दिमाग में कुछ था कि जयपुर में इनके निमित्त से कुछ हो सकता है और सल्लेखना-संथारा के प्रकरण में धर्म बचाओ आन्दोलन की सफलता, मैं समझता हूँ उनके ही दूरदर्शी निर्णय का प्रताप है। वह इस तरह का वीटो भी कई बार लगा देते हैं और सब शिष्य सरल भाव से स्वीकार करते हैं। हमारे यहाँ जैसे सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का रिवीजन नहीं होता, वैसे ही हम लोग गुरुदेव के निर्णय को बदलने की भावना तक नहीं रखते। वह एक बार जो कह दें, सो कह दें। यह केवल धरती पर आचार्य विद्यासागर का कमाल है, और किसी का नहीं।