अपने उपयोग को स्थिर रखने के लिए एवं मन को शांत बनाये रखने के लिए साधक साधना करता है। चिन्तन, मनन, लेखन भी करता है। पर प्रकाशन से हमेशा दूर रहता है क्योंकि प्रकाशन शब्द स्वयं कहता है प्रकाश-न। इसलिए आचार्य ज्ञानसागरजी कहा करते थे कि आज के लेखकों को प्रकाशन की अधिक चिन्ता है। साधक को चिन्ता नहीं बल्कि चिन्तन करना चाहिए। वे कहते थे कि "मैं तो साधक हूँ प्रकाशक नहीं।" लेखन कार्य दोषपूर्ण है अति आवश्यक होने पर किसी और से लिखवा लें तो अच्छा रहेगा। आचार्य श्री ज्ञानसागर महाराज जी ने समयसार की टीका को छोड़कर बाकी सभी ग्रन्थ निर्ग्रन्थ होने से पूर्व अर्थात् पं. भूरामल एवं क्षु. ज्ञानभूषण की अवस्था में लिखे हैं, मुनि अवस्था में नहीं। उनके द्वारा रचित ग्रन्थ या तो ग्रन्थालयों में या मंदिरों में या उनके भक्त श्रावकों के यहाँ से प्राप्त हुए और अधिकतर ग्रन्थों का प्रकाशन उनकी समाधि के बाद ही हुआ। अपने द्वारा रचित ग्रन्थों के प्रकाशन से दूर रहने वाले वे एक महान् साधक थे आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज।
आचार्य श्री के मुखारबिन्द से
धवला (६) वाचना के अवसर पर
०४.०६.१९९८, भाग्योदय तीर्थ, सागर
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