महाकवि आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज
- मुनि क्षमासागर
जीवन-परिचय
आपका जन्म राजस्थान में जयपुर के समीप सीकर जिले के राणोली ग्राम में सन् १८९७ में हुआ था । आपके पिता श्री चतुर्भुजजी छाबड़ा एवं माता श्रीमती घृतवरी देवी दिगम्बर जैन श्रावक थे । परिवार में धर्म के संस्कार थे, गहरी आस्था थी । आपकी माँ ने बचपन में आपके दुर्बल शरीर को देखकर आपके जीने की आशा छोड़ दी थी पर प्रबल आत्मबल और धर्म में आस्था के प्रभाव से आप दीर्घायु हुए। सचमुच, आत्म - उत्थान के लिए जीवन जीने वाला चिरकाल तक जीवित रहता है और जो मात्र शरीर की सुख-सुविधाएँ जुटाने में जीवन गँवा देता है उसका जीना भी व्यर्थ है ।
आप गौरवर्ण के थे इसलिए आपका नाम भूरामल रखा गया । तब कोई नहीं जानता था कि एक दिन यह गौरवर्ण भी आपकी आत्म उज्ज्वलता के सम्मुख फीका जान पड़ेगा और आप अगाध ज्ञान और निर्मल संयम के धनी होकर सचमुच ज्ञान के सागर आचार्य ज्ञानसागर हो जायेंगे । बचपन से ही आपकी अध्ययन में रुचि थी ।
आपने अपने जन्मस्थान राणोली ग्राम में ही प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की । आपको गाँव में उच्च शिक्षा प्राप्त न हो सकी। इसी बीच आपके पिता का देहावसान हो गया । पिता के आकस्मिक निधन से घर की आर्थिक स्थिति नाजुक हो गई। बड़े भाई को आजीविका के लिए बाहर जाना पड़ा। वे गया (बिहार) पहुँचे और वहाँ एक जैन व्यवसायी के यहाँ कार्य करने लगे। गाँव में शिक्षा का साधन न होने से आप भी अपने बड़े भाई के समीप चले गए और एक जैन व्यवसायी के यहाँ कार्य सीखने लगे । तब कौन जानता था कि आजीविका की खोज में की जाने वाली यह यात्रा आत्मा की खोज का प्रथम चरण बन जायेगी ।
गया (बिहार) पहुँचे हुए आपको एक वर्ष ही हुआ था कि एक दिन किसी समारोह में भाग लेने आए हुए स्याद्वाद महाविद्यालय, बनारस के विद्यार्थियों से आपका मिलना हो गया। आपके मन में दबी हुई विद्याध्ययन की उत्कंठा पुनः जाग उठी और तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद आप पंद्रह वर्ष की उम्र में अध्ययन के लिए बनारस आ गए ।
आपने स्याद्वाद महाविद्यालय से संस्कृत साहित्य और जैनदर्शन की उच्चशिक्षा प्राप्त की तथा क्वीन्स कॉलेज, काशी से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। आपका मानना था कि ज्ञान अर्जन का उद्देश्य मात्र परीक्षा पास कर लेना या उपाधि प्राप्त कर लेना नहीं है । इसलिए आपने विविध परीक्षाएँ न देकर दिन-रात ग्रन्थों का गम्भीरता से अध्ययन-मनन किया, जिसके फलस्वरूप आपका ज्ञान गाम्भीर्य बढ़ता चला गया। गौरवर्ण, क्षीण शरीर, चौड़ा ललाट, भीतर तक झाँकती आँखें, हित- मित- प्रिय धीमी आवाज, संयमित सधी चाल, सतत् शान्त और गम्भीर मुद्रा - यही आपके व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य था।
आपने अध्ययन काल में अनुभव किया कि अधिकांश जैन ग्रन्थ अप्रकाशित और अनुपलब्ध हैं जिससे पाठ्यक्रम में व्याकरण, न्याय और साहित्य आदि के जैनेतर ग्रन्थ ही सम्मिलित किए जाते हैं । आपने अपने अथक प्रयत्न से जैन न्याय और व्याकरण के उपलब्ध ग्रन्थों को काशी विश्वविद्यालय और कलकत्ता परीक्षालय के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित करा दिया। महाविद्यालय में धर्मशास्त्र के अध्यापक पंडित उमरावसिंहजी (ब्रह्मचारी ज्ञानानन्दजी) के सहयोग से आपने अध्ययनकाल में जैनाचार्यों द्वारा रचित न्याय, व्याकरण और साहित्य के ग्रन्थों को गंभीरता से अध्ययन किया । अध्ययन काल में आप स्वावलम्बी रहे | किसी से आर्थिक सहायता नहीं ली। गंगा घाट पर गमछे बेचकर अपना अध्ययन पूर्ण किया ।
अध्ययन पूरा करके आप अपनी जन्मस्थली राणोली ग्राम लौट आए। घर की आर्थिक स्थिति कमजोर होते हुए भी आपने सवैतनिक अध्यापन कार्य करना ठीक नहीं समझा और अपने ग्राम में रहकर व्यवसाय द्वारा आजीविका अर्जित करके निःस्वार्थ भाव से स्थानीय जैन बालकों को शिक्षा प्रदान की। अपने छोटे भाइयों के पालन- पोषण और शिक्षा का उत्तरदायित्व भी आपने संभाला। आपकी व्यवसायिक योग्यता और विद्वत्ता देखकर सभी ने आपसे विवाह करके गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने का आग्रह किया, परन्तु आपने विवाह की स्वीकृति नहीं दी । आपने अध्ययन काल में ही आजीवन ब्रह्मचारी रहकर साहित्य सृजन और आत्महित में ही जीवन व्यतीत करने का संकल्प कर लिया था ।
अपने संकल्प को पूरा करने के पवित्र उद्देश्य को ध्यान में रखकर आप धीरे-धीरे व्यवसाय से उदासीन होकर अध्ययन-अध्यापन और साहित्य सृजन में लीन होते चले गए। एक बार शुद्ध सात्त्विक आहार ग्रहण करके निरन्तर अध्ययन, चिंतन-मनन और लेखन में लगे रहना आपकी दिनचर्या बन गयी । पं० भूरामलजी शास्त्री के नाम से विभिन्न साधु-संतों में आप एक प्रतिभाशाली विद्वान् के रूप में प्रसिद्ध हो गए ।
आपने निरन्तर अध्ययन-अध्यापन और साहित्य सृजन करते हुए संस्कृत और हिन्दी ग्रन्थों की रचना करके इन दोनों भाषाओं के साहित्य को समृद्ध किया । आपके द्वारा रचित संस्कृत काव्यग्रन्थों की भाषा अत्यन्त प्रौढ़ एवं लक्षणा, व्यंजना, गुण, अलंकार आदि काव्यगुणों से विभूषित है। इनमें विभिन्न रसों के माध्यम से जैन धर्म के प्राणभूत अहिंसा, सत्य आदि मूलव्रतों एवं स्याद्वाद, अनेकान्त, कर्मवाद आदि दार्शनिक विषयों का प्रतिपादन हुआ है । ये ग्रन्थ न केवल साहित्य व दर्शन की अपितु संस्कृत वाङ्मय की भी अमूल्य निधि हैं ।
आपकी युवावस्था साहित्य साधना करते हुए व्यतीत हुई और साहित्य सृजन का संकल्प पूरा हुआ। सांसारिक, भौतिक सुखों के प्रति आपका मन बचपन से ही विरक्त रहा । जिसके फलस्वरूप आपने सन् १९४७ में अजमेर नगर में आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज से ब्रह्मचर्य प्रतिमा नामक श्रावक की सातवीं प्रतिमा के व्रत अंगीकार कर लिए और कुछ समय पश्चात् गृहत्याग कर दिया । ज्ञानाराधना के साथ-साथ चारित्र के पथ पर निरंतर आगे बढ़ते जाना आपका वैशिष्ट्य था। सन् १९५५ में अक्षय तृतीया के दिन आपने क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की । क्षुल्लक दीक्षा के समय आपका नाम श्री ज्ञानभूषण हुआ । आत्महित के पथ पर बढ़ते हुए आप आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के द्वारा ऐलक के रूप में दीक्षित हो गए।
निरन्तर बढ़ती हुई आत्मनिर्भरता, तत्त्व के अभ्यास में रुचि, संसार से उदासीनता और परीषह को समतापूर्वक सहन करने की सामर्थ्य को देखते हुए २२ जून, १९५९ को खानियां (जयपुर) में आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज ने अपने प्रथम मुनि शिष्य के रूप में आपको दीक्षा प्रदान की और मुनि श्री ज्ञानसागरजी के नाम से आप प्रसिद्ध हो गए। आप संघस्थ मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी, त्यागी - व्रती आदि सभी को ग्रन्थों का स्वाध्याय कराने में निपुण थे । इसलिए कुछ ही समय में आप संघ के उपाध्याय बना दिए गए।
आपके अगाध ज्ञान और प्रखर तप से प्रभावित होकर अनेक आत्महित में तत्पर भव्य जीवों ने आपका शिष्यत्व स्वीकार किया । आपके द्वारा दीक्षित प्रमुख शिष्यों में आचार्य श्री विद्यासागरजी का नाम सर्वोपरि है। अन्य प्रमुख शिष्यों में मुनि श्री विवेकसागरजी, ऐलक श्री सन्मतिसागरजी, क्षुल्लक श्री सुखसागरजी, क्षुल्लक श्री आदिसागरजी, क्षुल्लक श्री विजयसागरजी, क्षुल्लक श्री संभवसागर जी एवं क्षुल्लक श्री स्वरूपानन्दजी उल्लेखनीय हैं।
चतुर्विध संघ की उपस्थिति में ७ फरवरी, १९६९ को नसीराबाद, जिला अजमेर (राजस्थान) की जैन समाज ने आपको आचार्य - पद से अलंकृत किया। २० अक्टूबर, १९७२ को जैन समाज ने आपको चारित्र - चक्रवर्ती पद से सम्बोधित करके श्रद्धा और भक्तिभाव प्रकट किया । इन विशिष्ट पदों पर आसीन होते हुए भी आप ख्याति, लाभ आदि से दूर रहे | तब सभी ने महसूस किया कि आपकी विशेषताओं के आगे सारे विशेषण बौने मालूम पड़ते हैं। अस्सी वर्ष की आयु में भी दिन-रात ज्ञान - ध्यान में लीन रहने वाले आप जैसे साधक विरल हैं।
जीवन का अंत समय निकट जानकर आपने २२ नवम्बर, १९७२ को हजारों लोगों के बीच नसीराबाद में अपने योग्यतम शिष्य मुनि श्री विद्यासागरजी को अपना आचार्यपद सौंप दिया और उनके चरणों में अत्यन्त विनयपूर्वक सल्लेखना की याचना की । ऐसी निस्पृहता, अहंशून्यता और आत्म निर्मलता आज के समय में अत्यन्त दुर्लभ है। ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या, वि० सं० २०३०, १ जून, १९७३ के दिन ४ दिन के निर्जल उपवास करके १० बजकर १० मिनट पर आपने समतापूर्वक अपनी नश्वर देह का परित्याग कर दिया। आपके ज्ञान और वैराग्य की ज्योति सदा हर साधक का मार्ग आलोकित करती रहेगी ।
साहित्य-साधना
आप मन, वाणी और कर्म को पवित्र बनाने वाले अहिंसा, सत्य आदि उदात्त मानवीय जीवन मूल्यों को स्वयं अपने जीवन में पुष्पित और फलित करने वाले मानवतावादी, संवेदनशील, निस्पृही संत और महाकवि हैं । मानव समाज का कल्याण करने में आपकी काव्य सम्पदा महाकवि अश्वघोष की काव्य सम्पत्ति से भी अधिक मूल्यवान है। आपने भारतीय मनीषा प्रसूत अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह नामक पाँच सार्वभौम महाव्रतों के परिपालन की उत्प्रेरणा देने में सक्षम चार महाकाव्य और एक चम्पूकाव्य की सरस सर्जना करके मानव समाज को उच्चतम आध्यात्मिक जीवन जीने का अनुपम संदेश दिया है।
आपके द्वारा रचित 'दयोदय' चम्पू काव्य के नायक का जीवन पाठकों के मन पर अहिंसा की स्पष्ट छवि अंकित करता है । सत्य और अचौर्य के महत्त्व को रेखांकित करने वाला 'भद्रोदय' महाकाव्य पठनीय है। ‘वीरोदय' महाकाव्य के नायक भगवान् महावीर स्वामी ब्रह्मचर्य की प्रतिमूर्ति हैं । अपरिग्रह महाव्रत के माहात्म्य को दर्शाने वाला 'जयोदय' महाकाव्य संस्कृत महाकाव्यों में अद्वितीय है । 'सुदर्शनोदय' महाकाव्य का नायक अपने जीवन में होने वाले घात-प्रतिघात को सहन करते हुए किस तरह जीवन को संयमित और अनुशासित बनाता है, यह पठनीय है।
साहित्यिक दृष्टि से देखने पर आपके द्वारा रचित महाकाव्य कालिदास, भारवि, माघ और श्रीहर्ष के महाकाव्यों से प्रतिस्पर्धा से करते प्रतीत होते हैं । कथावस्तु, चरित्रचित्रण, भावपक्ष, कलापक्ष, वर्णनविधा, परिवेश आदि की दृष्टि से भी ये महाकाव्य अत्यन्त सजीव और सहृदयों को आल्हादकारी हैं । यदि समालोचक धर्मनिरपेक्ष दृष्टि से आपकी इन रचनाओं को पढ़ें तो वे पायेंगे कि आपकी रचनाएँ अत्यन्त उच्चकोटि की हैं। आपके काव्यों में पायी जाने वाली अन्त्यानुप्रास शैली अभिनव और मौलिक है, जिससे काव्य में एक रमणीय प्रवाह दृष्टिगोचर होता है और दार्शनिक सिद्धान्तजन्य दक्षता भी काव्य को नीरस नहीं होने देती । आपकी यह काव्यशैली संस्कृत साहित्य-समाज में आपका विशिष्ट स्थान निर्धारित करने में सक्षम है। वास्तव में संस्कृत भाषा में रचित अपने महाकाव्यों में तुलसीदास कृत रामचरितमानस की चौपाई शैली के समान शैली अपनाना अपने आप में ही एक संस्तुत्य कार्य है ।
संस्कृत काव्य सम्पदा
जयोदय महाकाव्य
इस काव्य में श्रृंगाररसरूपिणी यमुना और वीररसरूपिणी सरस्वती का शान्तरसरूपिणी गंगा के साथ अद्भुत संगम किया गया है । 'वृहत्त्रयी' की परम्परा में प्रौढ़ संस्कृत भाषा में इस काव्य की रचना हुई । इस काव्य में जयकुमार का परिणय, स्वयंवर में राजाओं के एकत्र होने, दासी द्वारा सुलोचना के समक्ष राजाओं का परिचय देने आदि का वर्णन इसे निःसंदेह 'नैषधीयचरित' के समकक्ष कर देता है । अनवद्यमति मंत्री का अर्ककीर्ति को समझाना अर्थ गौरव की झाँकी प्रस्तुत करता है। पर्वतवर्णन, वनविहारवर्णन, संध्यावर्णन और प्रभातवर्णन इसे माघ के ' शिशुपाल वध' की तुलना में ले जाते हुए लगते हैं ।
काव्य को पढ़कर लगता है कि साहित्य के माध्यम से दर्शन प्रस्तुत करने की कला में कवि सिद्धहस्त है । इस काव्य का उद्देश्य राजा जयकुमार और सुलोचना की प्रणय कथा के माध्यम से अपरिग्रह व्रत के माहात्म्य का वर्णन करने का रहा है। साथ ही धर्मसंगत अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि भी इसी काव्य में की गई है। इस तरह जयोदय काव्यशास्त्रीय, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और दार्शनिक दृष्टियों से कालिदास एवं कालिदासोत्तर काव्यों के मध्य में पूर्णतः योग्य है। अट्ठाइस सर्गों वाले इस महाकाव्य को सन् १९५० में ब्रह्मचारी सूरजमल, जयपुर ने प्रकाशित कराया ।
वीरोदय महाकाव्य
यह भगवान् महावीर के त्याग एवं तपस्यापूर्ण जीवन पर आधारित बाईस सर्गों वाला महाकाव्य है । यह काव्य एक ओर तो शैली की दृष्टि से कालिदास की श्रेणी में आ जाता है और दूसरी ओर दर्शनपरक होने के कारण बौद्ध दार्शनिक महाकवि अश्वघोष के समकक्ष आता है ।
काव्यशास्त्रीय दृष्टि से इस काव्य को देखें तो यह उत्कृष्ट कोटि का महाकाव्य है । इसकी घटनाओं की जीवन्तता इसे इतिहास ग्रन्थ एवं पुराण ग्रन्थ की श्रेणी में ले जाती है। इसमें धर्म के स्वरूप की प्रस्तुति का कौशल देखकर लगता है मानो यह कोई धर्मग्रन्थ है ।
यह काव्य सहृदयग्राह्य है । इसमें ब्रह्मचर्य की गरिमा और अहिंसा तथा अपरिग्रह का उपदेश अनुकरणीय है । पुनर्जन्म और कर्मसिद्धान्त भी प्राणी मात्र को अच्छे-अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देते हैं । कवि द्वारा की गई दर्शन के सिद्धान्तों की प्रस्तुति दार्शनिकों और कवियों दोनों की रुचियों को संतुष्ट करने में सक्षम है।
सुदर्शनोदय महाकाव्य
यह नौ सर्गों का एक छोटा-सा महाकाव्य है । इस काव्य के द्वारा कवि ने पंच नमस्कार मंत्र के माहात्म्य को अवगत कराने का प्रयास किया है। साथ ही पातिव्रत्य, एकपत्नीव्रत, सदाचार आदि मानवीय जीवन मूल्यों की शिक्षा दी है। कपिला ब्राह्मणी की कामुकता, अभयमती का घात-प्रतिघात, देवदत्ता वेश्या की चेष्टाएँ और काव्य के नायक सुदर्शन की इन सब पर विजय, काव्य के मार्मिक स्थल हैं। ये सभी स्थल पाठक को सच्चरित्र की शिक्षा देते हैं ।
इस काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है इसके गीत साहित्य, संगीत एवं दर्शन का सम्मिश्रण काव्य को उत्कृष्ट बनाने में सहायक हुआ है । अन्तर्द्वन्द, प्रसन्नता, भक्ति, प्रेम इत्यादि मनोभावों को प्रकट करने में सहायक विभिन्न राग-रागनियों की शैलियों में बद्ध इन गीतों का प्रयोग कवि का अद्भुत प्रयास है ।
कथा के माध्यम से प्रस्तुत इस ग्रन्थ की शिक्षाएँ कोरा उपदेश न रहकर पाठक के हृदय पर छा जाने की क्षमता रखती हैं। ऐसी विशेषताएँ अन्य काव्यों में प्रायः दुर्लभ होती हैं ।
भद्रोदय महाकाव्य
इस काव्य में नौ सर्ग हैं | इसका अपरनाम 'समुद्रदत्त चरित' है । इसमें काव्य नायक भद्रमित्र के माध्यम से अस्तेय महाव्रत की शिक्षा दी गई है और चोरी एवं असत्य भाषण के दुष्प्रभाव से बचने के लिए पाठकों को सावधान किया गया है।
इस काव्य को रचने का उद्देश्य किसी रोचक घटना विशेष को प्रस्तुत करना नहीं है। कथा तो काव्य के उद्देश्य अस्तेय की शिक्षा की सहायिका बन कर आयी है। पूरा काव्य पढ़ने पर एक ही निष्कर्ष निकलता है “सत्यमेव जयते, नानृतम्” ।
यह एक ऐसा काव्य है, जिसमें महाकाव्य और चरित काव्य की विशेषताएँ साथ-साथ दृष्टिगोचर होती हैं । यह काव्य आबाल-वृद्ध सभी के लिए हितोपदेशात्मक है।
दयोदय चम्पूकाव्य
अन्य प्रचलित चम्पूकाव्यों की अपेक्षा यह काव्य सरल और लघुकाय है । यही इस काव्य की नवीनता है । इस काव्य के माध्यम से कवि ने अहिंसाव्रत की शिक्षा देनी चाही है। समाज में अहिंसा व्रत का पालन सब करें, इसीलिए इस चम्पू काव्य में सामान्य धीवर के द्वारा जिसकी आजीविका ही हिंसा से चलती है, अहिंसा व्रत का पालन करवाया गया है और इस व्रत के प्रभाव से अगले जन्म में वह किस प्रकार, कई बार मृत्यु से बच गया, यह दर्शाया गया है |
काव्य में गद्य-पद्य का सुंदर संतुलन है । इस काव्य का समृद्ध कलापक्ष अपने भावपक्ष को अच्छी तरह अभिव्यक्त करता है ।
मुनिमनोरंजनाशीति
यह एक मुक्तक काव्य है, जिसमें अस्सी पद्य हैं। इसमें दिगम्बर मुनि एवं आर्यिका की चर्या और विशेषताओं का वर्णन है । पूरा काव्य उपदेशात्मक है । विषय के अनुसार इसकी भाषा प्रसाद गुण सम्पन्न है। पद्यों का अर्थ आसानी से हृदयंगम हो जाता है।
ऋषि कैसा होता है?
यह छोटी-सी अप्रकाशित कृति है । इसमें चालीस पद्य हैं। इसमें कवि ने ऋषि के स्वरूप एवं चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के मार्ग का प्ररूपण किया है।
सम्यक्त्वसार- शतक
यह एक उच्च श्रेणी का आध्यात्मिक काव्य है । समीचीन दृष्टि ही मुक्ति का सोपान है, यह बात कवि ने बड़ी सरलता से पूरे काव्यमाधुर्य के साथ इस ग्रन्थ में प्रस्तुत की है । दृष्टि की निर्मलता, ज्ञान और आचरण की पवित्रता, यही तीनों मिलकर प्राणी मात्र के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं । इसे ही जैनदर्शन में रत्नत्रय या मोक्षमार्ग कहा गया है। इस समीचीन दृष्टि के अभाव में ही संसार का प्रत्येक जीव बाह्य इन्द्रिय विषयों में सुख मानकर निरन्तर दुख उठा रहा है। कवि ने जैनदर्शन की गहराइयों को अपनी सरल भाषा द्वारा सर्वसाधारण के लिए बोधगम्य बनाने का प्रयास इस काव्य के माध्यम से किया है। मोक्षमार्ग के जिज्ञासुओं के लिए यह अत्यन्त उपयोगी है।
प्रवचनसार (अनुवाद)
प्रस्तुत ग्रन्थ मौलिक रूप से आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी द्वारा प्रणीत है । जिसकी भाषा प्राकृत है। इसमें तीन अधिकार- ज्ञानाधिकार, ज्ञेयाधिकार और चारित्राधिकार हैं । आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने प्राकृत भाषा में रचित इस ग्रन्थ की समस्त गाथाओं का संस्कृत भाषा के अनुष्टुप् श्लोकों में छायानुवाद किया है। साथ ही उनका हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश भी लिख दिया है । इस तरह यह ग्रन्थ कविवर की मात्र हिन्दी रचना न रहकर संस्कृत एवं हिन्दी मिश्रित रचना हो गई है । " गद्यः कवीनां निकषं वदन्ति" इस रूप में इस ग्रन्थ का गद्य आदर्श, सरल और सरस है । इस ग्रन्थ के द्वारा जैनदर्शन के प्रमुख विषयों द्रव्य, गुण, पर्याय, अशुभ, शुभ, शुद्धोपयोग, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप सत् का स्वरूप एवं सच्चे साधु के कर्त्तव्य आदि को आसानी से समझाया जा सका है।
हिन्दी काव्य सम्पदा
ऋषभावतार
महापुराण में वर्णित आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के कथानक के आधार पर लिखा गया यह हिन्दी काव्य है । इस काव्य में सत्रह अध्याय हैं । काव्य की कुल पद संख्या आठ सौ ग्यारह है । काव्य में श्रृंगार, शांत, वीर, वात्सल्य आदि रसों का यथास्थान सम्यक् प्रयोग हुआ है । इस काव्य में कवि ने सुकुमार शैली का प्रयोग किया है। समाप्ति भक्तिभाव की अभिव्यंजना के साथ हुई है।
कवि ने इस काव्य के माध्यम से जैन धर्म और दर्शन को भलीभाँति पाठकों तक पहुँचाया है । इस काव्य में आचार्य-सम्मत महाकाव्य के सभी अधिकांश लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं । अतः हमें इस काव्य को महाकाव्य की संज्ञा देने में संकोच नहीं करना चाहिए ।
भाग्योदय
इस काव्य में धन्यकुमार का जीवन वृत्तान्त बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है । तेरह शीर्षकों वाले इस काव्य में प्रयुक्त समस्त पद्यों की संख्या आठ सौ अट्ठावन है । इस काव्य से कवि ने मानव को कर्मठता, सत्यवादिता, सहिष्णुता, त्यागप्रियता और परोपकार परायणता की शिक्षा देने के प्रयास में अद्भुत सफलता पायी है । ऋषभावतार के समान ही यह काव्य भी महाकाव्य की संज्ञा पाने के योग्य है ।
गुण सुंदर वृत्तान्त
यह रूपक काव्य है। इसमें राजा श्रेणिक के समय में युवावस्था में दीक्षित एक श्रेष्ठिपुत्र का मार्मिक वर्णन किया गया है।
कर्त्तव्य पथ प्रदर्शन
इस ग्रन्थ में बयासी शीर्षकों के अन्तर्गत मानव के दैनिक कर्त्तव्यों की शिक्षा दी गई है। शिक्षा को रोचक बनाने के लिए अनेक कथाएँ शामिल की गई हैं। यदि इस पुस्तक में बताये गए सामान्य नियमों को व्यक्ति आत्मसात् कर ले तो वह सच्चा मानव बन सकता है।
सचित्त विवेचन
प्रस्तुत पुस्तक में सचित्त यानि जीवाणुसहित और अचित्त यानि जीवाणुरहित पदार्थों का अंतर समझाया गया है। दैनिक उपयोग में आने वाली खाद्य सामग्री वनस्पति, जल आदि को अचित्त (बैक्टीरिया रहित ) बनाने का उद्देश्य यथासम्भव हिंसा से बचना और इन्द्रियों पर अनुशासन बनाये रखना है ।
ग्रन्थ की भाषा सरल और सुबोध है। सामान्य ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी इस पुस्तक को पढ़कर लाभ ले सकता है ।
मानव धर्म
यह आचार्य समन्तभद्र स्वामी के रत्नकरण्डक श्रावकाचार के संस्कृत श्लोकों पर लिखी गई छोटी-छोटी टिप्पणियों का संकलन है । विषय को रोचक बनाने वाली छोटी-छोटी बोधकथाएँ भी इसमें शामिल हैं। एक सामान्य गृहस्थ के लिए सच्ची जीवन दृष्टि, सच्चा ज्ञान और सच्चे आचरण की शिक्षा देने वाला यह एक समीचीन धर्मशास्त्र है ।
स्वामी कुन्दकुन्द और सनातन जैन धर्म
इस छोटी-सी पुस्तक के माध्यम से कवि ने महान् दिगम्बर जैन आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी का जीवन परिचय प्रस्तुत किया है। साथ ही श्वेताम्बर, दिगम्बर मत की उत्पत्ति, उसकी विशेषताएँ, वस्त्रधारी को मुक्ति संभव नहीं, केवलज्ञान का वैशिष्ट्य आदि विषयों का अच्छा विवेचन किया है।
पवित्र मानव जीवन
प्रस्तुत पुस्तक की रचना सरल हिन्दी भाषा के पद्यों में की गई। पूरी पुस्तक में एक सौ तिरानवे पद्य हैं। इसमें कवि ने जीवन को सफल बनाने वाले कर्त्तव्यों का निरूपण किया है । समाज सुधार, परोपकार, कृषि और पशुपालन, भोजन का नियम, स्त्री का दायित्व, बालकों के प्रति अभिभावकों का दायित्व आदि विषयों पर अच्छी सामग्री इसमें है ।
सरल जैन विवाह विधि
इस पुस्तक के माध्यम से कवि ने जैन विवाह पद्धति का दिग्दर्शन कराने का प्रयास किया है। मंत्रोच्चारण संस्कृत भाषा में हैं । उनका अनुवाद हिन्दी में है । सारी विधि विभिन्न छन्दों में पद्यात्मक रूप से लिखी गई है।
तत्त्वार्थ दीपिका
यह जैन धर्म के पवित्र ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र / मोक्षशास्त्र को सरल भाषा में प्ररूपित करने वाली पुस्तिका है। गहन, गम्भीर विषय को सरल बनाने के लिए रोचक उद्धरण शामिल किए गए हैं। वैसे भी मोक्षमार्ग और मोक्ष का निरूपण करने वाला आचार्य उमास्वामी का यह ग्रन्थ अपने आप में अनूठा है ।
विवेकोदय
यह आचार्य कुन्दकुन्द महाराज के द्वारा रचित महान् आध्यात्मिक ग्रन्थ 'समयसार' की गाथाओं का 'गीतिका छंद' में हिन्दी रूपान्तर है ।
आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के दो अन्य ग्रन्थों 'अष्टपाहुड' और 'नियमसार' का पद्यानुवाद भी आचार्य महाराज ने बड़ी सरलता से किया, जिनका प्रकाशन क्रमशः 'श्रेयोमार्ग' (१९६२) और 'जैन गजट' (१९५६-५७) में हुआ है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी के 'देवागम स्तोत्र' का पद्यानुवाद भी 'जैन गजट' में (१० जनवरी से २५ अप्रैल १९५७ तक क्रमशः) प्रकाशित हुआ है ।
आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के 'समयसार' ग्रन्थ पर आचार्य जयसेन स्वामी द्वारा लिखी गई तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका का हिन्दी अनुवाद एवं सारगर्भित भावार्थ आचार्य महाराज ने किया है, जो हर मोक्षमार्गी के लिए पाथेय की तरह अत्यन्त उपयोगी है ।
इस तरह आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने अपने प्रखर ज्ञान के द्वारा जैन धर्म और दर्शन की ही नहीं, वरन् संस्कृत और हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि में अनुकरणीय योगदान दिया है । उनके निष्काम जीवन से व्यक्ति को नैतिक और धार्मिक उत्थान की दिशा मिली है। उनके द्वारा दीक्षित आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज मानो उनकी जीवन्त कृति हैं, जो निरन्तर प्रकाशित होकर प्राणी मात्र को आत्मप्रकाश दे रहे हैं ।