भेदभाव से रहित भेदविज्ञान से सहित जीवन जीने वाले व्यवहार कुशल शिल्पी आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज थे। एक बार जब वे गमन योग में थे तब एक ग्राम में पहुँचे वहीं पर आचार्य प्रवर श्री धर्मसागरजी महाराज जी से मिलना हुआ। तब बैठने की बात आई तो आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने कहा कि आप पहले बैठे क्योंकि आप तपोवृद्ध हैं तब आचार्य प्रवर श्री धर्मसागरजी महाराज बोले आप तो ज्ञान वृद्ध हैं तब व्यवहार कुशल शिल्पी आचार्य ज्ञानसागरजी बोले महाराज अपन दोनों एक साथ बैठ जायें। पहले और बाद में बैठने का प्रसंग इसलिए आया क्योंकि आचार्य प्रवर श्री धर्मसागर महाराज जी मुनि दीक्षा एवं आचार्य पद दोनों में बड़े थे फिर भी उनकी महानता बोल पड़ी कि ज्ञान के बिना धर्म की क्या कीमत? तब आचार्य श्री ज्ञानसागरजी भी बोल पड़े कि धर्म के बिना ज्ञान की क्या कीमत? तब जन समूह ने उनकी व्यवहार कुशलता देखकर आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज की जय आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज की जय-जय के नारों से आकाश गुंजायमान कर दिया था।