समय भी निःशब्द अपने कदमों से
सरक रहा था आगे कि अचानक...
समयसागर जी हो गये अस्वस्थ
पण्डितजी ने किया अनुरोध
चिकित्सा संभव नहीं यहाँ,
हृदय काम कर नहीं रहा
शरीर से ठंडा पसीना आ रहा
नाड़ी का पता चल नहीं रहा...
गंभीर है स्थिति!
कटनी ले जाने की दीजिए अनुमति…
धीरे से पूछा पण्डितजी ने
यदि सुधरता नहीं स्वास्थ्य तो
करेंगे क्या आप?
क्षुल्लक समयसागरजी ने मंद स्वर में
उत्तर दिया धरकर शांतभाव
‘‘सल्लेखना लूंगा।''
क्या समाधि के लिए तैयार है मन?
बोले संयत स्वर में क्षुल्लक जी
आप चिंता न करें श्रीमान्!
मृत्यु महोत्सव को तैयार है मेरा चेतन।'
मरण से निर्भय हूँ मैं;
क्योंकि जान लिया है।
स्वभाव से अमर हूँ मैं।
वाह-वाह धन्य!
आह्लाद के स्वर फूट पड़े।
पण्डितजी के सूकंठ से…
“जैसे जाके नदिया-नारे वैसे वाके भरखा।
जैसे जाके बाप-मताई वैसे वाके लरका''।
जैसे गुरु वैसे शिष्य
जैसे दाता वैसे पात्र
जैसी दीक्षा वैसे संस्कार,
जो कुएँ में होता है।
वही बाल्टी में आता है।
जो गुरु में होता है।
वही शिष्य में आता है।