गुरुदेव का उपदेश चल रहा था, हम सभी साधक उस उपदेशामृत का पान कर रहे थे। आचार्य श्री जी ने बताया कि-समयानुसार हमें कभी कठोर तो, कभी मृदु चर्या के माध्यम से साधना विकासोन्मुखी बनाना चाहिए। लेकिन, तेज सर्दी और तेज गर्मी में साधना करना बड़ा मुश्किल है आज खुले में साधना करने वालों के दर्शन दुर्लभ हैं।
तब मैंने कहा- आचार्य श्री जी! मैंने सुना है पहले आप जब राजस्थान में थे तब खुले में, पहाड़, श्मशान आदि पर जाकर साधना करते थे। यह सुनकर आचार्य श्री कुछ क्षण मौन रहे, फिर बोले - केकड़ी (राजस्थान) के पास बघेरा गाँव है जहाँ शांतिनाथ भगवान का मंदिर है। वहाँ से 1 कि.मी. दूरी पर पहाड़ है। गाँव में आहारचर्या करके सीधे ही पहाड़ पर चले जाते थे, वहाँ पर उस समय गर्मी का समय था सो गरम-गरम हवा चलती थी, बड़े-बड़े पत्थर थे, उन पत्थरों की ओट में जाकर बैठ जाते थे। उस समय साथ में क्षुल्लक मणीभद्र जी भी थे उनकी आँखों में गरम हवा की वजह से जलन होती थी तो उन्हें बताया कि आप अपने दुपट्टे को कमण्डलु के पानी से गीला करके आँखों पर रख लिया करो। रात्रि विश्राम भी वहीं एक गुफा में करते थे। हँसकर बोले - एक बार पहाड़ पर ज्यादा ऊपर चढ़ गये फिर रास्ता भटक गये, नीचे उतरते वक्त हाथ पकड़कर, कमण्डलु पत्थरों से टिकाते-टिकाते नीचे उतर आये। कभी-कभी श्मशान में चले जाते थे वहाँ एक छतरी जैसी बनी थी वहीं रात्रि व्यतीत करते थे, कभी-कभी नदी की रेत में रात्रि विश्राम हो जाता था। शिष्य ने पूँछा- आचार्य श्री जी ! रेत तो गरम रहती होगी ? आचार्य श्री जी ने कहा-हाँ, देर रात होने पर थोड़ी ठण्डी हो जाती थी। शिष्य ने पूँछा - आचार्य श्री जी! आप वहाँ दिन रात क्या करते थे ? तब आचार्य श्री जी बोले - सामायिक, स्वाध्याय (समयसार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार आदि) करते थे। शिष्य ने पुनः शंका व्यक्त करते हुए कहा - क्या आप ये ग्रंथ साथ में ले जाते थे ? आचार्य श्री जी ने कहा - नहीं, मौखिक (याद) था सब कुछ, पुस्तक की क्या आवश्यकता। यह है गुरुदेव की अदभुत चर्या का जीवंत उदाहरण।
ग्रीष्म काल में आग बरसती, गिरि शिखरों पर रहते हैं
वर्षा ऋतु में कठिन परीषह, तरुतल रहकर सहते हैं।
तथा शिशिर हेमंत काल में , बाहर भू-पर सोते हैं,
वंद्य साधु ये वंदन करता, दुर्लभ दर्शन होते हैं।
ये पंक्तियाँ आचार्य श्री जी ने 'योगी भक्ति' का हिन्दी अनुवाद करते हुए लिखी हैं। सच है वे जो लिखते हैं, पहले अपने जीवन में लख लेते हैं। वे मात्र उपदेश ही नहीं देते बल्कि उस उपदेश को अक्षरश: अपने जीवन में उतार लेते हैं। यह है उनकी साधना के कुछ क्षण। हे गुरुदेव ! ये क्षण हम सभी को भी प्राप्त हों ताकि हम लोग भी ऐसी साधना को उपलब्ध कर सकें।
मैंने गुरु के चित्र को
अपने चित्त में
ऐसा बसाया है
कि उनके
चरित्र का चित्र भी
मेरे चित्त में
थोड़ा सा
उभर आया है....