कोई भी भाषा-साहित्य को जब भी समझा जायेगा, अपनी समझ से ही समझा जायेगा। समझाने वाला, पढ़ाने वाला जब भी पढ़ायेगा अपनी समझ से ही पढ़ायेगा। इसलिए पढ़ाने वाला प्रभावी जब बन जाता है नासमझ को समझदार बना देता है, इसलिए उसकी कीमत भी बढ़ जाती है। समझाना भी एक कला है। जिसे (टेकल) करने की कला कहते हैं।
आचार्य ज्ञानसागरजी ने संस्कृत भाषा को जब भी देखा, समझा, जाना; कठिनतम ही जाना और जब न्याय को पढ़ा समझा, समझाया तब उसे पचाने योग्य ही जाना। साहित्य को हमेशा स्वादिष्ट ही जाना। वे कहते थे-संस्कृत लोहे के चने के समान है, न्याय पचाने योग्य चने हैं और साहित्य हलुआ है। यही उनकी अपनी समझ हुआ करती थी।
आचार्यश्री के श्री मुख से
९.८.२००५, मंगलवार
बीरा बाराह, सागर (मध्यप्रदेश)