नेमावर सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र में पूरा संघ विराजमान था। एक दिन एक पंडित जी किशनगढ़ मदनगंज (राजस्थान) से आचार्य महाराज जी के पास आये और चर्चा करते हुये उन्होंने आचार्य महाराज के सामने एक शंका रखी - आचार्य श्री जी! अबुद्धिपूर्वक जो राग होता है उसे कैसे छोड़ा जाये, तो आचार्य महाराज ने कहा- पंडित जी विद्वान लोग बुद्धिपूर्वक जो राग करते हैं उसे छोड़ने की बात क्यों नहीं करते ? अबुद्धिपूर्वक की बात करते हैं।
पंडित जी ...... नहीं महाराज जी बुद्धिपूर्वक राग नहीं है अब तो अबुद्धिपूर्वक हो रहा है। आचार्य श्री जी ने कहा - यदि आपको नेमावर आना है तो आपका मुख दिल्ली की ओर क्यों है ? गाड़ी दिल्ली की ओर मुड़ जाती है क्या ये सब अबुद्धिपूर्वक होता है। पंडित जी कुछ रुके सोचकर बोले आचार्य श्री जी हमारा हृदय तो इसी ओर रहता है भले मुख दिल्ली की ओर हो। तब आचार्य श्री जी ने कहा-मुख भी इसी ओर होना चाहिए, फिर दिल्ली पहुँच जाओगे तो समझना यह कार्य अबुद्धिपूर्वक हुआ है। तर्कपूर्ण शंका का समाधान सुनकर पं. जी खुश हो गये।
पंडित जी ने दूसरी शंका रखी- आचार्य श्री जी, आचार्य कुंदकुंद भगवान जी ने जो गाथायें लिखी है वे प्रमाद दशा (छटवें गुणस्थान) में लिखीं होगी क्योंकि निर्विकल्प समाधि में तो लिखा नहीं जा सकता। आचार्य श्री जी ने कहा - हाँ, पंडित जी ! आचार्य भगवान ने गाथायें प्रमाद दशा में ही लिखीं हैं लेकिन उन गाथाओं में कहीं भी प्रमाद नहीं झलकता। पंडित जी इस समाधान को सुनकर बहुत प्रसन्न हुये और हाथ जोड़कर नमोऽस्तु किया। अंत में आचार्य श्री जी ने कहा - पहले बुद्धिपूर्वक राग छोड़ो फिर हम बतलाएँगे कि अबुद्धिपूर्वक कैसे छोड़ा जाता है।
(नेमावर 2002)