सर्दी का समय था पथरिया नगर में सारा संघ विराजमान था। आचार्य महाराज के ससंघ सान्निध्य में पंचकल्याणक महोत्सव होने जा रहा था। पहले दिन प्रवचन में गुरुदेव के मुख से वाणी सुनने के लिए जनता आयी हुई थी आचार्य महाराज ने प्रवचन में बोला कि देव-शास्त्र-गुरु की पूजन करने से कर्म की निर्जरा होती है, श्रावक के मुख्य दो धर्म बताये हैं -दान और पूजा। इन दान-पूजा जैसे कर्तव्यों को एकांत से बंध का कारण मानना आगम सम्मत नहीं है। ये बात अलग है कि संवर और निर्जरा के साथ-साथ पुण्य कर्म का भी बंध होता है।
प्रवचन के उपरांत ही गुरुदेव के साथ धर्मशाला परिसर की ओर आ रहा था। मैंने पूँछा-आचार्य श्री जी आज कल कुछ ऐसी बातें पूजन की पुस्तकों में प्रस्तावना के माध्यम से लोग लिखने लगे हैं जो प्राचीन आचार्यों के ग्रंथों से, मेल नहीं खातीं। अभी-अभी मैंने एक जिनवाणी में प्रस्तावना पढ़ी थी उसमें लिखा था प्रतिमाओं का अभिषेक कर्म निर्जरा के लिए नहीं बल्कि उन पर जो धूल जम जाती है, उसे हटाने के लिए प्रतिमाजी का अभिषेक, प्रक्षाल किया जाता है। यह सब आचार्य महाराज चुपचाप सुनते रहे फिर बोले कि- प्रतिमाजी का अभिषेक धूल झराने के लिए नहीं भूल (कर्म) झराने के लिए किया जाता है। देव नंदीश्वर द्वीप में अभिषेक पूजन के लिए जाते हैं सपरिवार, वहाँ कहाँ से प्रतिमाओं में धूल जमती है। अर्थात् कर्म निर्जरा के लिए ही अभिषेक करते हैं। भगवान की प्रतिमाजी का अभिषेक करने से, पैर छूने से अपनत्व झलकता है, इस कार्य को आस्था के साथ करने से कर्म क्षय होता है। ये अभिषेक पूजनादि क्रियाएँ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति एवं सम्यग्दर्शन की वृद्धि के कारण हैं। इसलिए इस क्रिया को आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ में सम्यक्त्व वर्द्धिनी क्रिया कहा है।
(2 मार्च 2007)