गुण और गुणी की चर्चा करते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि ज्ञान गुण है और यह जीव गुणी है। जैसे जिसके पास धन होता है।वह धनिक होता है। उसी प्रकार जिसके पास ज्ञान होता है वह ज्ञानी कहलाता है। इसलिए आत्महित चाहने वाले व्यक्ति को ज्ञान की आराधना करना चाहिए। तब मैंने कहा- आचार्य श्री स्वाध्याय तो सभी लोग करते हैं लेकिन कषायें कम नहीं होती तो क्या इसे हम ज्ञान की आराधना मान सकते हैं? तब आचार्य श्री ने कहा कि जो स्वयं शांत रहे और दूसरों को शांत कर दे यही ज्ञान की सच्ची आराधना है।
आचार्य श्री जी हम सभी को यही शिक्षा देते हैं कि - ज्ञान प्राप्त करने का अर्थ अक्षर ज्ञान से नहीं है, बल्कि परिणामों की निर्मलता से है। उन्होंने आगे कहा कि- ज्ञान का अभिमान न करना ही ज्ञान की शुद्धि है। ज्ञान साधन है, चारित्र साध्य है। साधन को कभी साध्य नहीं मानना चाहिए। ज्ञानियों के लिए कुछ मुख्य बिंदु
- आध्यात्मनिष्ठ होने वाले को ज्ञान देना सार्थक है।
- उपदेश देने वाले के पास पूर्वा पर विवेक एवं करुणा होनी चाहिए।
- एक दूसरे ने एक दूसरे को पहचान लिया लेकिन अपने आप को नहीं पहचाना यही तो अज्ञान है।
- जब मैं अमूर्त आत्मा हूँ तो मुझे कोई देख नहीं सकता फिर मैं किसको परिचय दूँ और किसका लूँ। एड्रेस तो ड्रेस (शरीर) का होता है, आत्मा का नहीं।
- मोह के कारण ज्ञान रूपी सरोवर में विकल्प रूपी तरंगे उठती रहती हैं इसलिए ज्ञानी को सबसे पहले मोह का त्याग करना चाहिए।
- सच्चा ज्ञान वही है, जो प्राणी को पाप से बचाये।
- यदि प्रयोजन भूत आत्मतत्व की ओर दृष्टि नहीं है तो सभी तत्त्वों का ज्ञान कोई कार्यकारी नहीं है।
- अपने ज्ञान का उपयोग, अपने विषय में ही करना चाहिए। दूसरे का अहित हो जाए ऐसा सोचना तो व्यर्थ है, अनर्थ का कारण है |