वाद में न विवाद में, विश्वास है आत्मवाद में। वे संवाद के लिए कभी अवसर प्रदान नहीं करते थे क्योंकि संवाद ही विवाद को जन्म प्रदान कर समय को नष्ट कर आर्त और रौद्रध्यान की ओर सहजता से गमन करा देता है और समय को नष्ट होने पर आगम को लिखने में व्यवधान जान पड़ता था। इसलिए वे अपने कार्य से ही प्रयोजन रखते थे। पंथवाद के झगड़े से दूर रहते थे। शास्त्रों में दो प्रकार की धाराएँ-एक कथंचित् ऐसा भी है वैसा भी है। स्थितियों में वे मौन रहते थे, फिर समाज में निश्चय-व्यवहार के झगड़े चला करते थे।
वे कहते थे-व्यवहार धर्म बहुत कठिन है, निश्चय धर्म सरल है। हाथ-पर हाथ रखकर बैठ जाओ। आचार्य नेमिचन्द्र महाराज के सूत्र को उजागर करने वाले ‘‘अप्पा-अप्पम्मि रओ' इस स्थिति में आने से अपने आप वाद-विवाद छूट जाता है। इसे ही आचार्यों ने ध्यान की मुद्रा की संज्ञा प्रदान की है। विशेष रूप से वे तत्त्व चर्चा को प्रोत्साहित करते थे। कभी भी फिजूल खर्ची बातों का जमा-खर्च उनके पास रहा ही नहीं। यदि कोई शास्त्रीय त्रुटि हो जाती थी तो उसे प्रकट होने से पहले जिस कलम से गलत लिखा गया उसी कलम से सही कर विद्वत् जनों के सामने प्रस्तुत करते थे।
शुद्ध उच्चारण उनके कण्ठ में विराजमान रहता था। वे दीर्घ और ठोस शब्दों के उच्चारण का ध्यान रखते थे। शुद्ध बोलना, शुद्ध लिखना इसलिए न वाद में, न विवाद और विश्वास आत्मवाद में इसी सूत्र पर चलने और चलाने की प्रथा के जनक रहे। शिष्यों में भी वाद-विवाद से दूर रहने की शिक्षा का प्रसारण स्वाध्याय करते समय कहते हुए सुना जाता था।
यही आदेश-निर्देश शिष्य के सुधार के लिए पर्याप्त हुआ करता है। जहाँ वाद-विवाद की स्थिति होती थी, ऐसी संगोष्ठियों में, संघों में जाना कतई पसंद नहीं करते थे। एकान्त में रहना तो उन्हें भा जाता था लेकिन भीड़ में पहुँचने के बाद हानि तो पसन्द ही नहीं थी, वे तो वही काम करते थे, जो हँसी का नहीं आत्म प्रगति का साधन बने।