पथरिया नगर के बड़े मंदिर में नई वेदी पर पार्श्वनाथ भगवान को विराजमान किया जा रहा था। पाषाण की प्रतिमा वजन में बहुत भारी थी, व्यवस्थित वेदी पर रखी नहीं जा रही थी। हम सभी साधक गुरुदेव के साथ वहीं उपस्थित थे। बहुत प्रयास के बाद जब प्रतिमा जी नहीं विराजमान हो पायीं तो आचार्य महाराज से कहा - आप प्रतिमा जी में हाथ लगा दीजिए ताकि, प्रतिमा जी विराजमान हो जावें। आचार्य भगवन् ने जैसे ही प्रतिमा जी में हाथ लगाया; प्रतिमा जी व्यवस्थित वेदीजी में विराजमान हो गयीं। यह देख सभी लोग आनंदित हो उठे। सारा मंदिर जय - जयकारों के नारों से गूंज उठा।
आचार्य महाराज से हम लोगों ने कहा - आपने हाथ लगाया और चमत्कार हो गया। “आचार्य महाराज सहसा ही बोल उठे- नहीं! मैने हाथ नहीं लगाया था बल्कि भगवान को नमोऽस्तु किया था।'' गुरु महाराज की महिमा निराली है वे हमेशा अपने कार्य की सफलता को गुरु या प्रभु का आशीर्वाद ही मानकर चलते हैं। कभी मेरे द्वारा ऐसा हुआ है, नहीं कहते हैं। सच बात है मिथ्यावृष्टि चमत्कार को नमस्कार करते हैं और सम्यग्दृष्टि जहाँ नमस्कार करते हैं। वहाँ चमत्कार हो जाता है। गुरुदेव हमेशा अपनी लघुता प्रदर्शित करते हैं। कभी भी, यह कार्य मेरे द्वारा हुआ है, ऐसा नहीं मानते। उनके सान्निध्य में हुआ कुण्डलपुर में इतना बड़ा चमत्कार किसी से छुपा हुआ नहीं हैं, लाखों श्रद्धालु जनों ने अपनी आँखों से देखा है। ये जड़ का चमत्कार नहीं बल्कि चित्चमत्कार है।
कर्तापन की गंध बिन, सदा करें कर्तव्य।
स्वामीपन ऊपर धरे, ध्रुव पर हो मन्तव्य।।
(पथरिया 2007)