सहना और अपने में रहना, किसी से कुछ नहीं कहना, क्योंकि अपना दुख सहा जाता है, पर का दुख कहा जाता है। अपनी चिन्ता, अपना विकल्प आर्तध्यान और रौद्रध्यान का कारण बनता है। पर के उत्थान के विकल्प को धर्म शास्त्रों में आचार्यों ने धर्मध्यान की कोटि में रखा है। क्योंकि आदमी जितना सहन करता है, उसका शरीर बल उतना ही बढ़ता चला जाता है। आत्म बल हमेशा सहनशीलता के लिए ही प्रोत्साहित करता है। यही प्रतिकूल-अनुकूल परिस्थितियों में रहने की प्रेरणा देता रहता है। जो प्रतिकूल परिस्थितियों में रहना जानता है, वो कभी भी साधन के अभाव में खेद-खिन्न नहीं होता। पण्डित भूरामलजी जब स्याद्वाद विद्यालय में पढ़ते थे, तब दूसरे विद्यार्थियों के लिए अधिक संख्या में श्लोक याद हो जाते थे। आपके श्लोकों की संख्या कम रहती थी। साथियों के शब्द बाणों को सुनकर सहनशीलता को बढ़ाते थे।
कभी भी क्षुब्ध नहीं होते थे। पुरुषार्थ तो पूरा करते थे। अधिक याद नहीं होने पर यही सोचते थे अपना क्षयोपशम इतना ही होगा। अपन ने कभी किसी को पूर्व जीवन में व्यवधान उत्पन्न कर अन्तण्य कर्म को बांधा होगा। अपनी करनी का ही तो परिणाम है। कोई बात नहीं, थोड़े ज्ञान में भी बहुत गुजारा हो सकता है। बस ऐसा ही साम्यभाव बना रहे। ऐसा सोचकर अपने को समझा लेते थे।
मुनि बनने के बाद कभी चटाई का प्रयोग नहीं करते थे। करते भी ये तो बैठने के लिए खजूर की पत्तियों का आसन जो चुभन को ही देता है या सूखी घास के तृण का उपयोग करते थे, जो भी चुभन देती है। आरामदेह वस्तु के बारे में कभी इच्छा नहीं करते थे। बस काम चल जाये और दोष न लगे, इसी रीति से अपने दैनिक कार्य को सम्पादित करते थे। सल्लेखना के समय में भीषण गर्मी में बिना वातानुकूल साधना से काया को छोड़ने का आयाम बनाये रखा। वे आचार्य उमास्वामी महाराज के “इच्छा निरोधः तपः' सूत्र के प्रतिपालकाचार्य के रूप में कीर्तिमान को स्थापित करके समाधि को प्राप्त किया।