सल्लेखना का प्रकरण चल रहा था। उस समय आचार्य श्री जी ने कहा कि- जो जीवन में पहले से ही विषाय, कषायों को जीतने का प्रयास नहीं करता वह अंत समय में अपने आपको सम्भाल नहीं सकता। कई बार तो ऐसा भी हो जाता है कि जो व्यक्ति जीवन पर्यंत विषय-कषायों को जीतने का प्रयास करता है फिर भी तीव्र कर्मोदय के कारण अंत समय में सम्भल ही जाए यह भी जरूरी नहीं है। इसी बीच किसी साधक ने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आचार्य श्री जी संल्लेखना के समय साधक को किस प्रकार की सावधानी रखनी चाहिए। तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- एक बात हमेशा याद रखना कि दवाई रोगी के अनुसार नहीं, बल्कि रोग के अनुसार दी जाती है वरन् रोगी कभी ठीक नहीं होता। रोग में वृद्धि हो सकती है। इस प्रकार सल्लेखना में भी क्षपक के इच्छानुसार त्याग एवं ग्रहण नहीं होता, बल्कि शरीर की प्रकृति एवं आगमानुसार त्याग किया जाता है। सल्लेखना में शरीर की नहीं आत्मा की सेवा की जाती है।
आर्यिकाओं को इंगिनी एवं प्रायोपगमन मरण नहीं बताया और पंचम काल में हीन संहनन होने से साधु एवं आर्यिका सभी को भक्तप्रत्याख्यान नाम का मरण ही बताया है। इसमें धीरे-धीरे भोजन को कम करना होता है, इसके क्रम में भी विवेक रखना पड़ता है। इसके लिए अभ्यास की भी आवश्यकता होती है। सबसे पहले गरिष्ठ भोजन लड्डू मिठाई, ड्रायफ्रुट्स का सबसे पहले त्याग करना चाहिए फिर फल एवं उनके रसों का त्याग, इसके बाद खरपान-रूक्षपदार्थ (छाछ, कांजीर आदि पतला पेय पदार्थ) फिर शुद्ध प्रासुक पानी फिर उसका भी त्याग हो जाता है। एक विशेष सावधानी रखना चाहिए कि सल्लेखना के समय साधक को किसी भी प्रकार की खटाई नहीं देना चाहिए और इमली का पानी तो भूलकर भी नहीं देना चाहिए, क्योंकि इमली के पानी से सन्निपात की संभावना रहती है। वात प्रकोप हो जाता हैं। जल त्याग के बिना सल्लेखना की पूर्णता नहीं मानी जाती, क्योंकि जल भी पेय आहार में आता है। भोजन, पानी त्याग का अभ्यास बहुत पहले से करना चाहिए। इस बात को समझाते हुए आचार्य श्री जी ने एक उदाहरण देते हुए कहा कि जैसे एक खिलाड़ी हाई जम्प और लॉग जम्प में दूर से भगता आता है, तभी जम्प ले पाता है। वैसे ही अन्त समय आहार पानी त्यागने के लिए पहले से अभ्यास किया जाता है। अभ्यास एक ऐसी वस्तु है। जिसके माध्यम से हम शरीर रूपी मशीन को नियंत्रित कर सकते हैं। शरीर स्वयं बड़ा कूटनीतिज्ञ है, इसके सामने अच्छे-अच्छे कूटनीतिज्ञ भी फेल हो जाते हैं। अंत में तत्त्वज्ञान अकेला काम नहीं आता। मात्र णमोकार मंत्र ही काम आता है। सुख में प्राप्त किया गया ज्ञान दुःख आने पर विलीन हो जाता है। इसलिए बारह भावना और णमोकार मंत्र का अभ्यास अच्छे ढंग से कर लेना चाहिए। अंत समय वही काम आवेगा।
व्रतों का पालन 355 दिनों की पढ़ाई है, लेकिन सल्लेखना परीक्षा के 10 दिनों के समान है। परीक्षा के समय कण्ठस्थ विद्या ही काम में आती है, सब कुछ मन से ही लिखना पड़ता है। अभ्यास किया है तो कुछ याद आवेगा तभी लिख पाओगे। अंत समय में आक्षेपिणी, विक्षेपिणी कथाएँ काम में नहीं आती बल्कि संवेगनी एवं निर्वेदनी कथा ही काम में आती है।
तपस्वी को अपने शरीर और मन को संतुलित रखना चाहिए। शरीर को ज्यादा पुष्ट नहीं बनाना चाहिए। काय में रत (लीन) होना ही कायरता है। किसी साधक ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- सल्लेखना के लिए बारह वर्ष का समय क्यों रखा? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- यह निमित्त ज्ञानियों के लिए है, क्योंकि निमित्त ज्ञान होने से यह ज्ञात हो जाता है कि आयु की सीमा कितनी है। वैसे तो पूरा जीवन भी इसमें लगा देना चाहिए। दूसरी बात यह है कि यदि क्षपक निर्यापक आचार्य की गवेषणा करना चाहते हों तो कर लें। इसलिए भी बारह वर्ष का समय रखा।
पुनः शंका व्यक्त करते हुए पूछा कि- किस प्रकार के आचार्य के समीप समाधि साधना होती है? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि मरणकण्डिका ग्रंथ में लिखा है कि- जो संसार, शरीर एवं भोगों से उदासीन हैं, पापभीरू हैं, अर्हंतदेव के आगम के सार के ज्ञाता हैं। ऐसे आचार्य के पादमूल में जाने वाला यति आराधक समाधि का साधक होता है। पुनः शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- हे गुरुवर! जब मरणकाल में आराधना का सार प्राप्त होता है, ऐसा कहा है तो फिर चार आराधनाओं का सदा प्रयत्न करने की क्या आवश्यकता है ? तब आचार्य श्री जी ने समाधान करते हुए कहा कि जिस प्रकार राजपुत्र सर्वदा अस्त्र-शस्त्र का संचालन आदि रूप युद्ध का अभ्यास करता रहता है, तभी वह रणांगण में विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है। उसी प्रकार हमेशा आराधना, गुप्ति, ध्यान, योग आदि परिकर्म को करता हुआ साधु मरणकाल में समाधि करने में समर्थ होता है।
सल्लेखना दो प्रकार की होती है- कषाय एवं काय सल्लेखना। कषायों को आत्म भावना द्वारा कम करना कषाय सल्लेखना है और शरीर को अनशन आदि तप द्वारा कम करना काय सल्लेखना है।