संसारी प्राणी सुख चाहता है, दुःख से भयभीत होता है। दुःख छूट जावे ऐसा भाव रखता है। लेकिन दुःख किस कारण से होता है इसका ज्ञान नहीं रखा जावेगा तो कभी भी दुःख से दूर नहीं हुआ जा सकता। आचार्य कहते हैं - कारण के बिना कोई कार्य नहीं होता इसलिए दु:ख के कारण को छोड़ दो दुःख अपने आप समाप्त हो जायेगा। सुख के कारणों को अपना लिया जावे तो सुखस्वत: ही उपलब्ध हो जावेगा। दु:ख की यदि कोई जड़ (कारण) है तो वह है-परिग्रह। परिग्रह संज्ञा के वशीभूत होकर यह संसारी प्राणी संसार में रुल रहा है, दुःखी हो रहा है। पर वस्तु को अपनी मानकर उससे ममत्व भाव रखता है यही तो दु:ख का कारण है।
आचार्य महाराज ने परिग्रह त्याग के संबंध में बताया कि एक बार कुम्हार, गधे के ऊपर मिट्टी लादकर आ रहा था। वह गधा नाला पार करते समय नाले में ही बैठ गया। मिट्टी धीरेधीरे पानी में गलकर बहने लगी। उसका परिग्रह कम हो गया और उसका काम बन गया, उसे हल्कापन महसूस होने लगा। फिर हँसकर बोले - जब परिग्रह छोड़ने से गधे को भी आनंद आता है तो आप लोगों को भी परिग्रह छोड़ने में आनंद आना चाहिए। वहाँ बैठे श्रावक आचार्य भगवन् के कथन का अभिप्राय समझ गये और सभी लोग आनंद विभोर हो उठे। हँसी-हँसी में ही गुरुदेव से इतना बड़ा उपदेश मिल गया कि - यदि इसे जीवन में उतारा जावे तो संसार से भी तरा जा सकता है और शाश्वत सुख को प्राप्त किया जा सकता है।
( छपारा पंचकल्याणक, 20.01.2001)
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