कुछ नहीं रखने का भाव और अपने में रहने का भाव, उपकरणों के प्रति भी निर्ममत्वपना रखना आकिंचन्य व्रत का कदम आत्म-सोपान का कदम ही आकिंचन्यवृत्ति को धारण करना ज्ञाता दृष्टा भाव बनाये रखना।
बात उस समय की है, जब आचार्य ज्ञानसागरजी ने दिगम्बर दीक्षा को धारण कर निष्परिग्रहता की ओर कदम रखा, तब उनकी दृष्टि में आया, दृष्टि तो शरीर की कमी या उम्र के कारण ओझलपने को प्राप्त हो सकती है, लेकिन आत्मा परिग्रह दृष्टि के कारण ओझल होता चला जाता है। इस कारण आकिंचन्य भाव को नष्ट होने में देर नहीं लगती।
आचार्यश्री के मुख से
२९.९.२००४, रविवार उ
त्तम आकिंचन्य धर्म, तिलवाराघाट, जबलपुर